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All Blog Posts Tagged 'कविता' (987)

बंधन की डोरियां - डॉo विजय शंकर

कुछ डोरियां

कच्चे धागों की होती हैं ,

कुछ दृश्य होती हैं ,

कुछ अदृश्य होती हैं ,

कुछ , कुछ - कुछ

कसती , चुभती भी हैं ,

पर बांधे रहती हैं।

कुछ रेशम की डोरियां ,

कुछ साटन के फीते ,

रंगीले-चमकीले ,फिसलते ,

आकर्षित तो बहुत करते हैं ,

उदघाट्न के मौके जो देते हैं ,

पर काटे जाते हैं।

इस रेशम की डोरी

की लुभावनी दौड़ में ,

ज़रा सी चूक ,

बंधन की डोरियां

छूट गईं या टूट गईं ,

रेशम की डोरियां …

Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on January 4, 2018 at 9:30am — 10 Comments

जीवन कविता

 

जीवन-कविता

बिटिया बैठी पास में

खेल रही थी खेल

मैं शब्दों को जोड़-तोड़

करता मेल-अमेल |

उब के अपने खेल से

आ बैठी मेरी गोद

टूट गया यंत्र भाव

मन को मिला प्रमोद |

बिना विचारे ही पत्नी ने

दी मुझको आवाज़

मैं दौड़ा सिर पाँव रख

ना हो फिर से नाराज़ |

लौटा सोचता सोचता

क्या जोड़ू आगे बात

पाया बिटिया पन्ना फाड़

दिखा रही थी दांत…

Continue

Added by somesh kumar on December 12, 2017 at 10:30am — 5 Comments

दोहरा

दोहरा

पत्नी पर पराई-दृष्टी से

होकर खिन्न

डांट कर कहता

तू लोक लाज विहीन

“चल भीतर |”

_______________

पड़ोसिन को सामने पा

स्वागत में मुस्कुरा

गाता हूँ-तिनक धिन-धिन

आप सा कौन कमसिन !

खड़ा रहता हूँ-बाहर |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on December 4, 2017 at 6:07pm — 5 Comments

निशब्द संसार

तुम शब्द हो

और मैं अर्थ

तुम हो तो मैं हुं

शब्द बिन अर्थ बेकार

निशब्द संसार

 

तुम प्रीत हो

और मैं जोगन…

Continue

Added by जयति जैन "नूतन" on December 1, 2017 at 7:30pm — 3 Comments

चोर-मन

चोर-मन

कमर खुजाती उस स्त्री पर

पंजे मारकर बैठ गई आँख

मदन-मन खुजाने लगा पांख |

अभी उड़ान भरी ही थी कि

पीठ पर पत्नी ने आके ठोका

रसगुल्लामुँह हो गया चोखा |

जवाब में रख दीं बातें इमरती

छत की धूप और सुहानी सरदी

सचेती स्त्री संभल के चल दी |

बहलाने लगा मूंगफली के बहाने

चोर-मन ढूंढता बचने के ठिकाने

भर चिकोटी पत्नी लगी मुस्कुराने |

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by somesh kumar on November 28, 2017 at 9:36am — 4 Comments

पढ़े-लिखे हैं आप तो - डॉo विजय शंकर

पढ़े-लिखे हैं आप तो आपको

पढ़े-लिखे दिखना चाहिए।

मोटर कार हो सब ,फिर भी अक्ल से ,

आपको , बिलकुल पैदल दिखना चाहिए।

कपड़े अजीब, चाल अजीब , हाव-भाव अजीब ,

बातचीत में अजीब होना और दिखना चाहिये।

रचनात्मक होना तो बहुत कठिन होता है ,

विध्वंस और क्रान्ति की बात करनी आनी चाहिए।

सबसे बड़ी बात आपको

घर फूंक तमाशा देखना आना चाहिए।

अपनी बुनियाद को निरंतर हिलाना और

मौक़ा लगते ही उखाड़ देना चाहिए।

आपको वो तो लपक लेंगे ही

जो उकसा रहे हैं… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on November 13, 2017 at 10:57am — 15 Comments

लोकतंत्र - डॉo विजय शंकर

( 1 )
लोकतंत्र ?
जो लोक ले
उसी का तंत्र।

( 2 )
लोक तंत्र ,
इहलोक तक
परलोक का
विचार नहीं।

( 3 )
लोकतंत्र ,
लोक का तंत्र
या लोक से
ऊपर तंत्र।

( 4 )
शेर अकेला हो तो उसकी
दहाड़ के सामने भी आवाज़
उठा देते हैं लोग।
झुण्ड में भेड़-बकरिया हों तो
उनकीं हाँ में हाँ मिलाते हैं वही लोग।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on November 7, 2017 at 8:30am — 11 Comments

हवा में - डॉo विजय शंकर

हमने एक मकान बनाया ,
सबसे पहले
छत को बनाया ,
चढ़ कर उस पर
उछले-कूदे ,
खूब चिल्लाये ,
नाचे- गाये ,
देख आसमान ,
खूब इतराये ,
लगा , लपक कर
छू लेंगें ,
मुठ्ठी में नभ कर लेंगें ,
और जब नीचे झाँका , देखा ,
अचानक तब घबराये ,
हा , बुनियाद ,
कहाँ छोड़ आये।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 24, 2017 at 10:29am — 21 Comments

मृत्यु : पूर्व और पश्चात्

मृत्यु...

जीवन का वह सत्य

जो सदियों से अटल है

शिला से कहीं अधिक।

मृत्यु पूर्व...

मनुष्य बद होता है

बदनाम होता है

बुरी लगती हैं उसकी बातें

बुरा उसका व्यवहार होता है।

मृत्यु पूर्व...

जीवन होता है

शायद जीवन

नारकीय

यातनीय

उलाहनीय

अवहेलनीय।

मृत्यु पूर्व...

मनुष्य, मनुष्य नहीं होता

हैवान होता है

हैवान, जो हैवानियत की सारी हदें

पार कर देना चाहता…

Continue

Added by Mahendra Kumar on October 22, 2017 at 9:33am — 18 Comments

उपलब्धियाँ - डॉo विजय शंकर

उप-शीर्षक -आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस से आर्टिफिशल हँसी तक।

प्रकृति ,
अनजान ,
पाषाण ,
ज्ञान
विज्ञान ,
गूगल ,
आट्रिफिश्यल विवेक ,
आर्टिफिशियल हँसी ,
शुभ प्रभात।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2017 at 7:34am — 12 Comments

सत्यमेव् जयते - डॉo विजय शंकर

सत्य के प्रति उनका समर्पण
झुठलाया नहीं जा सकता ,
सफलता उन्होंने चाहे कैसे ,
कितने ही झूठों से पायी हो ,
श्रेय सदैव सत्य को ही दिया।
अपनी हर जीत को सदैव
सत्य की जीत ही बताया।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2017 at 6:48pm — 10 Comments

कविता ---- एक दूजे का साथ ------

इतने साल बीत गये 

ना वो बदली जरा ना मैं !

आज भी उसे नहीं पसंद

मेरा किसी और से बात करना !

मुझे भी आजतक नहीं भाया

उसका किसी को देख मुस्काना !

उसे अच्छा नहीं लगता जब

मेरा ध्यान उससे हट जाना !

मुझे पसंद नहीं आता उसका

मुझे छोड़ टी.वी. तक देखना !

वो कहती है सुनो प्रिय 

मैं सामने हुं तो मुझे ही देखो !

मुझे भाता है उसे चिडाना

दूसरों को देख देख मुस्काना !

उसे पसंद तक नहीं मेरा चश्मा

मेरी आंखों पर हमेशा रहता…

Continue

Added by जयति जैन "नूतन" on October 5, 2017 at 4:00pm — 5 Comments

पाओगे वही जो चाहोगे -- डॉo विजय शंकर

सच बोलू ,
सुन पाओगे ?
सत्य-मार्ग है ,
चल पाओगे ?
विजय-पथ है ,
लड़ पाओगे ?
प्रेम है ,
ले पाओगे ?
मित्रता है ,
निभा पाओगे ?
थोड़ा मीठा है ,
खा लोगे ?
नमक तेज है ,
खा लोगे ?
मुद्दा है ,
सुलझाओगे ?
या भुनाओगे ?
हर समस्या का
हल है ,
हल चाहोगे ?
बात ये है कि
पाओगे वही
जो चाहोगे।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on September 30, 2017 at 10:45am — 10 Comments

पाओगे वही जो चाहोगे -- डॉo विजय शंकर

सच बोलू ,
सुन पाओगे ?
सत्य-मार्ग है ,
चल पाओगे ?
विजय-पथ है ,
लड़ पाओगे ?
प्रेम है ,
ले पाओगे ?
मित्रता है ,
निभा पाओगे ?
थोड़ा मीठा है ,
खा लोगे ?
नमक तेज है ,
खा लोगे ?
मुद्दा है ,
सुलझाओगे ?
या भुनाओगे ?
हर समस्या का
हल है ,
हल चाहोगे ?
बात ये है कि
पाओगे वही
जो चाहोगे।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on September 30, 2017 at 10:44am — No Comments

आपका हक़ - डॉo विजय शंकर

क्या कहा ,
आपका हक़ आपको
दिया नहीं गया ?
क्योंकि हक़ आपका आपसे
हाथ जोड़ के माँगा नहीं गया।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2017 at 8:04pm — 16 Comments

नई सदी के मानव - (कविता) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

इक्कीसवीं सदी के मानव तुम कहां जा रहे हो?
दानव बहुरूपिये ही यूं बने जा रहे हो!
पठन-पाठन, अध्ययन ऐसा क्यों किये जा रहे हो?
बस कठपुतली ही यूं बने जा रहे हो!
साजो-सामान, भोग-विलास में क्यों डूबे जा रहे हो?
चोलों में, बोलों से भोलों को ठगते जा रहे हो!
पतन की गर्त में गोते लगा कर क्यों खोते जा रहे हो?
स्वर्ण से, रजत, ताम्र, कांस्य, कलयुग से नीचे कहीं जा रहे हो!

(मौलिक व अप्रकाशित)
(२७-०८-२०१७)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 27, 2017 at 8:00am — 11 Comments

फिर भी :कविता :हरि प्रकाश दुबे

कितनी  सहज हो तुम

कोई रिश्ता नही

मेरा ओर तुम्हारा

फिर भी

अनगिनत पढ़ी जा रही हो,मुझे

बिन कुछ कहे

बस मुस्कुरा कर

अनवरत सुनी जा रही हो ,मुझे

बस यही अहसास काफी है

संपूर्ण होने का,मेरे लिए !!

"मौलिक व अप्रकाशित"

© हरि प्रकाश दुबे

Added by Hari Prakash Dubey on August 2, 2017 at 11:30pm — 2 Comments

दिल्ली में सूरज: कविता :हरि प्रकाश दुबे

दिल्ली में भी

सूरज उगता है

शहादरा में

काले धुएं की, ओट से

धीरे –धीरे संघर्ष करते

ठीक उसी तरह जैसे

माँ के गर्भ से कोई

बच्चा निकलता है

बड़ा होता है

बसों और मेट्रो में

लटक –लटक कर

धक्के खा-खा कर

जीवन जीना सीखता है

पसीने को पीता जाता है

पर थक हार कर भी

जनकपुरी की तरफ बढ़ता जाता है

रक्त से लाल होकर

वहीँ कहीं किसी स्टाप पर

चुपके से उतर जाता है

पर, सूरज का जीवन…

Continue

Added by Hari Prakash Dubey on July 24, 2017 at 11:10pm — 1 Comment

उम्र

उसने मिलते ही कहा..

उस उम्र से ये उम्र की उम्र हो गई

जाने कहाँ कब कैसे वो उम्र खो गई

मीठे लम्हों से जो निखरी थी

खट्टे लफ्ज़ो से जो बिख़री थी

जहाँ मैं तुं नहीं सिर्फ हम थे

वहाँ हम नहीं सँभल पायें 

चलो फिर कही ढुंढते है

जिस…

Continue

Added by संजय गुंदलावकर on July 7, 2017 at 10:30am — 5 Comments

गरीबी - उपचार -- डॉo विजय शंकर

किसी ने गरीब को
एक जोड़ी चप्पल दिला दी
किसी ने भूखे को एक वक़्त
शानदार रेस्त्रां में रोटी खिला दी ,
रेस्त्रां के मालिक ने
खाने के पैसे नहीं लिए
कहा , मानवता के पैसे नहीं लगते ,
कुछ इस तरह एक छोटे गरीब ने
एक बड़े गरीब की गरीबी मिटा दी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on July 3, 2017 at 10:12am — 12 Comments

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