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Vijay nikore's Blog – July 2019 Archive (5)

उलझा-सा सवाल

जाड़े की सुबह का ठिठुरता कोहरा

या हो ग्रीश्म की तपती धूप की तड़पन

अलसाए खड़े पेड़ की परछाईं ले अंगड़ाई

या आए पुरवाई हवा लिए वसन्ती बयार

उमड़-उमड़ आता है नभ में नम घटा-सा

तुम्झारी झरती आँखों में मेरे प्रति प्रतिपल

धड़कन में बसा लहराता वह पागल प्यार

इस पर भी, प्रिय, आता है खयाल

फूल कितने ही विकसित हों आँगन में

पर हो आँगन अगर बित्ता-भर उदास

छू ले सदूर शहनाई की वेदना का विस्तार

तो…

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Added by vijay nikore on July 29, 2019 at 2:49am — 4 Comments

प्रश्न-गुंथन

उर-विदारक उलझन

बर्फ़ीला एहसास

गूँजता-काँपता

एक सवाल

तुम्हा्रा स्नेह भरा संवेदित हृदय 

सुनता तो हूँ उसमें नित्य  नि:सन्देह

संगीत-सी तरंगित अपनी-सी धड़कन

फिर क्यूँ  तुम्हारे आने के बाद

मन के तंग घेरों में लगातार

सिर उठाए ठहरा रहता है हवा में

आदतन एक ख़याल 

एक अंगारी सवाल --

शीशे के गिलास का

हाथ से छूट जाना

तुम्हारे लिए

सामान्य तो नहीं है न ?

       …

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Added by vijay nikore on July 22, 2019 at 7:08am — 4 Comments

एक और खंडहर

स्मृतियाँ आजकल

आए-गए अचानक

कांच के टुकड़ों-सी

बिखरी

चुभती

छोटी-से-छोटी घटना भी

हिलोर देती है हृदय-तल को

हँसी डूब जाती है

नई सृष्टि ...

नए संबंध आते हैं

पर अब दिन का प्रकाश

सहा नहीं जाता

सूर्योदय से पहले ही जैसे

हम बुला लेते हैं शाम

मंडराते रह जाते हैं पतंगों की तरह

प्यार के कुछ शब्द

धुंधले वातावरण में भीतर

नए प्यार के आकार की रेखाएँ

स्पष्ट नहीं…

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Added by vijay nikore on July 21, 2019 at 3:00pm — 2 Comments

गाड़ी स्टेशन छोड़ रही है

कण-कण, क्षण-क्षण

मिटती घुटती शाम से जुड़ती

स्वयँ को सांझ से पहले समेट रही

विलुप्त होती अवशेष रोशनी

प्रस्थान करते इंजिन के धुएँ-सी ...

दिन की साँस है अब जा रही

 

मृत्यु, अब तू अपना मुखौटा उतार दे

 

हमारे बीच के वह कितने वर्ष

जैसे बीते ही नहीं

कैसी असाधारणता है यह

कैसी है यह अंतिम विदा

मैं तुम्हें याद नहीं कर रहा

तू कहती थी न

“ याद तो तब करते हैं

जब भूले हों किसी को…

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Added by vijay nikore on July 17, 2019 at 4:56pm — 4 Comments

आज फिर ...

आज फिर ... क्या हुआ

थरथरा रहा

दुखात्मक भावों का

तकलीफ़ भरा, गंभीर

भयानक चेहरा

आज फिर

दुख के आरोह-अवरोह की

अंधेरी खोह से

गहरी शिकायतें लिए

गहराया आसमान

आज फिर 

ढलते सूरज ने संवलाई लाली में रंगी

कुछ खोती कुछ ढूँढ्ती

एक और मटमैली

उलझी-सी शाम

आज फिर

सिमटी हुई कुछ डरी-डरी

उदास लटकती शाम

डूबने को है ...

डूबने दो 

मन में…

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Added by vijay nikore on July 14, 2019 at 2:27pm — 18 Comments

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