ये जो चलते फिरते मशीनी
पुतले हो गए हैं हम ।
अंधेरे जलसों के धुएँ
में खो गए हैं हम ।
किसी के अश्क़ को पानी
सा देखने लगे हैं,
किसी की सिसकियों को
अभिनय कहने लगे है।
ये जो चलते फिरते मशीनी
पुतले हो गए हैं हम ,
संवेदनाओं से मीलों
दूर ,हो गए हैं हम ।
.
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 13, 2020 at 8:00pm —
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कोई सूली पर चढ़े
और मसीह बने
कोई वन को गए
और राम बने
कोई सीता पर मरे
और रावण बने
अपमानित हुई नारी
और भीष्म बने
राहुल को त्यागे
और गौतम बने
नर्क भी यहीं है
स्वर्ग भी यहीं है
इतिहास मरने
से पहले है बनता
धरती पर ही
अपने करमों से
कुछ राम बने
और रावण बने
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on October 5, 2016 at 1:11am —
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आजकल देखने मे
कौन बुरा लगता है,
रोता है वो फिर भी,
हंसता हुआ लगता है।
दिल में है दर्द
पलकें हैं भीगी हुयी,
कोई हमसे यूँ ही
रूठा हुआ लगता है।
डूबा हूँ पानी में
प्यासा हूँ बैठा हुआ
समन्दर भी मुझे अब
सूखा हुआ लगता है।
कौन यहाँ बिखरा गया
फूल और पतियों को,
पेड़ हर तरफ यहाँ ,
टूटा हुआ लगता है।
सब कुछ तो है घर की
दीवारों में सजा हुआ
आिशयाँ मेरा फिर भी
बिखरा हुआ लगता है।
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on September 30, 2016 at 12:05am —
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आज ना जाने
क्यों सहमी हुईं
है दीवारें
गरम
चाय का प्याला
लिया
ठंडी हवा का
लुत्फ़ लिया
देखा चाँद
की ओर
सब कुछ
स्याह सा लगा
काले बादल
इधर उधर
बिखरने को
मचल रहे थे
तेज़ हवाएँ
बेलगाम
चलने लगी
काँच की
खिड़की भी
छटपटाने
तड़पने लगी
तेज़ी से बिजली
चटकी
चादर में
मैं सिमट गयी
बुझी हुई
आँखों से
फिर देखा
दीवार की
तरफ़
दरारें बे हिसाब
थी…
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Added by S.S Dipu on September 28, 2016 at 9:45pm —
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तुम चुरा
ना लो
मेरे हिस्से की
हँसी
इस कारण
मुस्कुराना छोड़
दिया है
दर्द ना आँखों से
छलक पाएँ
पालकों
से आँखों को
सिया है
मन्नतें माँगी
नही फिर भी
बिन माँगे झोली
भरी देखी
कसाई बना है
वक़्त सभी का
आज़ादी पर
रोक
लगी देखी
बेपरवाह सब
घूम रहे
लगता नहीं
ये घर लौटेंगे
शहर में
घूम रहे भेड़िए
सचाई पर
बेड़ियाँ
लगी देखी
अपनापन पनपता
बाँटे किससे…
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Added by S.S Dipu on September 28, 2016 at 10:05am —
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जॉन एफ केनेडी
ने कहा
कि यह मत पूछो
कि देश ने तुम्हारे
लिए क्या किया,
यह पूछो कि
तुमने देश के
लिए क्या किया?
इन शब्दों ने मेरे
जीने का अन्दाज़
ही बदल दिया है
मैं शिक्षक हूँ
क्या मैंने छात्रों
का मनोबल
बढ़ा लिया है
पूछूँ मैं
ख़ुद से अब
क्या
तनख़्वाह लेके
सही किया है ?
मैं बेचता हूँ
दूध पानी मिला
मिला के क्या
गाय का नाम
मैंने ही
मिटा रखा है ?
मैने बनके…
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Added by S.S Dipu on September 26, 2016 at 11:46pm —
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आज बलि चढ़
रही है मानवता
हर तरफ़
शहीद हुए जा
रही है सचाई
गुम हो गये
है प्यार के फूल
डरा के छुप
रही है परछायी
कौन है ज़िम्मेदार
दरंदगी के लहु का
हर ओर क्यूँ
हो रही लड़ाई
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on September 25, 2016 at 12:24am —
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हर क़दम अपना
सलीक़े से उठा
रहा में फूल हैं
कम काँटें
हैं ज़्यादा
कुछ सोच के
मिला है तेरे
शहर का पता
राम हैं कम
यहाँ रावण
है ज़्यादा
किसी से
रही नही रंजिश
रखने की ताक़त
लकीरें हैं कम
ठोकर
हैं ज़्यादा
हंस के गुज़ार
लीजिए दो पल
जीने के
यहाँ उजाले
हैं कम बादल
हैं ज़्यादा
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on September 24, 2016 at 1:28am —
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ये ज़िंदगी
कितनी
अजीब होती
जा रही है
कैसे
हाथों से
निकलती
जा रही है
माथे पर सिंदूर
हुआ करता था
औरत का गहना
अब साड़ी भी
स्कर्ट होती
जा रही है
शादी को होते
नहीं महीने दो
तलाक़ की
क़तार बड़ी
जा रही है
लड़के नही
मिलते होश
में अब तो
ये शराब
बोहत सस्ती हुई
जा रही है
बच्चे के सोने
का इंतज़ार
है माँ को
पार्टी की
रौनक़ बूझतीं
जा रही है
संस्कार…
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Added by S.S Dipu on September 23, 2016 at 12:27am —
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ख़ामोशी
की चीख़
तलवार की
धार से
भी तेज़
होती है
कलेजा फट
जाता है जब
ये ख़ामोशी
रोती है
सन्नाटे की
तलाश में
सर पटक
कर सोती है
वहाँ भी
नींद में
तिसकार फटकार
की आवाज़ें
होती है
कहाँ जाए
ख़ामोशी
सुकून की
तलाश में
ये दुनिया
से दूर
अकेले ही
रोती है
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on September 20, 2016 at 10:55pm —
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बिंदू
मिटकर ही
बनता है
सिंधु ।
पानी की
टपकती बूँद
समंदर को
छू लेतीं है
मिटाकर अपना
आप
विशालता को
छू लेती है
समंदर पाने
के लिए
बूँद बनना
पड़ता है
कुछ हासिल
करने के लिए
खोना भी पड़ता है
कभी बिंदु भी
बनना पड़ता है
कभी सिंधु भी
बनाना पड़ता है
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on September 20, 2016 at 12:08am —
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बरसों बात मिली है सहेली मेरी
एक चाई का
प्याला और खट्टी
मीठी यादें
समेट कर
लायी है
सहेली मेरी
चल चले
मेले में
कुछ ख़ुशियाँ
बटोरने
कुछ कची
कचौरी खाने
कुछ इमली
तोड़ने
अठन्नी कम
पड़ गयी
थी घसीटे
की ठेली में
कान मरोड़…
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Added by S.S Dipu on September 19, 2016 at 1:14pm —
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बेटा बेटा करते
करते आज
तीसरी बेटी हुई है
उम्मीदों की बली
आँचल फिर चढ़ी है
दुर्गा माँ की डोली
धूम धाम से
सजी है
और बेटी के
हँसने पर
बेड़ियाँ
लगी है
भाई किसी
लड़की को
छेड़ कर
आया है
बहन ने
फिर भाई को
पुलिस से
छुपाया है
जिस कोख से
तू जन्मा है
उसको शर्मसार
ना कर
अस्तिवा ही
औरत है तेरा
मर्द है तो
हाहा कार
ना कर
जिस रोज़
औरत अपनी
ज़िद पर
अड़…
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Added by S.S Dipu on September 18, 2016 at 11:47am —
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चूल्हे पर तपता
पतीला
आग की बेचैन
लपटें
माँ की कुछ बेबस
साँसे
बच्चे की खुली
किताबें
मन में आस की
तरंगे
पतिले के उबलते
पानी को
इंतज़ार है चावल
के कुछ बिन छने
दानो का
लगता नही की
शराबी
पिताजी
घर लौटेंगे
बिन झगड़ा कर
माँ से
बिन चादर
ही सो लेंगे
लगता नहीं
की दादी बेटे
की तरफ़दारी
से बच पाएँगी
दारू को भी
माँ की
वजह बतायेंगी
चूल्हा फड़फड़ाके
ख़ुद…
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Added by S.S Dipu on September 16, 2016 at 12:30am —
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बुढ़ापे की पुकार
सहम जाता हूँ मैं
रात के सन्नाटे से
ना छोड़ना मुझे बेटा
कभी किसी बहाने से
मैं तब भी था भूखा जब
तेरी पैंट फट गयी थी
और तू ले गया था
पैसे मेरे सरहाने से
तब तू रोया करता था
हँसी हमें सूझती थी
आज हँसी तुझे भी
आती हैं पर
मेरे रो जाने से
मालूम है मुझे भी
कंधों पर बोझ तेरे
ज़रूरत से ज़्यादा है
पर मेरे कंधों के भोज
से तेरा बोझ आधा है
तुम तीनों बच्चे और
तेरे दादा दादी साथ थे
घर…
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Added by S.S Dipu on September 14, 2016 at 4:46am —
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मैं डरती झिझकती
सहमती नहीं हूँ
बिखरती भटकती
सिहरती नहीं हूँ
हक़ीक़त से रूबरू
होती हूँ रोज़
चमकते परो से
बहकती नहीं हूँ
अपने आसमां
की मल्लिका हूँ मैं
सोने के महलों मे
छिपती नही हूँ
उठती हूँ गिरती हूँ
गिरके सम्भलती हूँ
धधकती हूँ लेकिन
पिधलती नही हूँ
चट्टान सी मैं
खड़ी हूँ शिखर पर
अन्धड़ हो जितना
बिखरती नही हूँ
मुझसे हो जन्मे
डलते मुझी मे
साँसों की लय सी
मैं थमती नही हूँ
आज़मा लो…
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Added by S.S Dipu on August 26, 2015 at 9:58am —
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कहाँ से चले थे
वो कहाँ से निकले,
जहाँ लगाए थे पौधे
वो कहाँ निकले।
वेा रात का सन्नाटा
बादल का कहर,
जो घर बह गये थे
वो कहाँ निकले।
दुष्मन के घर आज है
बहुत बड़ा जलसा,
दोस्त मेरे अपने
आज कहाँ निकले।
जुलाहे यूँ कर धागे
पर गिरह न पड़ पाये
गाँठ एक बार लगे तो
फिर कहाँ निकले
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 17, 2015 at 1:30am —
8 Comments
मालामाल धन् सॆ नही
चरित्र सॆ हॊता है
सन्त हमॆशा अपने
क़ायदे मॆ रहता है
जिस कि अज़ान पर
हक़ हर जाती का हो
मस्जिद मॆ समझो वहीं
सच्चा मुसलमान रहता है
क्या इत्तना भी हमे
तजुरबा नही रहा
कि बिलो मे
सदा साँप रहता है
मन्दिर् बहुत हैं गुरुद्वारे
से आगे थोड़ा जाकर
याद रखना खुदा हमारे
दिलों मॆ रॆहता है
खुद कॊ खुदा बताकर
जो हिम्मत नही हारे
सच कब तक झूठ के
फंदों मे रहता है।
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 11, 2015 at 5:58pm —
3 Comments
फँसाने आँखो के
सूखे पड़े हए है
वक़्त के आगे
बेबस खड़े हुए है
यारों तुम भी हँस लो वरना
उन जैसे हो जाओगे
गाते हुए चेहरे जो
ख़ामोश पड़े हुए है
देर रात की सड़कों पर
धूमें तो मालूम हुआ
कुछ लोग पत्थरों पर
बिन चादर सोये हुए है
मालूम है हमें भी
हक़ीक़त उन चेहरों की
मुस्कुराकर हाथ मिलाने का
जो बोझ लिए हुए है
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 10, 2015 at 8:47pm —
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अपनो के चहरे न
रूला पाये अपनो को
ग़ैरों के झूठे बोल
तुम्हें शहद से लगे
हमने सच का तुम्हें
आईना जो थमाया
तुम तो बग़ावत के
पलटवार कर चले
चलिये झूठ तो मौत के
साये मे जी रहा है
गर फिर जन्म लेगा
तो इस तरह भी नहीं
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 5, 2015 at 7:04pm —
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