For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

प्रथम प्रयास 

पुस्तक : ककनमठ

लेखक: पं. छोटेलाल भरद्वाज

प्रकाशक: प.दिनेश भरद्वाज

मूल्य: ५००/- रूपये

प्रथम संस्करण: १९८८

द्वितीय संस्करण: २०१७

 

ऐतिहासिक पुरातत्विक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में भारत के अंधकार-पूर्ण काल-खण्ड को कथांकित किया गया है| सम्राट हर्षवर्धन के पश्चात् केंद्रीय सत्ता किसी की भी न रही, जिसकी वजह से देश में छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गए| इन राज्यों के बीच सामंजस्य न था| इस्लामी आक्रान्ताओं ने इस फूट का लाभ उठाया|

किन्तु इस युग में भी यदा-कदा प्रचंड वीरता और वीर पुरुष एवं उनके पौरूष दिखाई पड़ता है| एक तरफ जहाँ राजा महाराजों के बीच सत्ता को लेकर युद्ध होता था वहीँ दूसरी और कुछ राज्यों में संस्कृति और कला को समर्पित राज्यों ने शिल्प और कला का भरपूर विस्तार किया|

लेखक ने इस कथा में मध्यप्रदेश के क्षत्रिय परिवारों को केन्द्रित किया है, उन्होंने अपने पृष्ठ-भूमि के वक्तव्य में यह उल्लेख किया है –‘ बहुत कम लोग जानते हैं कि महमूद गज़नवी ने ग्वालियर( गोपाचल) दुर्ग का घेरा डाला और चार दिन में ही घेरा उठाकर उन्हें भागना पड़ा| सिहोनियाँ (तत्कालीन सिंहपानीय)  के राजा कीर्तिराज कच्छपघात ने उसे पूरी तरह हराया था| यह भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है|

मध्यप्रदेश के पुरातन अवशेषों का भी लेखक ने उल्लेख किया है : ‘ मध्यप्रदेश में बह रही अश्व नदी के बाएं किनारे कच्छपघात नरेशों की राजधानी सिंहपानीय स्थित थी जो अब मुरैना जिले में अवशिष्ट है| यहीं पर विश्वविख्यात रथ-मंदिर ‘ककनमठ’ बना हुआ है, इसके २ किलोमीटर की परिधि के भीतर जैन तीर्थकर की प्रतिमायें हैं|

‘ यों तो चम्बल क्षेत्र में हाल ही में पहाड़गढ़ के पास ‘लिखी छाज’ के नाम  खोजे गए गुफागुच्छ की ८६  गुफाओं और शैलांश्रयों ने इस क्षेत्र की संस्कृति को मध्याश्मीय और ताम्रास्मीय सिद्ध किया है| ‘

‘चम्बल और नर्मदा के बीच विन्ध्याचल के पठारों और मैदानों में संस्कृति का अक्षय कोश भरा हुआ |’

इस उपन्यास की शुरुआत लेखक ने एक आश्रम से की है, जहाँ एक सन्यासिनी अपनी पुत्री को आवाज़ लगा रही हैं… ‘कंकन, अरी ओ कंकन! देव विग्रह पर दीप तो आलोकित कर दे, संध्यार्चन का समय हो गया है, पुत्री|’

एक सात्विक परिवेश से शुरू होती यह कथा एक ऐसे अलौकिक वातावरण में ले जाती हैं जब देव आराधना को प्राथमिकता और नित्यक्रम का हिस्सा माना जाता था| आश्रम पढ़कर एक ऐसी जगह चित्रित होती हैं जहाँ मिटटी पर बनी घांस और टहनियों से बने घर होंगे, आस-पास मंत्रोचाराण से जगह गुंजायमान रहा होगा, और आश्रम में गुरुदेव भी होंगे|

संध्याकाल का समय है, जब हर व्यक्ति, पशु-पक्षी अपने घर की ओर प्रस्थान करता है, सुबह से घर के बाहर रहने वाले जब घर की ओर लौटकर आते हैं तो घर में प्रेम बरसता हैं जब गाय भी दिन भर घूमकर अपने घर लौट आती है और वातावरण गायों की खुरों की धूल से आकाश आच्छादित हो जाता है और जगम वात्सल्य के क्षीर से सरोबर हो जाती है|

लेखक ने बहुत ही सुंदरतरीके से इस भाव को इंगित किया है, ‘ प्रौढ़ा तापसी के प्यार भरे स्वर में भी मातृ- क्षीरा बेला का वात्सल्य छलक रहा था|’

कंकन दीप जला कर देवाभिषेक के लिए ताम्रकलाश लेकर नदी तट पर जल लाने के लिए जाती है| संध्याकाल का समय और फाल्गुन का यौवन! ऐसे में मन में कविता न आये ऐसा हो नहीं सकता सो लेखक ने १६ वर्षीया कुमारिका के माध्यम से एक सुंदर कविता लिखी है जो प्रकृति, यौवन और संध्याकाल का चित्रण कर रही है :

‘ कलश मांजते –मांजते वह गुनगुनाने लगी –

आज रूप की डाल बोर से ऐसी महकी है |

गंध-गर्विता मल्यालीन भी बहकी-बहकी है || .....

साहित्य में गद्य और पद्य की अपनी अपनी शैलियाँ हैं| दोनों में ही भाषा-शैली और प्रवाह का होना जरुरी होता है| यहाँ लेखक ने कविता लिख कर प्रकृति को और सुंदर बना दिया है और छंद-बद्ध रचना लिख कर यह दर्शाने का सफल प्रयास किया है कि उस काल में साहित्यिक भाषा विकसित थी और उसका उपयोग कुशलता से किया जाता था|

अपने में मगन हो कंकन इतनी खो गयी कि उसको यह एहसास ही न हुआ कि वह नदी में उतर गयी है और मकर ने उसके पैर को दबोच लिया है| जब दर्द होता है तब अपनी तुन्द्रा से बाहर आती है और मदद की गुहार लगाती है|

जंगल में मदद करने वाला कौन होता है? शायद कोई नहीं कोई भला भुटका राहगीर ही आये तो अलग बात है| पर यहाँ लेखक ने अपना कौशल दिखाया है और एक व्यक्ति जो सांध्य-निवृति कर अपने गुरु के पास जा रहा था, वह किसी नारी की दर्दभरी चीख सुनकर नदी तट पर जाता है और वहां इस कुमारिका को मकर के बंध में जकड़ा देख उसकी मदद करता है और मकर को मारकर उस कुमारिका को मुक्त करवाता है|

फिर वह सोच में पड़ जाता है कि आगे क्या करना है, इस बीच उसके गुरु आ जाते हैं और वह उस कुमारिका को पहचान लेते हैं और उस शिष्य से कहते हैं यह तो सन्यासिनी ग्रिजावन की बेटी कंकन हैं|

वह उसे अपने आश्रम में ले जाने को कहते हैं| कुछ देर बाद  कंकन को होश आता है तो वह

उस बचाने वाले युवक का परिचय देते हैं, “ यह राजकुमार कीर्तिराज है, सिंहपानीय के कच्छपघात नरेश मंगलराज का युवराज|”

यहाँ से कथा के मोड़ लेती है और प्रेमपथ पर चल पड़ती है| लेखक ने लिखा है ‘ कंकन ने पलके उठाकर युवक को देखा| बीस-इक्कीस वर्ष की पुष्ट और सुगठित देह,भव्य मुखाकृति,ऊँचा मस्तक, गौर वर्ण, ओठों पर रोम-राजी सघन श्मश्रु बनने के लिए व्याकुल, आँखों में नील गम्भीर  स्निग्घता| कंकन उसकी ओर क्षण भर देखती रही|

यह एक स्वाभाविक भाव होता है जब किसी कुमारिका के मन में प्रेम पल्लवित होता है|

वहीँ दूसरी ओर लेखक ने लिखा है ‘ गीले वस्त्रों में लिपटी देह-यष्टि इतनी सुडौल और सानुपात, जैसे विधाता ने अपना सारा शिल्प उसे गढ़ने संवारने में प्रयुक्त कर डाला हो|.....

दोनों की आँखें चार होती हैं और दोनों ही प्रेमबंधन में बंध जाते हैं| आचार्य ह्रदयशिव को लगा जैसे इश्वर ने उनकी इच्छा जान ली थी और इनदोनों को मिलवा दिया था|

सिंहपानीय अपने समय का सुदृढ़, सुगठित राज्य था| इसके कच्छपघात राजा वृज्दमन ने गोपाचल( ग्वालियर) दुर्ग पर आधिपत्य करके सिंहपानीय का राज्य समूचे मध्यक्षेत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली बना दिया गया था|

इस दौरान वृज्दमन के पुत्र राजा मंगलराज सिंहपानीय की गद्दी पर थे| उसकी रानी लक्ष्मणा देवी, चंदेल राजा की कन्या थी|

इस दौरान की राजनीती के एक परंपरा थी, कि दो राज्यों के बीच संधि करने हेतु एक वंश की बेटी को दुसरे वंश में विवाह करवा दिया जाता था, जिससे एक राजा का अधिपत्य का विस्तार हो जाता था|

राजा मंगलराज अरणिपद्र के प्रधान धर्माचार्य ह्रदयशिव के शिष्य थे| राजा ने आचार्य को गुरुदाक्षिणा के रूप में एक विशाल शिव मंदिर उनकी तपस्या के लिए सिंहपानीय में निर्मित कराने का संकल्प लिया था|

इससे यह पता चल रहा है कि इस काल में गुरु-शिष्य परम्परा मुखरता पर थी| और शिल्पकला को बढ़ावा दिया जाता था|

लेखक ने अपनी पृष्ठ-भूमि में पहले ही लिखा है कि इस दौरान शैव, और जैन तीर्थांकर की उपासना होती थी| उन्होंने आगे लिखा है; ‘ सिंहपानीय के अतिरिक्त दो और शाखाये थीं, एक की राजधानी डोम थी, और दूसरी शाखा शिवपुरी के नरवरगढ़ क्षेत्र में स्थापित हुई| इनके वंशज आज तक पाडौन नामक छोटे से ग्राम में रहते हैं|

इसको लिख कर लेखक ने अपनी कथा में वर्णित राज्यों की असल में भी होने की पुष्टि दी है|

इन  सब के बीच भातृभाव | उन दिनों डोम में अर्जुनदेव कच्छपघात गद्दी पर था| वह मालव-युवराज भोज का सहपाठी था|

इस कथा के अन्य पात्र कदम्बिका देवी, उनकी पुत्री चारुलता, सिंहपानीय राज्य की राज नर्तकी, नीलकंठ, एक ब्राह्मण पुत्र, जो इसी राज्य का राज-कवि|

आश्रम में जब आचार्य को कीर्तिराज और कंकन के प्रेमबंधन का पता चलता है, वे कंकन की माँ, सन्यासिनी गिरिव्रजा से बात करके दोनों के विवाह का वचन देते हैं| इस बीच आचार्य को पता चलता है कि मंगलराज ने अपने बेटे का विवाह मालव राजकुमारी सुदेशणा के साथ तय कर दिया है| यह प्रस्ताव परमार तथा कच्छपघात क्षत्रियों के बीच सम्बन्ध प्रचलित करने के लिए तय किया गया था| यह प्रस्ताव मालव युवराज भोज द्वारा प्रस्तावित था| युवराज भोज दूरदर्शी थे, उन्होंने भांप लिया था की यवन आक्रांता गजनवी से तभी लड़ा जा सकता था जब  क्षत्रिय समाज में एकता हो|

यहाँ लेखक के द्वारा जो वर्णन किया गया है उससे साफ़ पता चलता है कि महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी, और उनका इस्तमाल राज्यों की एकता के लिए किया जाता था|

इस दौरान सिंहपानीय में मदनोत्सव का आयोजन हो रहा था, जब सब राजा एकत्रित हुए थे| इस आयोजन में समाज के हर वर्ण के लोग इसको देखने आये थे|  

यहाँ लेखक ने बतलाया है कि प्रजा में भेद-भाव नहीं था| वे आनंद-उत्सव मिलकर मनाते थे| यही एक राज्य की संस्कृति और समृद्धि का प्रतिक था|

वहीँ दूसरी ओर नीलकंठ, जिसको राज कवि का दर्जा मिला था, वह वहां की राज नर्तकी के घर आश्रय लेता है और उनकी बेटी चारुलता के प्रेम में बंध जाता है| विवाह के लिए जब वह अपने माता-पिता से आज्ञा लेने हेतु जब अपने ग्राम जाता है, वहाँ उसके प्रेम के चर्चे पहले ही पहुँच चुके होते है और साथ ही यह खबर भी वह राज कवि है| जब वह अपने विवाह का प्रस्ताव रखता है तब उसकी जाती के लोग पहले तो विद्रोह करते हैं पर फिर उसकी पदवी को देख कर वे सभी अपनी स्वीकृति दे देते हैं|

यहाँ लेखक ने यह दर्शाया है कि उस दौरान भी सभ्रांत और धनाढ्य लोगों का अपना वर्चस्व था|

नीलकंठ और कीर्तिराज दोनोंमें प्रगाढ़ मित्रता हो गयी थी| नीलकंठ को आचार्य, कीर्तिराज और कंकन के रिश्ते की जानकारी मालावराज तक पहुँचाने को कहते हैं और यहाँ वह कीर्तिराज को एक शिवमंदिर का निर्माण करने को कहते हैं|

आचार्य के मन में एक भय भी है , इस सब के बीच कहीं आक्रान्ता का आक्रमण न हो जाये | पर शिवमंदिर के मंदिर के निर्माण में उनके दो उद्देश्य छुपे थे, एक तो मलावराज की राजकुमारी से कीर्तिराज का विवाह टल जाये, दूसरा वह इस बीच आक्रान्ता से लड़ने की कोई रणनीती बना लें और तीसरी उनको ये लग रहा था, मालावराज अगर कंकन को दत्तक पुत्री का दर्जा देते है, तो क्षत्रियों के बीच गाढ़ एकता हो जाएगी और पुरे देश में मध्यप्रदेश की मिसाल दी जायेगी|

आचार्य के दूरदर्शिता का परिचय यहाँ लेखक ने अपने अध्ययन शीलता का उदहारण दिया दिया|

आचार्य क्योंकि राज गुरु भी थे, राज के हित में सोचना उनका कर्त्तव्य था, और आचार्य ह्रदयशिव अपने दायित्व को निभाने में कहीं भी चूकना नहीं चाहते थे|

मालावराज को जब कंकन के बारे में पता चलता है, तो वह खुद को अपमानित महसूस करते हैं और सैनिकों को उसको तलाश कर मारने की आज्ञा दे देते हैं| जब सन्यासिनी गिरिव्रजना को इस बात का पता चलता है, तब वह अपनी बेटी को लेकर घने वन की ओर पलायन कर लेती हैं , जहाँ उनकी भेंट अपने पति के पितामाह दुर्गसेन के नायकत्व में कच्छपघात नरेश वृजदमन के गोपाचल दुर्ग अभियान में भाग लेने वाले नरसिंह से होती हैं| सन्यासिनी के पति की मृत्यु इन्ही के जांग पर सर रख कर हुई थी, वे इतने आहत हुए कि इस युद्ध के बाद वे जंगल में ही बस गए और पशु-पालन करने लगे|

इस बीच मालव राज सिंहपियानी पर आक्रमण करते हैं, नरसिंह को जब कंकन के विवाह प्रस्ताव के बारे में पता चलता है तो वे कीर्तिराज का साथ देते हैं, कंकन भी जिद्द करके पुरुष सैनिक का वेश धारण करके युद्ध में उतर जाती है और मालव राज को धराशाही कर देती है| सिंहपानीय के सैनिक इस योद्धा पर मुग्ध हो जाते है पर कोई समझ नहीं पाता यह योद्धा आखिर कौन है? दूसरी तरफ गज़नवी को पता चलता है की गोपाचल दुर्ग पर सैनिक बल नहीं है तो वह उसको जितने की मंशा से उसपर कूच करता है पर कीर्तिराज उसको खदेड़ने में सफल हो जाता है| इस युद्ध में भी कंकन उसका साथ देती है और वह एक दुसरे को पहचान लेटे हैं|

जीत के बाद आचार्य यह खुशखबरी देते हैं कि मालवराज भोज कंकन को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर चुके हैं और अब कीर्तिराज और कंकन के विवाह में कोई भी बाधा नहीं है| अब तक तो शिव मन्दिर भी तैयार हो चुका था जिसमे कीर्तिराज के निर्देशनुसार कंकन के विविध भाव को मूर्ति का अकार दिया गया था और सम्पूर्ण मंदिर ऐसी मूर्तियों से सजाया गया था| कंकन और कीर्तिराज मंदिर में नित्य देव आराधना करते हैं और दोनों का विवाह संपन्न हो जाता है|

इस उपन्यास का कथानक क्योंकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित है, लेखक ने पूरा प्रयास किया है कि वह इन तथ्यों की प्रमाणिकता भी इंगित करता जाए, इसमें लेखन पुर्णतः सफल हुए हैं|

उपन्यास की भाषा शैली और शब्दों का चयन बड़ी ही सुघड़ता से चयनित किए गए हैं जिससे उपन्यास पाठक मन को बाँधने में कामयाब होती प्रतीत होती है| बीच-बीच में लेखक ने छंदमयी कविता को लिख कर चार चाँद लगा दिए हैं|

उपन्यास का मुख्यपृष्ठ लाल रंग का है जिसपर कंकनमठ की तस्वीर बनी हुई है जो बहुत ही आकर्षित बन पड़ी है, पीछे के पृष्ठ पर लेखक का परिचय छपा है|

इस उपन्यास को पढ़ते वक़्त कहीं कहीं प्रूफ-रीडिंग की गलतियाँ आँखों में खटक रही है जैसे भेंट को भेट , कंकन के लिए कहीं कहीं कंकण, कंक, इनके अलावा और भी कुछ शब्दों में गलतियाँ हुई हैं |

पर इन सब के बावजूद इस उपन्यास के द्वारा जो लेखक कहना चाहते हैं उसमे वे काफी हद तक सफल हुए है| मुझे यह उपन्यास पसंद आया है|

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 

 

 

 

 

 

Views: 954

Replies to This Discussion

पुस्तक को बहुत बारिकी से पढते हुए समीक्षा लिखी हैं. पुस्तक पढने का मन हो आया. बहुत बहुत बधाई

आप सभी पाठकों को सादर धन्यवाद|

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया... सादर।"
2 hours ago
Tilak Raj Kapoor replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय समर साहब,  इस बात को आप से अच्छा और कौन समझ सकता है कि ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसकी…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा
"वाह, हर शेर क्या ही कमाल का कथ्य शाब्दिक कर रहा है, आदरणीय नीलेश भाई. ंअतले ने ही मन मोह…"
9 hours ago
Sushil Sarna posted blog posts
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . लक्ष्य
"कैसे क्यों को  छोड़  कर, करते रहो  प्रयास ।  .. क्या-क्यों-कैसे सोच कर, यदि हो…"
10 hours ago
Ashok Kumar Raktale commented on Ashok Kumar Raktale's blog post मनहरण घनाक्षरी
"  आदरणीय गिरिराज जी सादर, प्रस्तुत छंद की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर "
11 hours ago
Ashok Kumar Raktale commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"  आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, वाह ! उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.…"
11 hours ago
Ashok Kumar Raktale commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विविध
"  आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, सभी दोहे सुन्दर रचे हैं आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर "
11 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . उल्फत
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का दिल से आभार"
12 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा
"आदरणीय नीलेश भाई , खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई आपको "
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय बाग़पतवी भाई , बेहतरीन ग़ज़ल कही , हर एक शेर के लिए बधाई स्वीकार करें "
16 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम -. . . . . शाश्वत सत्य
"आदरणीय शिज्जू शकूर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । आपके द्वारा  इंगित…"
19 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service