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जब नहीं था

समय

तब तुम घूमती थी

और मंडराती थी

हमारे इर्द-गिर्द

करती थी परिक्रमा

और मैं देता था झिडक  

 

अब मैं

हूँ घर पर मुसलसल

साथ तुम भी हो

व्यस्तता भी अब नहीं कोई   

कितु मेरे पास तुम आती नहीं

परिक्रमा तो दूर की है बात

ढंग से मुसक्याती नहीं    

 

 

नहीं होता

यकीं इस बदलाव पर  

नहीं आ सकतीं

किसी बहकावे में तुम

और फिर अफवाह की भी बात क्या  

कब यकीं करती थीं तुम

इन पर प्रिये   

 

आज

पीना चाहता हूँ जब

मैं अभी परिरंभ-घट मदिरा

और खोना चाहता हूँ

मरमरी बाहों में तुम्हारी

हौसले के साथ

कि यह चतुर्दिक गश्त करती

मौत की खामोशी भयावह

नहीं कर पायेगी

तनिक भी भीत मुझको

मैं रहूंगा शाश्वत सुरक्षित

उस तुम्हारी बांह की  

मंजुल परिधि में  

 

हाँ

मुझे विश्वास था मैं लड़ सकूंगा  

मौत से बेख़ौफ़

जब पुकारोगी मुझे तुम दींन होकर

या हमारे पास आकर

पर न जाने क्या हुआ

वातावरण को 

आज घर में साथ है हम

ये अजानी दूरियां हैं

(मौलिक/ अप्रकाशित )

Views: 387

Comment

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Comment by narendrasinh chauhan on April 11, 2020 at 10:28am

खूब सुंदर रचना सर

Comment by vijay nikore on April 10, 2020 at 9:08pm

आपकी रचना में पाठक को पास रखे रखने का दम है। इस अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई,आ० गोपाल नारायन जी।

कृपया ध्यान दे...

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