For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी's Blog – July 2012 Archive (15)

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २९

वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले, वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें, वो होंठ थे या सेब तराशे हुए, वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा, वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत, उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब, उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क, उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़, उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन, उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई, उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन, उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे, उसका लम्स था या किसी शिफागर…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:57pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २८

कहाँ चले जाते हैं लोग करीब आके. किधर मुड़ जाती है राह आँखों से ओझल होके. क्या होता है उनका जो अब अपनी वाबस्तगी में नहीं. धूप जो अभी अभी पूरे एअरपोर्ट पे बिखरी थी, कहाँ गुम हो गई. इक उदासी भरी धुन जो बज रही था, वो क्या कह के चुप हो गई.

 

लाउंज की खाली-खाली कुर्सियां, और कुछ कुर्सियों में सिमटे सिकुड़े लोग, कहाँ जा रहे हैं ये लोग, कौन इनका इंतज़ार करता होगा और किस जगह पे. हम इनसे फिर कभी मिलेंगे भी या नहीं और मिले भी तो कैसे जान पायेंगे. दिन यूँ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा है जैसे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:56pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २७

कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २३

ख़ुदाकी जलाई शम्मा तो कबसे रौशन है

कोई है तो खुद अपनी दानाई चिल्मन है

 

कुछ किताबें, कपड़े, एक तोशक, तकिया

और तेरी फुर्कतसे चरागाँ मेरा नशेमन है

 

न होता इश्क तो हुस्न की कद्र क्या थी

आशिकों को दीवाना कहना पागलपन है

 

क्यूँ भला पूछें हम बगलगीरों के मसाइल

अपना-अपना घर अपना-अपना आँगन है  

 

हुए खानाखराब इश्कमें फिरेहैं खानाबदोश

रहलेवें हैं हम जिस शह्रमें जैसा चलन है

 

मौत किस तरहा मुश्कबूसी…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 8:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २२

मैं पैदा ही हुआ हूँ दर्द  को जीने के लिए

जैसे लहरें बनींहैं जाँकश सफीनेके लिए

 

मुझको क्या गिजा चाहिए जीने के लिए

तुम्हारा गम काफी है पूरे महीने के लिए  

 

कुछ तो चाहिए दिलको गम दवा या दारु

इकअदद आब काफी नहींहै पीने के लिए 

 

क्यूँ बढ़ालीहैं हमने अपनी सब ज़रुरीयात

बढ़ीहुई तंख्वाह चाहिए हर महीने के लिए  

 

मैं भटकता हुआ दरिया हूँ समंदर है कहाँ

कोई ठहराव चाहिए तामीरेनगीने के लिए

 

अपनी…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:50am — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २६

बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:20am — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २५

तशवीशात के अजीमुश्शान महल में जैसे खो गया हूँ. हज़ार रास्ते, मगर कौन सही है, दीवारें जो दिख रहीं हैं वो आँखों का धोखा तो नहीं. दरीचों में समाया मंज़र शायद वहम हो. जगह जगह फिक्रों के फानूस टंगे हैं, अज़ीयतों के जौहर से दरोदीवार आरास्ता हैं. दूर कहीं आँगन में अंदेशों के आबशार से बह रहे हैं, बगीचे खौफ के दरख्तों से गुंजान और उलझनों के टिमटिमाते चरागों से शबिस्ताँ रौशन है. गलियारों में कशीदगी के कालीन बिछे हैं, कफेपा से जिनपे दिल की शोरीदगी के नक्श उभर आए हैं. बैठकखानों में मखफी सायों की मजलिस…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 21, 2012 at 8:00pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २४

रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 3:08pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २१

अब कहाँ आएँगे लौट के सबेरे कल के

रातमें तब्दील हो गए हैं उजाले ढल के

 

कोई खुशबू तेरे दामन की एहसासों में

कुछ लम्स से हथेली में तेरे आँचल के

 

मौत आई तो बेसाख्ता ये महसूस हुआ

कि ज़िंदगी आईहै वापिस चेह्रे बदल के

 

जाने वालातो सामनेसे रुख्सत हो गया

जाने क्या सुकूं मिलता है हाथ मल के

 

मैं कोई ख्वाब में हूँ या कोई गफलत है

आसमां में उड़ रहा हूँ, पंख हैं बादल के

 

बुझरही शमाने कराहते हुए मुझसे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 10:24am — No Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३८

पुणे से पत्नी को लिखा पत्र

 

प्यारी बिन्नी,

 

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

जहाँ के पेड पौधे, खेत खलिहान और

कुत्ते भी हमसे बातें किया करते थे

 

वो गांव क्या था पूरा परिवार था

हर आदमी इक दूसरे के प्रति

कितना जिम्मेवार था

सबकी खुशियाँ हमारी खुशियाँ थीं और

हमारे दुःख में हर कोई हिस्सेदार था

 

गांव के चौधरी यही तो कहा करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 1:00pm — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २०

पूरा हो या अधूरा अरमाँ निकल ही जाता है

करीब आ के दूर कारवाँ निकल ही जाता है

 

जो न बदलें हालात तो खुद को बदल डालो

जंगलोंसे निकलो आस्माँ निकल ही जाता है

 

रहेंगे कबतक मुन्हसिर गुंचे खिलही जाते हैं

कभीतो ज़िंदगीसे बागवाँ निकल ही जाता है

 

पत्थरोंसे भी मिट जाती हैं इबारतें समय पे

हो गहरा दिल का निशाँ निकल ही जाता है

 

मसीहा आते हैं इम्तेहा-ए-गारतपे हर दौर में

दौरेज़ुल्मियत से ये जहाँ निकल ही जाता…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:56pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३७

मरना क्या है?

 

जब मेरे दादा मरे थे तो मैं बहुत छोटा था, मुझे मालूम न हो सका कि मरना क्या है 

कुछ अजीब सा माहौल था मगर फिर सब अच्छा लगा 

घर में भोज हुआ और खाने पीने को अच्छा मिला.

 

जब मेरे चाचा मरे तो मैं कुछ बड़ा हो चुका था, माहौल ग़मगीन था, लोग रो रहे थे, सन्नाटा था 

मगर फिर सब अच्छा लगा 

घर में भोज हुआ और खाने पीने को अच्छा मिला.

 

जब मेरे पिता मरे तो पहली बार दुःख हुआ, लगा…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:49pm — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १९

मैं मंजिल के करीब आकर बिखर न जाऊं

सोचता हूँकि आज रात अपने घर न जाऊं

 

मुझे भी है इन्तेज़ार उम्रदराज़ हो जाने का

दिनभर बेरोज़गार रहूँ और दफ्तर न जाऊं

 

लहरोंको देख तेरी नज़रों की याद आती है

मैंने सोचा हैकि फिर कभी समंदर न जाऊं

 

गली में कुहराम मचा है और मैं बच्चा हूँ

माँ ने कहा है कि मैं घर से बाहर न जाऊं

 

छोड़ गया है अपना कुनबा बीवीकी खातिर 

अब्बा कहतें हैंकि मैं बड़े भाई पर न जाऊं

 

रोक…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:32pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३६

....तो तुम होती

 

रातों में तन्हाई नहीं होती

तो तुम होती

दुखों की परछाई नहीं होती

तो तुम होती

ज़िंदगी में बेपर्वाई नहीं होती

तो तुम होती

खुदा ने मेरी किस्मत बनाई नहीं होती

तो तुम होती

ये अयालदारी, ये जीस्तेकुनबाई नहीं होती

तो तुम होती

खामखाह हमने बात बढ़ाई नहीं होती

तो तुम होती

पैदाइशेखल्क के मरकज़ में जुदाई नहीं होती

तो तुम होती

हममें तुममें तश्वीशेआबाई नहीं…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:20pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३५

शब्दों में जो लिखा है....

---------------------------------

शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

तराशी हैं मन की सभी छोटी बड़ी बातें

जो कभी किसी कोने में दुबका सिकुड़ा है

और जो कभी आकाश से भी उन्नत और बड़ा है

शब्दों में लिख लिख के सश्रम

उसके ही परिहास और वंचनाओं को गढ़ा है

 

बदल गए अपनों की व्यथाएं

आँखों से झांकती क्लांत आशाएं

संबंधों की अपरिभाषित सीमाएं

कुछ करने न करने की…

Continue

Added by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 8:30am — No Comments

Monthly Archives

2019

2018

2017

2016

2013

2012

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"चल मुसाफ़िर तोहफ़ों की ओर (लघुकथा) : इंसानों की आधुनिक दुनिया से डरी हुई प्रकृति की दुनिया के शासक…"
7 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"सादर नमस्कार। विषयांतर्गत बहुत बढ़िया सकारात्मक विचारोत्तेजक और प्रेरक रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
8 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"आदाब। बेहतरीन सकारात्मक संदेश वाहक लघु लघुकथा से आयोजन का शुभारंभ करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन…"
9 hours ago
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"रोशनी की दस्तक - लघुकथा - "अम्मा, देखो दरवाजे पर कोई नेताजी आपको आवाज लगा रहे…"
19 hours ago
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"अंतिम दीया रात गए अँधेरे ने टिमटिमाते दीये से कहा,'अब तो मान जा।आ मेरे आगोश…"
20 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115
"स्वागतम"
Tuesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

दीप को मौन बलना है हर हाल में // --सौरभ

212 212 212 212  इस तमस में सँभलना है हर हाल में  दीप के भाव जलना है हर हाल में   हर अँधेरा निपट…See More
Tuesday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-172
"//आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी जी, जितना ज़ोर आप इस बेकार की बहस और कुतर्क करने…"
Saturday
Sanjay Shukla replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-172
"आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत धन्यवाद"
Saturday
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-172
"आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी जी, जितना ज़ोर आप इस बेकार की बहस और कुतर्क करने…"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-172
"आ. रचना बहन, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-172
"आ. भाई संजय जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service