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सकारात्मक एवं स्पष्ट वैचारिकता निस्संदेह परिष्कृत अनुभवों की समानुपाती हुआ करती है. इसी क्रम में कहें तो किसी व्यक्ति की सोद्येश्य तार्किकता उसकी कुल अर्जित समझ की नींव पर खड़ी उस सुदृढ़ दीवार की तरह हुआ करती है, जिसके सहारे ही उसकी समस्त भावदशा का आच्छादन तना होता है. यही बात किसी विधा विशेष की रचनाओं के संदर्भ में कही जाय, तो जीवन-यात्रा के दौरान अर्जित विविध एवं विशद अनुभव तथा आवश्यक अध्ययन के मेल से प्रस्तुत हुई तार्किक शाब्दिकता विस्मयकारी परिणाम दिया करती है. ऐसा कहने के मेरे पास ठोस कारण हैं. तात्पर्य इसलिए भी स्पष्ट है, कि, मेरे हाथों में जगदीश पंकज का काव्य-संग्रह ’सुनो मुझे भी’ है, जो कवि का पहला काव्य-संग्रह है. परन्तु सम्मिलित नवगीतों के तथ्य, कथ्य, विन्यास एवं इनकी संप्रेषणीयता में प्रथम प्रयास के हिसाब से अपेक्षित अनगढ़पन कहीं नहीं दिखता. इस हेतु मैं जगदीश पंकज के गहन अध्ययन से अधिक उनके रचनाकार के दायित्वबोध को अधिक महती एवं प्रभावी मानता हूँ. रचनाकारों का दायित्व न केवल अपनी रचनाओं के काव्यगत निखार और उनकी संप्रेषणीयता के प्रति होना चाहिये, बल्कि वे इस तथ्य के प्रति भी निर्द्वंद्व हों कि आमजन ही उनके कहे का लक्ष्य है. वही उनकी काव्य-प्रस्तुतियों का पाठक-श्रोता है. नवगीतकार जगदीश पंकज के कथ्य में आमजन की सोच इतनी सान्द्र है, कि सुहृद पाठक संग्रह में संकलित नवगीतों से निर्पेक्ष रह ही नहीं सकता.

 

जगदीश पंकज के रचनाकार का स्वयं को सुनने के लिए पाठकों को प्रेरित करना उनके नैसर्गिक गुण की तरह सामने आता है, जिसमें कर्ता का अहं तो है ही नहीं, रचनाकारों द्वारा अक्सर ठान लिया गया भावुक हठ भी नहीं है. यदि कुछ है, तो आत्मीय किन्तु प्रखर निवेदन की उच्च आवृति है. इन नवगीतों में आक्रोश, विफलता, अवसाद, हताशा, उदासी आदि के स्वर हैं भी, तो कारण कोई वैयक्तिक विफलता नहीं है. बल्कि, कारण व्यवस्था और प्रशासन की क्रूर असंवेदनशीलता है, जिसके कारण एक आमजन अभावों में पिसता हुआ भी प्रतिदिन लड़ने-भिड़ने को बाध्य है. इसी कारण जगदीश पंकज के नवगीतों में वायवीय भावोद्गार नहीं मिलेंगे. प्रणय-निवेदन की ओट में लिजलिजी भावुकता को नवगीतों ने यों भी कभी प्रश्रय नहीं दिया. संग्रह की प्रस्तुतियों के माध्यम से कई तीखे प्रश्न उभरे हैं. ये केवल दैनिक जीवन की विसंगतियों के गर्भ से जन्मे प्रश्न नहीं हैं, बल्कि पीढ़ियों से शोषित-पीड़ित की सतत सजग हो रही चेतना से जन्मे प्रश्न हैं. समाज और व्यवस्था का दोहरा मानदण्ड इस वर्ग को सदा से व्यथित, और विस्मित भी, करता रहा है.  कह रहा हूँ चीखकर / वह टीस जो अब तक / सुनी मैंने / निरंतर चेतना की / अनसुने फिर भी रहे हैं / शब्द जिनसे / व्यक्त होती वेदनाएँ / यातना की / ... / कब सुनोगे / क्या मिलाऊँ क्रोध को / अपने रुदन में ?  इसी क्रम में इन पंक्तियों को देखना समीचीन होगा - कब तलक निरपेक्षता के नाम पर / हर गहन प्रतिवाद से बचते रहोगे / जा रहा बढ़ता घना भाषा-प्रदूषण / अब असहमति को भला कैसे कहोगे ? / तोड़ कर चिंतन की कसौटी / दीजिये अनुभूति को स्वर-चेतना

 

ठीक दूसरी ओर इस काव्य-संग्रह के हवाले से यह भी स्पष्ट दिखता है, कि तीखे प्रश्न उछाल कर अपनी उपस्थिति जताना कवि का हेतु नहीं है. या, उसके आग्नेय शब्दों में व्यवस्थावादियों और शासक समाज के विरुद्ध अधीर, निरंकुश या स्वच्छंद आक्रोश भर नहीं है. बल्कि, कवि समाधान के लिए भी उतना ही आग्रही है. अपने वैचारिक सूत्रों के आधार पर वह सार्थक इशारे करता है. साथ ही, उसके आक्रोश में दलित-शोषित समाज की निरुपाय निर्लिप्तता के प्रति विरोध भी है. जगदीश पंकज जी सबको साथ बटोर कर एक सुर में कहते दिखते हैं - चीख कर ऊँचे स्वरों में / कह रहा हूँ / क्या मेरी आवाज़ / तुम तक रही है ?.. या फिर,  है समय, अब भी विचारें / क्षितिज के विस्तार को / अब समय के साथ बदलें / हम पुरातन भंगिमा !  

तो साथ ही, यह भी कि - मेरे अपने तथाकथित वे / अग्रज-अनुज / सभी दोषी हैं / जिनके स्नेह और आदर ने / ये अभिलाषाएँ पोषी हैं / ... / मौलिकता का दंभ जी रहे / केवल अनुकृतियाँ करने में / जिसको हम अपना कहते, वो / पुरखों से सायास लिया है !

 

जगदीश पंकज के पास विकसित सूचना-तंत्र का सहज उपलब्ध अवलम्ब मात्र नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभवों से समृद्ध उनका चित्त अधिक प्रभावी है. तभी गहन अनुभूतियाँ शाब्दिक होकर पीढ़ियों की सुषुप्तावस्था को उद्वेलित करने की क्षमता रखती हैं. जगदीश पंकज सड़ी-गली असक्षम व्यवस्था को लानत ही नहीं भेजते, इस व्यवस्था पर आमजन को प्रतिष्ठित भी करते हैं. यही तो साहित्य का सदा से लक्ष्य भी रहा है - यह दौड़ रोक, ठहरो / अब तो उसे बचाओ / बूढ़ी कहावतों में / जो आदमी बचा है !  इन्हीं संदर्भों में आमजन की निरुपाय स्थिति को सापेक्ष करती इन पंक्तियाँ को देखें - फिर नये नारे उछाले जायेंगे / फिर छलावा हवा में लहरायेगा / आदमी को केन्द्र में लाकर, नया / फिर कोई षडयंत्र अब गहरायेगा / फिर अनर्गल बातचीतों से निकल / कोण अपनी दृष्टि के टकरायेंगे

 

आमजन को हर हालत में खड़ा होने को उत्प्रेरित करना और पारिस्थिक जड़ता के विरोध में आमजन को जूझने का दम देना, आवाज़ उठाने के लिए संकल्प हेतु तैयार करना, सामाजिक विसंगतियों की तमस के विरुद्ध आमजन को झकझोर पाने का साहस भरना नवगीतों की सैद्धांतिक और वैधानिक विशेषता है. इसके साथ ही, भावाभिव्यक्तियों में गीति तत्त्व को बनाये रखने के लिए वातावरण को बचाये रखना नवगीतों का दायित्व भी है. जगदीश पंकज इन दोनों विन्दुओं को सम्यक साधना के साथ थामे दिखते हैं. इस साधना में प्रदर्शनप्रियता का उथलापन नहीं है, न ही आमजन को स्थूलतः तुष्ट करने के क्रम में दलित-व्यथित-पीड़ित जीवन के प्रति ध्यानाकर्षण हेतु अनावश्यक चीख-पुकार है. यदि है, तो संयत एवं सचेत प्रतिकार, जिसे यों शब्दबद्ध किया गया है - किसी के चाहने पर / कुछ करूँ स्वीकार मैं कैसे / इसी से मौन हूँ / यह मौन है / इन्कार की चुप्पी / ... / हज़ारों वर्ष के इतिहास को / जब पीठ पर लादे / घृणा के बोझ से / दबती रही है चेतना मेरी / कहो, तब गर्व से / कैसे कहूँ यह धर्म है मेरा / लिखी जब धर्मग्रंथों में / नहीं है वेदना मेरी / .. / हवा की हर दिशा के साथ / मैं कैसे बहूँ, बोलो / इसी से मौन हूँ / यह मौन है / प्रतिकार की चुप्पी !   कवि के मौन प्रतिकार का अर्थ उसकी विवशता कत्तई नहीं है, वस्तुतः यह व्यवस्थाजन्य ढोंग के विरुद्ध उसकी निस्पृह क्रोध है - इन दिनों कितना कठिन है / होंठ का हिलना / और चौराहे-सड़क पर / मुक्त हो मिलना / ... / चाहते हैं वे / कि हम हर बात में नाटक करें !

 

नवगीत अपने व्यवहार में आमजन की समस्याओं को ही उजागर नहीं करते, समस्याओं के समाधान के प्रति भरोसा भी दिलाते हैं. यही वे विन्दु हैं, जो नवगीतों की स्वीकार्यता को नयी कविताओं के समानान्तर बड़ा कर देते हैं - अब उन्माद की / संदर्भ कोई भेंट चढ़ जाये / चलो, हर ओर अब सौहार्द्र की / फसलें उगाने की / ... / कभी संसाधनों के / क्रूर दोहन ने सताया है / उजाडी बस्तियों को / देश की उन्नति बताया है / ... / जिसे तुम आम कहते हो / कभी वह खास भी होगा / इसी विश्वास से उठ कर / चलें दुनिया सजाने को

 

नवगीत का वैधानिक प्रारूप अवश्य ही सामाजिक तौर पर स्वप्न में जीती मनोदशाओं के मोहभंग का काव्य-परावर्तन है. इसी कारण, गीति-काव्य को नवगीत ने नये आयाम दिये हैं. इनमें सरस यथार्थबोध की अभिव्यक्ति प्रमुख है. जगदीश पंकज के नवगीत इस पक्ष को संपुष्ट करते मुखर उदाहरण की तरह सामने आये हैं. गाँवों में असमान प्रगति का परिणाम सामाजिक टूट ही हो सकती है. इस टूट के कारण शहर झुग्गियों-बस्तियों के जमावड़े होते चले गये हैं - सड़क किनारे / बैठ नीम की छाया में / कच्ची कैरी बेच रही है रामकली..   ऐसे में गाँव के विस्थापितों के लिए डरने का एक और महती कारण भी बना है. देखिये - आज भूखे पेट ही / सोना पड़ेगा / शहर में दंगा हुआ है / ... / एक नत्थू दूसरा यामीन है / आँख दोनो की / मगर ग़मग़ीन है / बिन मजूरी / दर्द को ढोना पड़ेगा / शहर में दंगा हुआ है !  इन हालात में उपजे भय और असह्य वेदना को भुक्तभोगी ही समझ सकता है. कवि की संवेदना यथार्थ की अभिव्यक्ति हेतु सचेत है. यह काव्य-संग्रह नवगीत विधा के स्वीकार्य स्वरूप का पक्षधर है. लगभग साठ वर्षों में नवगीत कई दशाएँ एवं आसन बदलता हुआ अपने होने के वर्तमान स्वरूप में सहज हुआ है, जहाँ शिल्पगत क्लिष्टता का आतंक नहीं है; अभिव्यंजनाओं में अन्यथा कलाबाजी नहीं है; संप्रेषण को सटीक करने के क्रम में शाब्दिक व्यायाम नहीं है ! तभी तो संग्रह के नवगीतों में गेयता से किसी प्रकार का समझौता नहीं हुआ है. भाषा अवश्य देसज-शब्द समर्थित न हो कर तत्सम-शब्द समर्थित है. यह बहुसंख्य नवगीतकारों की धारा से जगदीश पंकज जी को अवश्य तनिक अलग बिठाती है. लेकिन यह भी सही है कि जगदीश पंकज जी की भाषा में खड़ी बोली का कर्कश स्वर भी नहीं है. शब्दों के चयन में अपनाया गया सुगढ़पन समुचित आरोह-अवरोह को साध सकने में, कहना न होगा, सक्षम रहा है. इस कारण पंक्तियों में शब्दों की मात्रिकता उभर कर सामने आयी है जो लयता को प्रवहमान स्वरूप देती है.

 

किसी कवि का पहला काव्य-संग्रह कई अपेक्षाओं का भार वहन करता हुआ आता है. सही भी है. किन्तु प्रस्तुत काव्य-संग्रह का प्रकाशन हिन्दी पद्य-साहित्य के लिए अत्यंत आश्वस्तिकारी है. इस हिसाब से जगदीश पंकज अपने प्रथम प्रयास में ही स्वयं के प्रति पाठकों की अपेक्षाओं को घनीभूत कर चुके हैं. नवगीत विधा के परिवेश में प्रस्तुत काव्य-संग्रह पुष्पित पादप की तरह अपनी उपस्थिति बना सका है, यह कहने में मुझे कहीं अतिशयोक्ति नहीं दिखती. वस्तुतः काव्य-संग्रह ’सुनो मुझे भी’ जिस उद्येश्य के साथ प्रस्तुत हुआ है, उस उद्येश्य में सफल है. काव्य-संग्रह को गीत-मनीषी आदरणीय श्री देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ का आशीर्वाद तो प्राप्त हुआ ही है, अन्य दो भूमिकाओं में श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा तथा श्री पंकज परिमल के मंतव्य भी सम्मिलित हुए हैं.

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काव्य-संग्रह : सुनो मुझे भी

कवि : जगदीश पंकज

पता : सोम सदन, 5/41, राजेन्द्र नगर, सेक्टर - 2, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद - 201005.

संपर्क संख्या : 8860446774

ई-मेल – jpjend@yahoo.co.in

संस्करण : पेपरबैक

मूल्य : रु. 120/

प्रकाशन : निहितार्थ प्रकाशन, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद (उप्र)

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Replies to This Discussion

आ० सौरभ जी

आलोचना का आरम्भ ही ऐसा हुआ है मानो समीक्षक कोई परिभाषा गढ़ रहा हो -

सकारात्मक एवं स्पष्ट वैचारिकता निस्संदेह परिष्कृत अनुभवों की समानुपाती हुआ करती है. इसी क्रम में कहें तो किसी व्यक्ति की सोद्येश्य तार्किकता उसकी कुल अर्जित समझ की नींव पर खड़ी उस सुदृढ़ दीवार की तरह हुआ करती है, जिसके सहारे ही उसकी समस्त भावदशा का आच्छादन तना होता है.

       कवि जगदीश पंकज का भले ही यह पहला संग्रह हो पर वे किसी परिचय के मोह्ताज् नहीं है बल्कि नव्  गीतों के वे सशक्त हस्ताक्षर है  i आपने नव गीत की चर्चा में कवि के काव्य वैभव का निदर्शन तो किया ही है  साथ ही आपने  नवगीत को परिभाषित  भी  किया है -

नवगीत का वैधानिक प्रारूप अवश्य ही सामाजिक तौर पर स्वप्न में जीती मनोदशाओं के मोहभंग का काव्य-परावर्तन है. इसी कारण, गीति-काव्य को नवगीत ने नये आयाम दिये हैं. इनमें सरस यथार्थबोध की अभिव्यक्ति प्रमुख है

       समीक्षा की जो एक विराट दृष्टि होती है जो रचना से परे विधा के सम्यक बोध को समेटती हई चलती है, उसका  साक्षात्  इस समालोचना में हुआ है i  सादर .

समीक्षा को उदारता से अनुमोदित करने केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायनजी.
सादर

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