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Sushil Sarna's Blog – July 2016 Archive (10)

यथार्थ के रंग ..

1.

मैं 

मेरा

हमारा

बीत गया

जीवन सारा

साँझ ने पुकारा

लपटों ने संवारा

2.

मैं

तुम

अधूरे

हैं अगर

देह देह की

प्रीत भाल पर

स्नेह चंदन नहीं

3.

हे

राम

तुम्हारा

करवद्ध

अभिनन्दन

प्रभु कृपा करो

हरो हर क्रन्दन

4.

क्या

जीता

क्या हारा

मैं निर्बल

मैं बेसहारा

प्रभु शरण लो

मैं अंश…

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Added by Sushil Sarna on July 30, 2016 at 9:00pm — 5 Comments

यादें....

यादें....

यादें भी

कितनी बेदर्द

हुआ करती हैं

दर्द देने वाले से ही

मिलने की दुआ करती हैं

अश्कों की झड़ी में

हिज्र की वजह

धुंधली हो जाती है

चाहतों के फर्श पर

आडंबर की काई

बिछ जाती है

दर्दीले सावन बरसते रहते हैं

फिसलन भरी काई पर

अश्क भी फिसल जाते हैं

अब सहर भी कुछ नहीं कहती

अब दामन में नमी नहीं रहती

ज़माने के साथ

प्यार के मायने भी

बदल गए हैं

अब प्यार के मायने

नाईट क्लब के अंधेरों में…

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Added by Sushil Sarna on July 29, 2016 at 2:53pm — 4 Comments

दिल के निहाँ ख़ाने में ....

दिल के निहाँ ख़ाने में ....

लगता है शायद

उसके घर की कोई खिड़की

खुली रह गयी

आज बादे सबा अपने साथ

एक नमी का अहसास लेकर आयी है

इसमें शब् का मिलन और

सहर की जुदाई है

इक तड़प है, इक तन्हाई है

ऐ खुदा

तूने मुहब्बत भी क्या शै बनाई है

मिलते हैं तो

जहां की खबर नहीं रहती

और होते हैं ज़ुदा

तो खुद की खबर नहीं रहती

छुपाते हैं सबसे

पर कुछ छुप नहीं पाता

लाख कोशिशों के बावज़ूद

आँख में एक कतरा रुक…

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Added by Sushil Sarna on July 28, 2016 at 2:00pm — 15 Comments

अधूरे सपने धोती रहीं.....

अधूरे सपने धोती रहीं .....

मैं तो जागी सारी रात

तूने मानी न मेरी बात

कैसी दी है ये सौगात

कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं

अधूरे सपने धोती रहीं

झूमा सावन में ये मन

हिया में प्यासी रही अग्न

जलता विरह में मधुवन

कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं

अधूरे सपने धोती रहीं.....



नैना कर बैठे इकरार

कैसे अधर करें इंकार

बैरी कर बैठा तकरार

कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं

अधूरे सपने धोती रहीं



मन के उड़ते रहे विहग…

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Added by Sushil Sarna on July 26, 2016 at 9:30pm — 5 Comments

उनकी शाम दे दो ....

उनकी शाम दे दो ....

आज

सहर में अजीब उजास है

हर शजर पर

समर के मेले हैं

सबा में अजीब सी

मदहोशी है

साँझ के कानों में

तारीक की सरगोशी है

शायद किसी को

मेरी तन्हाई पे

तरस आया है

किसके हैं लम्स

कौन मेरे करीब आया है

मुद्दतों की नमी ने

आज सब्र पाया है

लम्हे रुके से लगते हैं

अब्र झुके झुके लगते हैं

देखो ! तरीक के कन्धों पे

शाम झुकी है

सहर भी कुछ रुकी रुकी है

पसरती सम्तों में

पसरती…

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Added by Sushil Sarna on July 25, 2016 at 4:10pm — 4 Comments

नशीली आग़ोश .....

नशीली आग़ोश ....

अरसा हुआ तुमसे बिछुड़े हुए 

ख़बर ही नहीं

हम किस अंधी डगर पर

चल पड़े

हमारी गुमराही पर तो

कायनात भी खफ़ा लगती है

बाद बिछुड़ने के

मुददतों हम

आईने से नहीं मिले

ख़ुद अपनी शक्ल से भी हम

नाराज़ लगते हैं



तुम्हें क्या खोया

कि अँधेरे हम पर

महरबान हो गए

यादों के अब्र

चश्मे-साहिल के

कद्रदान गए

दरमानदा रहरो की मानिंद

हमारी हस्ती हो गयी

इश्क-ए-जस्त की फ़रियाद

करें…

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Added by Sushil Sarna on July 19, 2016 at 3:44pm — 14 Comments

नारी मन .....

नारी मन .....

एक लंबे

अंतराल के पश्चात

तुम्हारा इस घर मेंं

पदार्पण हुअा है

जरा ठहरो !

मुझे नयन भर के तुम्हें

देख लेने दो



देखूं ! क्या अाज भी

तुम्हारे भुजबंध

मेरी कमी महसूस करते हैं ?

क्या अाज भी

तुम्हारी तृषा

मे्रे सानिध्य के लिए

अातुर है ?

जरा रुको

मुझे शयन कक्ष की दीवारों से

उन एकांत पलों के

जाले उतार लेने दो

जहां अपनी नींदों को

दूर सुलाकर …

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Added by Sushil Sarna on July 12, 2016 at 4:30pm — 6 Comments

दिलों मेंं लिपटे साये थे ....

दिलों मेंं लिपटे साये थे ....

दोनों उरों मेंं

हुई थी हलचल

जब दृग से दृग

टकराये थे

दृग स्पर्श से मौन हिया के

स्वप्न सभी मुस्काये थे

अधरों पर था लाज़ पहरा

लब न कुछ कह पाए थे

अवगुण्ठन मेंं वो अलकों के

कुछ सकुचे शरमाये थे

झुकी पलक के देख इशारे

हम मन मेंं मुस्काये थे

मधु पलों को सिंचित करने

स्नेह घन घिर अाये थे

हुअा सामना जब हमसे तो

वो सिमटे घबराये थे

हौले हौले कैद हुए हम

इक दूजे की बाहों मेंं…

Continue

Added by Sushil Sarna on July 6, 2016 at 10:24pm — 2 Comments

मुझे पूर्ण कर जाएगा.....

मुझे पूर्ण कर जाएगा.....

न जाने कितनी बार

मैं स्वयं को

दर्पण मेंं निहारती हूँ

बार बार

इस अास पर

खुद को संवारती हूँ

कि शायद

अाज कोई मुझे

अपना कह के पुकरेगा !

मेरी इस सोच से

मेरा विश्वास

डगमगाता क्यूँ है ?

क्या मैं दैहिक सोन्दर्य से

अपूर्ण हूँ ?

क्या मेरा वर्ण बोध

मे्रे भाव बोध के अागे बौना है ?

फिर स्वयं के प्रश्न का उत्तर

अपने प्रतिबिंब से पूछ लेती हूँ …

Continue

Added by Sushil Sarna on July 4, 2016 at 9:30pm — 8 Comments

सात जन्म दे जाए ...

सात जन्म दे जाए ...

मेघों का जल

कौन पी गया

कौन नीर बहाये

क्यूँ ऋतु बसंत में आखिर

पुष्प बगिया के मुरझाये

प्रेम भवन की नयन देहरी पर

क्यूँ अश्रु ठहर न पाए

विरह काल का निर्मम क्षण क्यूँ

धड़कन से बतियाये

वायु वेग से वातायन के

पट रह रह शोर मचाये

छलिया छवि उस बैरी की

घन के घूंघट से मुस्काये

वो छुअन एकान्त पलों की

देह भूल न पाये

तृषातुर अधरों से विरह की

तपिश सही न जाए

नयन घटों की व्याकुल तृप्ति

दूर खड़ी…

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Added by Sushil Sarna on July 2, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

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