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बसंत कुमार शर्मा's Blog – August 2017 Archive (4)

एक ग़ज़ल- दिल को लगते बहुत भले हो

मापनी २२ २२ २२ २२

 

सुबह के’ मंजर से उजले हो,

दिल को लगते बहुत भले हो.

 

एक नजर देखा है जब से,

सपने जैसा दिल में’ पले हो.

 

सारी दुनिया जान गयी है,

तुम तो नहले पर दहले हो…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 31, 2017 at 7:08pm — 17 Comments

एक नवगीत - सूरज सन्यास लिए फिरता

अँधियारे गद्दी पर बैठा,

सूरज सन्यास लिए फिरता

 

नैतिकता सच्चाई हमने,

टाँगी कोने में खूँटी पर.

लगा रहे हैं आग घरों में,

जाति धर्म के प्रेत घूमकर.

सत्ता की गलियों में जाकर,

खेल रही खो-खो अस्थिरता.

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 26, 2017 at 7:16pm — 17 Comments

संवाद -एक ग़ज़ल

मापनी 2122 2122 2122 212

 

कैद  हैं  धनहीन तो, जो सेठ है, आजाद  है

झुग्गियों की लाश  पर  बनता यहाँ प्रासाद है

 

थाम कर दिल मौन कोयल डाल पर बैठी हुई,

तीर लेकर हर  जगह बैठा हुआ सय्याद है

 

भाईचारा प्रेम  सब बातें किताबी हो  गईं,

हो रही  बेघर मनुजता,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 18, 2017 at 9:01am — 10 Comments

कहने को शर्मीली आँखें

मापनी २२ २२ २२ २२

 

झील सी गहरी नीली आँखें

हैं कितनी सकुचीली आँखें

 

खो देता हूँ  सारी सुध बुध

उसकी देख नशीली आँखें

 

यादों  के सावन  में भीगीं

हो गईं कितनी गीली आँखें

 

मोम बना दें पत्थर को…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 7, 2017 at 4:30pm — 32 Comments

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