For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी's Blog (199)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २५

न होता परवाना तो जलके शरार क्या होता

न होती शम्मा तो फिर जाँनिसार क्या होता

 

तेरे हाथों मेरा रेज़एइश्क नागवार क्या होता

अगर उड़ता नहीं हवाओं में गुबार क्या होता

 

वफाशनास कब हुआ है हुस्न आप ही बोलो

अगर जो होता वो वैसा तो प्यार क्या होता

 

मुझे यकीन है वादों पे कि ये मेरी चाहत है

जोहोता न खुदपे तो तेरा ऐतेबार क्या होता

 

लिखी जाती कहानियां हमारी भी हाशिए पर  

मैं तेरे चाहने वालोंमें होके शुमार क्या…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 8, 2012 at 3:54pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३६

सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:56am — 3 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३५

मुद्दत हो गई है कुछ भी लिखे, इक अधूरापन समा गया हो जैसे मेरे अन्दर, और गोया ये अधूरापन अपने अधूरेपन के अधूरेपन में ही मुतमईन हो. भोपाल से सफर पे आमादा हुए तीन हफ्ते गुज़र गए हैं और इन तीन हफ़्तों में कई मंज़िलात से गुज़रा- इंदौर-बैंगलोर-चेन्नई-बैंगलोर-मैसूर-बैंगलोर-चेन्नई- और फिर वापस बैंगलोर. आगे आने वाले दिनों में और भी कई जगहों का कयाम करना है- अहमदाबाद, पुणे, नॉएडा, जयपुर.... कभी हवा में थम से गए हवाई जहाज़, कभी लोहे की पटरियों पे दौड़ती रेल, कभी फर्राटे से भागती कार, तो कभी वोल्वो बस की…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 1, 2012 at 5:30pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३४

प्यार की इक खोई नज़र आज फिर लौट आयी, झुकी आँखों का दबा दबा भंवर आज फिर याद हो आया. ज़मीन पे बिछे तोशक पे, दीवार से लगके बैठे, कँवल सी फ़ैली हथेलियों में अपनी ठोढ़ी संभाल के, अपनी लरज़ती ज़ुल्फों के काकुल के झरोखे से ज़मीन को ताकते हुए तुम किसे सोचती थीं? मैं जानता हूँ, वो मैं ही था और और थीं तो हमारे बेसाख्ता पैदा हुए प्यार के गैरमुऐयन मुस्तकबिल (अनिश्चित भविष्य) की तश्वीशात (चिंताएं)! फिक्रमंद, अपनी सतर उँगलियों से मिट्टी पे जो अबूझ से नक्श तुमने उकेरे थे, ...इक शाम मेरे साथ, आज वो ख़्वाबों…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 15, 2012 at 9:12pm — 5 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३३

रात की सन्नाटगी बोलने लगी है, कानों की वीरानियाँ सुनने. कालोनी की सडकों पे तन्हाईयों के डेरे लग चुके हैं और घरों में लोग अपने अपने बिस्तर पे कटे दरख्तों की मानिंद बिछ से गए हैं. किसी किसी घर से टीवी के चलने की आवाज़ भी आ रही है, पता नहीं देखने वाला जाग भी रहा है या सो रहा है. लोग इक समूचे दिन को पीछे छोड़ आए हैं और रोज़मर्रा की तमाम कदोकाविश (भाग दौड़) जैसे उनके कपड़ों के साथ आलमीरों में टंग गई है इक रात के आराम के लिए. जूते मेज के किनारे चुपचाप पड़े हैं, उनके तस्में (फीते) लहराते अंदाज़ में…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 7, 2012 at 12:28am — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २४

ये जो शहरेवीराँ ये बस्तीएतन्हाई है  

आदमोहव्वाकी यही दौलतेआबाई है

 

चलिए रखके अपनी रफ़्तार पे काबू

ख्यालोंका शह्र है आबादीहीआबादी है  

 

कोई रोटी चाहे फूली, या न फूली हो

तवे से आखिर उतार ही दी जाती है

 

ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के

सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है

 

तू फ़िक्रज़दा होती है तो यूँ लगता है

एक चिड़या है, बिल्ली से घबराती है

 

नसही तू तेरे नामसे वाबस्तगी सही

तुझसे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 7:00pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३२

कोई दिन यूँ ही उदास सा बारिश का, इक नीम के दरख्त सा खड़ा, बिना परिंदों का, न ही कोई फूल महकते, न ही कोई चिड़िया चहकती, बस बारिश की बूंदों को टपकाते ख्यालों से चुप, ऊँचाइयों को छूते शज़र, पानी और नमी से झुके-झुके.  

 

सुबह से बादलों के काले सायों का आँचल ओढ़ रखा है फ़ज़ा ने, घरों ने भी जैसे खामोशी की बरसाती ओढ़ रखी है, पहचाने घर भी पराए से लगते हैं. गली में कुत्ते भी भागते छुपते शायद ही नज़र आते, लोग भी कम ही दीखते हैं नुक्कड़ की दूकानों के इर्द गिर्द, गाड़ियों ने भी गोया आज…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 3:30pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३१

ज़िंदगी क्या है? बचपन गुज़र गया, जवानी बीत गई, ज़ईफ़ी उफ़ुक़ (क्षितिज) पे आ चुकी है. बेफिक्री, नाइल्मी, मासूमी, और मौजोमस्ती के दौर अब रहे नहीं; मआशी (आर्थिक), इज्देवाजी (दाम्पत्य), इन्फिरादी (व्यक्तिगत), कुनबाई (पारिवारिक), और समाजी फिक्रों के तानेबानों में पल पल की राह ढूँढते रहते हैं. हमें किसकी तलाश रहती है, दिल क्यूँ कभी खुश तो कभी रंजोगम (दुःख और दर्द) से माज़ूर (व्यथित) होता है, इक ही सूरत को पहने माहौल कभी क्यूँ दिलकश तो कभी दिल पे गराँ (भारी) लगते हैं?

बच्चे छोटे थे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 4, 2012 at 2:10pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३०

ज़िंदगी के रुपहले परदे पे हम किसी साए की तरह जी रहे हैं, कायनात से आ रही शुआ बिखर कर रंगीन हो गयी है. जब भी कुछ टूटा है, कुछ नया बना है. जब भी कहीं कुछ नया हुआ, कहीं कुछ पुराना छूट गया है. हालात में तरतीब (व्यवस्था) की तलाश की तो बेतरतीबियां ही बेतरतीबियाँ नज़र आईं और जब किसी भी हाल में गाफ़िल (बेसुध) होके जिया तो बेतरतीबियों के सिलसिले में भी इक तसलसुल (क्रम) सा बन गया. अजीब इत्तेफाक़ है कि इत्तेफाक़ भी तय लगते हैं और ये भी कि तयशुदा ज़िंदगी में इत्तेफाक़ ही इत्तेफाक़ हैं. ज़िंदगी में ये…

Continue

Added by राज़ नवादवी on August 1, 2012 at 12:20pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २९

वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले, वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें, वो होंठ थे या सेब तराशे हुए, वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा, वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत, उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब, उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क, उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़, उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन, उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई, उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन, उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे, उसका लम्स था या किसी शिफागर…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:57pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २८

कहाँ चले जाते हैं लोग करीब आके. किधर मुड़ जाती है राह आँखों से ओझल होके. क्या होता है उनका जो अब अपनी वाबस्तगी में नहीं. धूप जो अभी अभी पूरे एअरपोर्ट पे बिखरी थी, कहाँ गुम हो गई. इक उदासी भरी धुन जो बज रही था, वो क्या कह के चुप हो गई.

 

लाउंज की खाली-खाली कुर्सियां, और कुछ कुर्सियों में सिमटे सिकुड़े लोग, कहाँ जा रहे हैं ये लोग, कौन इनका इंतज़ार करता होगा और किस जगह पे. हम इनसे फिर कभी मिलेंगे भी या नहीं और मिले भी तो कैसे जान पायेंगे. दिन यूँ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा है जैसे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:56pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २७

कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २३

ख़ुदाकी जलाई शम्मा तो कबसे रौशन है

कोई है तो खुद अपनी दानाई चिल्मन है

 

कुछ किताबें, कपड़े, एक तोशक, तकिया

और तेरी फुर्कतसे चरागाँ मेरा नशेमन है

 

न होता इश्क तो हुस्न की कद्र क्या थी

आशिकों को दीवाना कहना पागलपन है

 

क्यूँ भला पूछें हम बगलगीरों के मसाइल

अपना-अपना घर अपना-अपना आँगन है  

 

हुए खानाखराब इश्कमें फिरेहैं खानाबदोश

रहलेवें हैं हम जिस शह्रमें जैसा चलन है

 

मौत किस तरहा मुश्कबूसी…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 8:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २२

मैं पैदा ही हुआ हूँ दर्द  को जीने के लिए

जैसे लहरें बनींहैं जाँकश सफीनेके लिए

 

मुझको क्या गिजा चाहिए जीने के लिए

तुम्हारा गम काफी है पूरे महीने के लिए  

 

कुछ तो चाहिए दिलको गम दवा या दारु

इकअदद आब काफी नहींहै पीने के लिए 

 

क्यूँ बढ़ालीहैं हमने अपनी सब ज़रुरीयात

बढ़ीहुई तंख्वाह चाहिए हर महीने के लिए  

 

मैं भटकता हुआ दरिया हूँ समंदर है कहाँ

कोई ठहराव चाहिए तामीरेनगीने के लिए

 

अपनी…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:50am — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २६

बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:20am — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २५

तशवीशात के अजीमुश्शान महल में जैसे खो गया हूँ. हज़ार रास्ते, मगर कौन सही है, दीवारें जो दिख रहीं हैं वो आँखों का धोखा तो नहीं. दरीचों में समाया मंज़र शायद वहम हो. जगह जगह फिक्रों के फानूस टंगे हैं, अज़ीयतों के जौहर से दरोदीवार आरास्ता हैं. दूर कहीं आँगन में अंदेशों के आबशार से बह रहे हैं, बगीचे खौफ के दरख्तों से गुंजान और उलझनों के टिमटिमाते चरागों से शबिस्ताँ रौशन है. गलियारों में कशीदगी के कालीन बिछे हैं, कफेपा से जिनपे दिल की शोरीदगी के नक्श उभर आए हैं. बैठकखानों में मखफी सायों की मजलिस…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 21, 2012 at 8:00pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २४

रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 3:08pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २१

अब कहाँ आएँगे लौट के सबेरे कल के

रातमें तब्दील हो गए हैं उजाले ढल के

 

कोई खुशबू तेरे दामन की एहसासों में

कुछ लम्स से हथेली में तेरे आँचल के

 

मौत आई तो बेसाख्ता ये महसूस हुआ

कि ज़िंदगी आईहै वापिस चेह्रे बदल के

 

जाने वालातो सामनेसे रुख्सत हो गया

जाने क्या सुकूं मिलता है हाथ मल के

 

मैं कोई ख्वाब में हूँ या कोई गफलत है

आसमां में उड़ रहा हूँ, पंख हैं बादल के

 

बुझरही शमाने कराहते हुए मुझसे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 10:24am — No Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३८

पुणे से पत्नी को लिखा पत्र

 

प्यारी बिन्नी,

 

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

जहाँ के पेड पौधे, खेत खलिहान और

कुत्ते भी हमसे बातें किया करते थे

 

वो गांव क्या था पूरा परिवार था

हर आदमी इक दूसरे के प्रति

कितना जिम्मेवार था

सबकी खुशियाँ हमारी खुशियाँ थीं और

हमारे दुःख में हर कोई हिस्सेदार था

 

गांव के चौधरी यही तो कहा करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 1:00pm — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २०

पूरा हो या अधूरा अरमाँ निकल ही जाता है

करीब आ के दूर कारवाँ निकल ही जाता है

 

जो न बदलें हालात तो खुद को बदल डालो

जंगलोंसे निकलो आस्माँ निकल ही जाता है

 

रहेंगे कबतक मुन्हसिर गुंचे खिलही जाते हैं

कभीतो ज़िंदगीसे बागवाँ निकल ही जाता है

 

पत्थरोंसे भी मिट जाती हैं इबारतें समय पे

हो गहरा दिल का निशाँ निकल ही जाता है

 

मसीहा आते हैं इम्तेहा-ए-गारतपे हर दौर में

दौरेज़ुल्मियत से ये जहाँ निकल ही जाता…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:56pm — 2 Comments

Monthly Archives

2019

2018

2017

2016

2013

2012

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Apr 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Apr 29
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service