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पुस्तक समीक्षा : मुमताज महल (उपन्यास), लेखक - डॉ सुरेश वर्मा, समीक्षक - संजीव वर्मा "सलिल"

कृति-चर्चा

काल के गाल पर ढुलका आँसू मुमताजमहल

संजीव वर्मा 'सलिल'

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(विवरण: मुमताजमहल, उपन्यास, डिमाई आकार, पृष्ठ 350, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, मूल्य 150 रु., प्रकाशक: वाणी प्रकाशन दिल्ली।)

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                         हिंदी-गद्य लेखन का श्री गणेश संवत 1855 के आसपास इंशा अल्ला खां रचित 'रानी केतकी  की कहानी' से तथा एतिहासिक प्रसंगों पर लेखन का आरम्भ भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा (संवत 1907-संवत1941) द्वारा 'कश्मीर कुसुम' तथा 'बादशाह दर्पण' से हुआ। इसके पूर्व अधिकतर लेखन धार्मिक अथवा साहित्यिक प्रसंगों पर केन्द्रित रहा। ऐतिहासिक चरित्रों में शासकों को अधिकतर लेखकों ने कृतियों का केंद्र बनाया। विगत 161 वर्षों के कालखंड में रचनाकारों ने माँ सरस्वती के साहित्य-कोषागार को असंख्य ग्रन्थ-रत्नों से समृद्ध किया। आरंभ से ही संस्कृत, प्राकृत, आंचलिक बोलिओँ तथा अरबी-फ़ारसी की चुनौतियाँ झेलती रही हिंदी क्रमशः अपने मार्ग पर बढ़ती गयी और आज विश्व-वाणी बनने की दावेदार है। 

                    इस काल-खंड में अनेक लोकप्रिय सत्ताधारी औपन्यासिक कृतियों के नायक बने किन्तु जनमानस में प्रतिष्ठित मुमताज महल अदेखी रह गयीं। सन 1978 में श्री हरिप्रसाद थपलियाल  तथा  सन 2011 में सनातन सलिला नर्मदा के तीर पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर के समर्पित हिंदीविद, निष्णात प्राध्यापक, निपुण नाटककार, कुशल कहानीकार डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने औपन्यासिक कृतियों का सर्जन कर मुमताज के व्यक्तित्व, कृतित्व तथा अवदान का मूल्यांकन किया। डॉ. वर्मा अपनी प्रथम औपन्यासिक कृति की नायिका के रूप में मुमताज़ के चयन का औचित्य उसके दुर्लभ गुणों ठण्ड की सुबह की खिली धूप सा दमकता चेहरा, बातचीत का अनोखा गुलरेज़ अंदाज़, फिरदौस की जुही सी मसीही मुस्कान, माँ की सजीव गुडिया सी मख्खनी काया, सबकी फ़िक्र करने वाले मिजाज़ और दुर्लभ गुणों से संवलित व्यक्तित्व कहकर  सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार ताजमहल जैसी इमारत उसी के लिए बन सकती है जो 'डिजर्व' करती हो... आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही यकीन कर पाएंगी कि  इन गुणों से आरास्ता कोई एक बदीउज्ज़मां खानम हिन्दुस्तान की सरजमीं पर जलवानशीं रहीं होंगी...उसने अपनी सेवा और सूझ-बूझ, सौजन्य और समर्पण, सहस और संकल्प द्वारा प्रमाणित किया की पुरुष के लिए स्त्री से बढ़कर कोई औषधि नहीं है।संभवतः मुमताज़ की असाधारणता का अनुमान न कर सकना ही उस पर कृति न रचे जाने का कारण हो।  

                        हिंदी साहित्य भाव पक्ष तथा विचार पक्ष की प्रमुखता के आधार पर लक्ष्य ग्रंथों तथा लक्षण ग्रंथों में सुवर्गीकृत किया जाता है।  लक्ष्य ग्रन्थ दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य में तथा लक्षण ग्रन्थ आलोचना और साहित्य शास्त्र में विभाजित किये जाते हैं। दृश्य काव्य में रूपक, उपरूपक अर्थात नाटक और श्रव्य काव्य गद्य, पद्य व चम्पू में बांटे गए हैं। पद्य में महाकाव्य, खंडकाव्य व एकार्थ काव्य तथा गद्य में उपन्यास, कहानी, निबन्ध, जीवनी आदि समाहित किये गए हैं।  यथार्थ, कल्पना, कुतूहल, भावना तथा विचार के पंचतत्वों से बनी कथा ही उपन्यास का मूल होती है। उपन्यास जीवन की प्रतिकृति होता है। उपन्यास की कथावस्तु का आधार मानव जीवन और उसके क्रिया कलाप ही होते हैं। वातावरण की पृष्ठभूमि पात्रों के चरित्र का आधार होती है। पाश्चात्य समालोचकों ने कथावस्तु, संवाद, वातावरण, शैली व  उद्देश्य उपन्यास के  तत्व कहे हैं। 

 कथावस्तु:  

                        प्रो.वर्मा ने ''art lies in concealment'' अर्थात 'कला छिपाव में ही निहित है' के सिद्धांतानुसार मुमताज़ को नायिका ठीक ही चुना है कि उसके विषय में जितना ज्ञात है उससे अधिक अज्ञात है। इस अज्ञात को कल्पना से जानने की स्वतंत्रता है जबकि जिसके विषय में सब ज्ञात हो वहाँ कल्पना से काम लेने की स्वतंत्रता नहीं होती। मानव मन की प्रत्येक भावना को सत्य की कसौटी पर कस सकना किसी उपन्यासकार के लिए संभव नहीं है और न यह ही संभव है कि मानव मन की हर संवेदना की अनुभूति रचनाकार कर सके। कई बार दुहराए जा चुके चरित्रों के संबंध में कुछ नया और मौलिक कह पाना कठिन होता है तथा मान्य धारणा से हटते ही प्रामाणिकता का प्रश्न खड़ा हो जाता है। ऐसी स्थिति में उपन्यासकार के लिए मन के तारों को झनझनाने वाले चरित्र का चयन करना उचित होता है। डॉ. वर्मा ने मुमताज़ को केंद्र में रखकर उसके अल्पज्ञात गुणों के ताने-बाने से कथावस्तु को रोचक बनाया है। नूरजहाँ के प्रति जहाँगीर के दुर्निवार आकर्षण, मुमताज़ के निकाह, सलीम के निरंतर युद्धों और यात्राओं, सियासी षड्यंत्रों और सत्ताप्रेम, रिश्तों के बनने और टूटने की विडंबना, लगातार प्रसव, गिरता स्वास्थ्य व अयाचित अंत... कथावस्तु का निरंतर बदलता घटनाक्रम पाठक को बांधे रखने में सफल है।

                         कथा वस्तु के दो अंग मूल कथावस्तु तथा प्रासंगिक कथावस्तु होते हैं। आलोच्य कृति में मुग़ल साम्राज्ञी मुमताजमहल की कथा मूल है जिसके विकास के लिए खुसरो द्वारा विद्रोह, नूरजहाँ के प्रति जहाँगीर की आसक्ति, खुर्रम की सगाई-विवाह, युद्ध, विद्रोह,  समर्पण तथा तख़्तपोशी, शहरयार, मेवाड़ युद्ध,  दक्खन की समस्या, खानखाना, दरबार के षड्यंत्र, महावत खां का पराक्रम और विद्रोह आदि प्रसंगों का सहारा उपन्यासकार ने यथास्थान लिया है। इन प्रसंगों और कारकों का एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप में न होकर सहायक के रूप में होना उपन्यासकार की कथा  प्रसंगों पर पकड़ और विषय में गहन पैठ का प्रमाण है।

चरित्र चित्रण:

                         उपन्यासकार चरित्रों का विकास सत्य और कल्पना के मिश्रण की नीव पर करता है। सत्य प्रतीत होती कल्पना और काल्पनिक अनुभव होता सत्य चरित्रों में इंद्रधनुषी रंग भरकर उन्हें चित्ताकर्षक बनाते हैं। इस तथ्य से भलीभांति अवगत डॉ. वर्मा ने श्रेयत्व के साथ प्रेयत्व का संगुफन  इस तरह किया है कि  वह सायास किया गया प्रतीत नहीं होता। मुमताज़, शाहजहाँ, जहाँगीर, नूरजहाँ, औरंगजेब, महाबत खां आदि प्रमुख  चरित्र  सहृदयतापूर्वक चित्रित किये गए हैं। औरंगजेब को छोड़कर सभी चरित्र सकारात्मकता लिए हैं। मुमताज़ का चरित्र रूपवती होने पर भी गर्व न करने, पिता-पुत्र के बीच की दूरी को कम करने, पति को प्रेरित कर सफलता के पथ पर ले जाने, स्वयं तकलीफ सहकर भी युद्धों और यात्राओं में लगातार साथ देने, पराजय के बाद क्षमा-प्रार्थना का दाँव की तरह उपयोग, सत्ता मिलने पर भी विनम्रता और इंसानियत तथा वैद्य की चेतावनी को अनसुना कर पति के लक्ष्य को पाने के लिए आत्माहुति से न केवल आकर्षक अपितु अनुकरणीय भी बना है। शेष चरित्रों पर सत्ता-मद हावी है। गियासबेग, अबुलहसन, महाबत खां आदि के चरित्र राज्यभक्ति से सराबोर हैं। एक महत्वपूर्ण चरित्र सतीउननिसा का है, यह मुमताज की परिचारिका भी है बाल मित्र भी और सलाहकार भी। उसकी स्वामिभक्ति तथा समझ कथा विकास में सहायक है।

                          चरित्र चित्रण की शब्दचित्र (sketch) प्रणाली के अंतर्गत उपन्यासकार पात्रों के शारीरिक गठन, वर्ण, प्रभाव, रहन-सहन, गुण-दोष आदि का वर्णन करता है जबकि प्रत्यक्ष या विश्लेषणात्मक (direct / analytical) प्रणाली में  पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर पाठक के समक्ष गुण-दोषों को बिना कहे उद्घाटित होने देता है। परोक्ष या नाटकीय प्रणाली के अंतर्गत उपन्यासकार पात्र की सृष्टि कर नेपथ्य में चला जाता है तथा पात्र स्वयमेव वार्तालापों, क्रिया-कलापों और विचारों से चरित्र के ताने-बाने बुनते जाते हैं। डॉ. वर्मा ने तीनों विधियों का यथावश्यक प्रसंगानुकूल बखूबी प्रयोग किया है। अपेक्षाकृत कम मुखर व  अति समर्पित मुमताज़, उसकी सखी सतीउननिसा के सन्दर्भ में शब्द चित्र प्रणाली, नूरजहाँ के चरित्र चित्रण में प्रत्यक्ष प्रणाली तथा जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि के चरित्र चित्रण में परोक्ष प्रणाली का प्रयोग ठीक ही किया है।                               

                          उपन्यास का सम्बन्ध जीवन से होता है। उसके पात्र पाठक को अपने चारों ओर के व्यक्तित्वों से मेल खाते प्रतीत हों तो वह पात्रों के सुख-दुःख के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाता है। पात्रों के चरित्रों को कम से कम शब्दों में कथा प्रसंग के विकास हेतु निखारने-उभरने में ही उपन्यासकार की कला है। विश्लेषणात्मक पद्धति में उपन्यासकार पात्रों के भावों, विचारों और मानसिक-शारीरिक अवस्थाओं का विश्लेषण कर पाठक को कथावस्तु के साथ जोड़ता है। डॉ. वर्मा ने कहीं-कहीं प्रसंग की आवश्यकता के अनुसार यथासंभव न्यूनतम शब्दों में पात्रों की मनःस्थितियों का वर्णन कर कथ्य की रोचकता बनाये रखने में सफलता प्राप्त की है। इन स्थलों में उपन्यासकार द्वारा प्रयुक्त भाषा खडी हिंदी है तथा शब्द चयन संस्कृतनिष्ठ है। नाटकीय पद्धति का अनुसरण करते हुए कृतिकार के मानस पुत्र अर्थात उपन्यास के पात्र अधिकांश स्थलों पर अपनी शिक्षा तथा परिवेश के अनुकूल अरबी-फ़ारसी के शब्द से युक्त उर्दू का प्रयोग करते हैं। ये पात्र अपने क्रिया कलापों तथा संवादों से घटनाक्रम के विकास में न केवल सहायक होते हैं उसे रोचक बनाये रखते हुए पूर्णता तक पहुंचाते हैं। सामान्यतः पात्रों में सर्वाधिक शक्तिशाली तथा प्रभावी पात्र नायकत्व का श्रेय पाता है।

पात्र : 

                          प्रस्तुत कृति में आदि से सर्वाधिक शक्तिशाली तथा प्रभावी चरित शाहजहाँ का है किन्तु वह कृति-नायक नहीं है जबकि कृति का केंद्र मुमताज आरंभ में निरीह बालिका तथा अदना वधु मात्र है। वह कहीं भी स्वतंत्र निर्णय लेकर क्रियान्वित करती नहीं दिखती, अपितु पति की अनुगामिनी मात्र है। अतः उसे कृति-नायिका कहने पर प्रश्न उठ सकता है। उपन्यासकार संभवतः इसीलिए उसके कथा प्रवेश से पूर्व और अंत के बाद के प्रसंग जोड़ता है ताकि उसके प्रभाव का आकलन किया जा सके। उपन्यासकार ने एतिहासिक घटनाक्रम के अनुसार पात्रों को स्वयमेव विकसित होने दिया है। कहीं किसी पात्र पर महत्ता आरोपित नहीं की है। जहाँगीर, नूरजहाँ, शाहजहाँ और अंत में औरंगजेब के चरित्र उभरते गए हैं किन्तु मुमताज़ का चरित्र कहीं भी सर्वाधिक प्रभावी नहीं दिखता। वह निर्णायक न होने पर भी निर्णय के मूर्त रूप लेने में सहायक होता है।एक ओर नूरजहाँ सम्राट जहाँगीर के नाम पर शासन करती है दूसरी ओर उसकी मानस सृष्टि मुमताज़ पृष्ठभूमि में रहकर शाहजहाँ को आवश्यकतानुसार वांछित परामर्श दे-देकर सम्राट  के तख़्त तक पहुँचाती है। वह पति के प्रति इतनी समर्पित है कि अस्वस्थ्य होने तथा वैद्य द्वारा प्राणों पर संकट होने की चेतावनी दिए जाने पर भी पति की कामना पूर्तिकर बार-बार मातृत्व धारण करती है। शारीरिक कमजोरी को छिपाकर पति के साथ निरंतर युद्ध-यात्राओं पर जाती है। भोजन में पानी की तरह सर्वत्र रहकर कहीं भी न होने प्रतीति करता यह चरित्र पाठक को उसके अपने घर में माता या पत्नी की तरह स्वाभाविक प्रतीत होता है। 

                           चेतन (concious), अचेतन (un concious) तथा अवचेतन (sub concious) के अंतर्द्वंद चरित्रों के टकराव तथा उत्थान-पतन के कारण बनते हैं। कथावस्तु  पात्रों के चरित्रों के अनुकूल विकसित होती है। समीक्ष्य कृति के चरित्रों में दरबारियों, परिवारजनों तथा अनुचरों के चरित्र  स्थिर (static) हैं। वे आदेश या परंपरा के वाहक / पालक मात्र हैं तथा किसी परिवर्तन के कारक नहीं होते। जहाँगीर, नूरजहाँ, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि चरित गतिशील (dynamic) हैं। वे अपना रास्ता खुद बनाते हैं, अपने 'स्व' से  परिचालित होते हैं। उपन्यास नायिका मुमताज़ अपवाद है। वह स्थिर होते हुए भी गतिशील है तथा गतिशील होते हुए भी स्वार्थी या आत्मकेंद्रित न होकर संयमित है। 

संवाद:

                          कथावस्तु के विकास हेतु पात्रों के वार्तालाप संवादों के माध्यम से ही होते हैं। संवादों का कार्य 1. कथावस्तु का विकास, 2. पात्रों के व्यक्तित्व का निखार तथा 3. उपन्यासकार के विचारों या आदर्शों का अभिव्यक्तिकरण होता है। मानव अपनी विचार तथा अभिव्यक्ति क्षमता के कारण ही अन्य प्राणियों से अधिक उन्नत व विकसित है। वैचारिक साम्य प्रेम व सहयोग तथा विचार वैभिन्न्य संघर्ष व द्वेष का कारक होता है। जहाँगीर तथा शाहजहाँ का विचार वैभिन्न्य शाहजहाँ तथा मुमताज़ महल का विचार साम्य,  नूरजहाँ तथा औरंगजेब का स्वविचार को सर्वोपरि रक्कने का स्वभाव उपन्यास के घटनाक्रम को गति देता है। उपन्यासकार समान विचार के संवादों के माध्यम से नव घटनाक्रम की तथा विरोधी विचार के संवादों के माध्यम से द्वेष की सृष्टि करता है। डॉ. वर्मा का विषयवस्तु के गहन अध्ययन, पात्रों  की मानसिकता की सटीक अनुभूति, वातावरण एवं घटनाक्रम की प्रमाणिक जानकारी से संवादों को प्रभावी  है। वे संवादों को अनावश्यक विस्तार नहीं देते। जहाँगीर-नूरजहाँ के आरंभिक टकराव, नूरजहाँ के समर्पण, नूरजहाँ-शाहजहाँ के बीच की दूरी, शाहजहाँ-मुमताजमहल  के नैकट्य तथा कथाक्रम के महत्वपूर्ण मोड़ों को संवाद उभारते हैं। डॉ .वृन्दावन लाल वर्मा, अमृत लाल नागर तथा भगवती चरण वर्मा की तरह लंबे अख्यन डॉ. सुरेश वर्मा की प्राथमिकता नहीं हैं। वे कम शब्दों में मन को स्पर्श करनेवाले मार्मिक संवाद रचते हैं, मानो घटनाओं के चश्मदीद गवाह हों :

                           मेहरुन्निसा को लगा वातावरण भारी हो गया है। उसे हल्का करने के मकसद से कहा: 'आप लोग मेरी तारीफ भी करते हैं और धिक्कारते भी हैं।'

                          अबुलहसन ने उसे उसी के सिक्के में जवाब देते हुए कहा: 'तू बहुत अच्छी है कि महारानी बनने लायक है। तू बहुत ख़राब है कि महारानी बनना नहीं चाहती।'

भाषा: 

                           पात्रों व घटनाओं के अनुकूल भाषा संवादों को प्रभावी और जीवंत बनाती है। जयशंकर  प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन आदि की शुद्ध साहित्यिक भाषा की अपेक्षा प्रेमचंद की जन सामान्य में बोली जानेवाली उर्दू शब्दों से युक्त भाषा डॉ. वर्मा के अधिक निकट है किन्तु वे अभिजात्य वर्ग में बोले जानेवाली शब्दावली का प्रयोग करते हैं। संभवतः इसका कारण उपन्यास के कथानक का शाही परिवार से जुड़ा होना है। डॉ. वर्मा संस्कृत शब्दों की प्रांजलता-माधुर्य तथा अरबी-फ़ारसी के शब्दों की  नजाकत-नफासत  का  गंगो- जमुनी मिश्रण इस खूबसूरती से पेश करते हैं कि पाठक आनंद में डूब जाता है। यथा: तदुपरांत सम्राट खड़ा हुआ। उसने सभासदों के मध्य मंद स्वर में घोषणा की- ''माबदौलत माह्ताबेजहाँ बेगम मेहरुन्निसा के लिए 'मलिका-ए-हिंदुस्तान' का लकब करार देते हैं तथा उन्हें बाइज्ज़त 'नूर-ए-महल' का ख़िताब अता करते हैं।'' सभाकक्ष देर तक 'मरहबा मरहबा' के नारों से गूंजता रहा।

                    अंतर्सौन्दर्य, अस्तमित, आज्ञानुवर्तन, पर्यंक, वातास, पुष्पांगना, पश्चद्वार, जयोच्चार, प्रातिका, रक्ताभ, आत्मविमुग्धता आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ वफ़ाआश्ना, अदलो-उसूल, निस्बानियत, सितमगिर्वीदा, बूते-माहविश, नाकदखुदाई, साफ़-शफ्फाक, अदलपर्वर, दिलबस्तगी, खुद सिताई, खुद शिनासी आदि लफ्जों का मेल इतनी सहजता-सरलता और अपनेपन से हुआ है कि वे गलबहियाँ डाले गपियाते प्रतीत होते हैं। इन शब्दों के सटीक प्रयोग से उपन्यासकार की शब्द सामर्थ्य और बहु भाषाई पकड़ की प्रतीति होती है, साथ ही पाठक के शब्द-भंडार में भी वृद्धि होती है। 

                           हिंदी के दिग्गज विद्वान डॉ. वर्मा शब्द युगलों के प्रयोग में दक्ष हों,  यह स्वाभाविक है। ऐसे प्रयोग उपन्यास की भाषा की आलंकारिक सज्जा कर उसे रुचिकर बनाते हैं। यथा: मुख-मंडल, सरापा सौंदर्य, प्रथम प्रशंसा, गुलाक गौफे, मनमाफ़िक, मादक मुस्कान, मौके के मुताबिक, खोज-खबर, कामना के कफ़स की कैद, मुक़र्रर मुक़ाम, जंगजू जोधा, बिदाई की बेला, मन की मंजूषा, दुल्हिन के दिल, तौर-तरीकों, निको नाम, हिस्ने हसीन, पाक परवरदिगार, साजो-सामान, दरवाजे-दरीचे, रंग-रंजित, रूप-राशि, बीचों-बीच, गहमा-गहमी, नवोढ़ा नायिका, अतुलनीय अपरूप, मौके के मुताबिक़, अवश अनुभव, सिकुड़ी-सिमटी, नफ़े-नुकसान, तराजू पर तौल, सूरज को सलाम, ताज़ो-तख़्त, हमराज़-हमसफ़र-हमपहलू, सुभाव से सुखी, मोहब्बत की मिसाल, धूम-धाम, धूम-धड़ाका, चहल-पहल, रस और रहस, आका को आराम, खुशखुल्कखानम, कल का किस्सा, आलीशान और अजीमुश्शान, दरो-दीवार, लाज की लालिमा, मजेमीन। कशाकश, नश्बोनमा आदि। इन शब्द-प्रयोगों से बोझिल, त्रासद और अफसोसनाक वाकये भी आनुप्रासिक मुहावरेदारी की वजह से बोझिलता से मुक्त हो सके हैं। गद्य में ऐसे प्रयोगों से अनुप्रास, उपमा, यमक, श्लेष आदि  अलंकारों के लक्षण  द्रष्टव्य हैं। गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है। डॉ. वर्मा इस कसौटी पर खरे उतरे हैं।

                         कहावतों और मुहावरों के मुक्त प्रयोग से उपन्यास की भाषा बलखाती नदी की तरंगित लहरों की तरह कलकल निनाद करती प्रतीत होती है। कानों में मिसरी घोलना, असंभव सी बात सम्भावना की देहलीज़ पर घुटने टेक सकती है, ख्वाब में आने की दावत देकर, दिल के दर्पण में दीदार कर ले, मधुमासी सौन्दर्य की आभा बिखेरती आभिजात्य  और गरिमा की प्रतिकृति नवलवधु, मदमाती सुगंध से कक्ष महमहा रहा था जैसी कोमलकांत पदावली पाठक के मन को प्रफुल्लित करती है।                         

वातावरण: 
                          वातावरण से अभिप्राय देश, काल, प्रकृति, आचार-विचार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन तथा राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण से होता है। ऐतिहासिक उपन्यासों में तात्कालिक वातावरण ही प्रामाणिकता का परिचायक होता है। वातावरण आधुनिक हो तो घटित घटनाएँ काल्पनिक और अप्रासंगिक प्रतीत होंगी। मुमताजमहल का किरदार जिस दौर का है उसमें भारतीय और मुगल सभ्यताओं का मेल-जोल हो रहा था। अतः, मुग़ल दरबारों के षड्यंत्रों, महलों की अंतर्कलहों, सत्ता के संघर्ष, चापलूसी, जी हुजूरी, स्वामिभक्ति, गद्दारी, बगावत, भोग-विलास, युद्ध और लूट आदि का चित्रण अप्रासंगिक होने पर भी अपरिहार्य हो जाता है। जिस तरह वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों में व्याप्त 'बुन्देली' माटी की सौंधी गंध उन्हें प्राणवंत बनाती है, अमृत लाल नागर के उपन्यासों में 'अवधी' की मिठास प्रसंगों को जीवंत करती है, अंग्रेजी साहित्य में 'स्कोटिश' तथा 'आयरिश' कथानकों पर केन्द्रित उपन्यासों को उन अंचलों के नाम से ही जाना जाता है उसी तरह डॉ. वर्मा की यह कृति हिन्दू-मुग़ल काल की परिचायक है और वही वातावरण कृति में व्याप्त है। 
 
शैली:   
                        शैली उपन्यासकार की अपनी ईजाद होती है। शैली से उपन्यासकार को पहचाना जा सकता है। जयशंकर प्रसाद, यशपाल, अमृतलाल नागर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल संकृत्यायन, भगवतीचरण वर्मा, वृन्दावनलाल वर्मा, प्रेमचन्द, उपेन्द्रनाथ 'अश्क' आदि की शैली ही उनकी पहचान है। उपन्यासकार न प्रगट होता है, न छिपता है। वह अपनी शैली के माध्यम से बादलों से आँख मिचौली करते चाँद, या नदी के प्रवाह में छिपी लहरों की तरह अपनी उपस्थिति झलकाता है। डॉ. वर्मा ने अपनी इस प्रथा औपन्यासिक कृति में अपनी शैली निर्मित की है जिसकी पहचान आगामी कृतियों से पुष्ट होगी। 
 
उद्देश्य: 
                        उपन्यास रचना का मूल उद्देश्य निस्संदेह मनोरंजन होता है किन्तु सक्षम उपन्यासकार घटनाओं एवं पात्रों के माध्यम से पाठक को शिक्षित, सचेत, जागृत तथा संवेदनशील भी बनाता है। प्रेमचंद अपने पात्रों के माध्यम से पाठक को सामाजिक विसंगतियों के प्रति सचेत कर परिवर्तन हेतु प्रेरित करते हैं। यशपाल के उपन्यास क्रांतिकारियों के बलिदान को रेखांकित करते हैं। जैनेन्द्र की औपन्यासिक कृतियाँ गांधीवादी परिवर्तनों से उज्जवल भविष्य निर्माण का सन्देश देते हैं। आचार्य चतुरसेन सांस्कृतिक घटनाओं का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उद्घाटन करते हैं। गुरुदत्त सामाजिक परिवर्तन और पारिवारिक ढांचे की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। रवीन्द्रनाथ का गोरा लम्बे बोझिल संवादों से  दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। विवेच्य कृति में डॉ. वर्मा भारतीय राजाओं की फूट, मुगलों आक्रामकता, सम्राटों की निरंकुशता की  आधारशिला पर निर्मित सहिष्णुता, सद्भाव की श्रेष्ठता तथा प्रेम की उदात्तता का संदेश देते हैं। शाहजहाँ के अंत के माध्यम से उपन्यासकार संदेश देता है कि सत्ता, धन या बल अंत में कुछ साथ नहीं रहता, साथ रहती हैं  यादें और भावनाएं। उपन्यास नायिका के माध्यम से इस्लाम में स्त्री की स्थिति उद्घाटित हुई है कि साम्राज्ञी तथा पति की प्रिय होकर भी वह स्वतंत्र चेता नहीं हो सकी तथा पति की इच्छा को सर्वोपरि मानकर संतानों को जन्म देने में ही जीवन की सार्थकता मानती रही। 
 
                        स्त्रीविमर्शवादियों को 'खाविंद के पैरों से जूते उतारकर अपने दमन से साफ़ करनेवाली यह साम्राज्ञी किस तरह स्वीकार्य होगी? सम्राट के इशारे पर निकाह तय होना, रुकना, होना निकाह के बाद अन्य शौहर के साथ लगातार यात्राएं, युद्ध और संतानों को जन्म देने के मध्य प्रेम के कितने पल उसे नसीब हुए होंगे? उसकी क़ाबलियत शौहर को मुश्किलों और मुसीबतों में सलाह देने तक सीमित है। वह बच्चों को कैसी तालीम दे सकी यह सत्ता के लिए भाई  के हाथों भाई की हत्या और पुत्र के हाथों पिता की कैद से ज़ाहिर हुई। जिस फूफी की गोद में खेली, जिससे बहुत कुछ सीखा, जो उसे शाही खानदान में विवाहित कराने का जरिया बनी, उसको अपने पति के विरोध में देखकर भी वह कुछ न कर सकी। अपनी अप्रतिम रूपराशि से वह पति का मन मोह सकी किन्तु कैकेयी की तरह रण-संगिनी नहीं बन सकी। यहाँ तक की गर्भ धारण करने पर जान को संकट होने का सत्य भी वह पति को नहीं बता सकी। यद्यपि उपन्यासकार ने इसका कारण उसकी पति के प्रति समर्पण भावना को बताया है। दो जिस्म एक जान होने का दावा करनेवाले शौहर को बीबी की ही खबर न हो तो उसे सम्राट के रूप में या शौहर के रूप में कितना काबिल माना जाए? कई सवाल पाठक के मन को मथते हैं। उसके प्रेम की याद में बादशाह ने ताजमहल तामीर कराया, यह उपन्यासकार का मत है। इसे मान्य करें तो भी दो नजरिये सामने आते हैं जिन्हें शायरों ने इस तरह बयां किया है:
1. एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल 
    सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है ...
2. एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल 
    हम गरीबों की मोहब्बत का उडाया है मजाक ... 
  
                        
भारतीय सर्वेक्षण विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक डॉ. पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक 'ताजमहल राजपूती महल था' में प्रामाणिक रूप से सिद्ध किया है कि यह इमारत शाहजहाँ के जन्म से पूर्व से थी। ताजमहल के दरवाजों की लकड़ी की कार्बन डेटिंग पद्धति से जांच में भी यह शाहजहाँ से लगभग 300 वर्ष पूर्व सन 1359 की पाई गयी है तथापि डॉ. वर्मा इसे प्रचलित कथानुसार न केवल शाहजहाँ द्वारा मुमताज की स्मृति में बनवाया गया माना है इस मान्यता के समर्थन में तर्क भी गढ़े हैं। जैसे: इस सम्बन्ध में शाहजहाँ व् मुमताज में चर्चा, इमारत में हिन्दू मांगलिक प्रतीकों व भवन के नाम में साम्राज्ञी के नाम का भाग का पूर्व योजनानुसार होना आदि। 
 
 
                          ऐतिहासिक कथानकों में रूचि रखन वाले पाठको को डॉ. वर्मा का यह उपन्यास न केवल लुभाएगा, उनके शब्द भण्डार की वृद्धि भी करेगा। डॉ. वर्मा की मुहावरेदार संस्कृत-उर्दू मिश्रित हिंदी साहित्य और भाषा के प्रेमियों को और जानने के लिए प्रेरित करेगी। भाषाविद, समीक्षक, नाटककार के रूप में पूर्व प्रतिष्ठित डॉ. वर्मा का उपन्यासकार पहले पहल सामने आया है। उनकी प्रौढ़ कलम से हिंदी के सारस्वत कोष को और भी नगीने मिलें, यही कामना है। इस रोचक, सर्वोपयोगी ऐतिहासिक कृति से सहिष्णुता, सद्भाव, सहकारिता तथा सर्व धर्म समभाव को प्रोत्साहन मिलेगा। इस कृति की नायिका मुमताज महल पर श्री हरिमोहन थपलियाल के उपन्यास की तुलना में डॉ. वर्मा की यह कृति अधिक प्रामाणिक, प्रौढ़, रुचिकर तथा पठनीय है।

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