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खुलते परों के सामने का आकाश - गुलाब सिंह

परों को खोलते हुए’ हिन्दी के पन्द्रह कवियों का महत्वपूर्ण समवेत संकलन है. छन्द मुक्त काव्य में लयात्मक प्रवाह के साथ सघन वैचारिकता को  ’सार्थक वक्तव्य’ के  धरातल से रसात्मकता की ओर ले जाने पर उसकी पठनीयता और ग्राह्यता बढ़ जाती है. संकलित रचनाओं में इस वैशिष्ट्य को प्रायः हर रचना में देखा जा सकता है. गम्भीर अध्येता सुकवि श्री सौरभ पाण्डेय जी ने इन कविताओं के चयन और सम्पादन करने में जो श्रम किया है, उसकी सार्थकता पाठक को पूरी तरह आश्वस्त करेगी. समय के साथ बदलती प्रवृतियों की लय को आत्मसात कर कविता जीवन-राग निर्मित करती है. जीवन के साथ कविता का यह जुडा़व ही पाठकीय अनुराग का आधार होता है.

अपने आकाश में अपनी उडा़न का संकल्प पंख खोलने पर ’सारे आकाश’ के परिदृश्य से जोड़ता है. बेशक इसने रचनाकारों के आज के बहुआयामी जीवन के विविध पक्षों को विषयवस्तु के रूप में चुन कर उन्हें अपने रचनात्मक कौशल से प्रभावी अभिव्यक्ति दी है. परों को खोलने के पहले परों को तोलना भी पड़ता है, कहना होगा कि इसका अभिज्ञान भी इन्हें है. मनुष्य गिरने के लिये नहीं, उठने के लिये बना है इसलिये आज हिंसा, लूट, टकराव, मूल्य और चरित्र-क्षरण का जो दौर दिखायी पड़ रहा है, वह बदलेगा, इस संकलन के हर कवि में यह सकारात्मक चेतना स्पष्ट दिखाई पड़ती है. जीवन के प्रति आस्था की यह डोर ही एक मूल्यवान सम्बन्ध है.

संपादक ने हर कवि की रचनाओं के लिये जो संक्षिप्त किन्तु सूत्रवत प्रवेशिका दी है वह कवि के सर्जनात्मक निजत्व का परिचय है, जो रचना और पाठक के बीच कोई हस्तक्षेप न हो कर एक तटस्थ संकेत देता है.

भाषा, शिल्प, कथ्य और प्रस्तुति की विविधता का ध्यान रखते हुये संपादक ने चुनी हुई रचनाओं में संप्रषणीयता को तरजीह दी है. प्रयोग और अद्वितीयता के फेर में कविताओं में की गयी कारीगरी ने जो पाठकीय उदासी पैदा की थी उसे समाप्त करने के लिये संप्रेषण को महत्व देना आवश्यक हो गया है, क्योंकि चुनौती सरल को क्लिष्ट बनाने की नहीं क्लिष्ट को सहज करने की है. सहजता सिद्धि का परिचायक है. कवि अपने समय का पारखी होता है, उसके साथ चलता है और उससे आगे भी झांकने की चेष्टा करता है.

कवि अरुण कुमार निगम आज की सुप्त संवेदना को करुणा भरी आत्मीय अंगुलियों से छुते हुए उकसाते हैं. अपने एक शब्द चितेरे द्वारा- ’बीन बीन कर घूरे और कूडॆ़ -करकट से/ कुछ टुकडे़ रंगों के ढोकर कांधे पर/ उसका बचपन चला सजाने जीवन.’ ऎसे दृश्यों पर उसी कवि की दृष्टि पड़ती है, जिसके हृदय में मानवीय प्रेम का तरल स्पर्श है. ’मन की छुअन’ कविता में वे कहते हैं-- ’भावनाओं की आंधियां अब थम चलीं/ मर्म-सिन्धु में छिपी एक सीप को/ छू लिया तुमने सहज/ बंद पलकें खुल उठीं/........वाह! कितनी शीतल है  मन की छुअन.

इसी तरह परम्परा और लीक से हटकर वैचारिक ताप से दीप्त भाषा प्रेम को केवल शब्द नहीं अर्थ भी देती है जब अरूण श्री कहते हैं-- प्रेम नहीं कहलाता/ कठोरता और लिजलिजेपन के बीच का अन्तराल/ प्रेम वो है--जो दिख रहा है/ अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत.’

आज के बिखरते हुए जीवन में सब से अधिक रिश्ते ही टूटे हैं. रंगीन और बदरंग चेहरों की भीड़ के बीच आत्मीयता की खोज कितनी कठिन हो गई है-- ’अंधेरी सुरंग में अब रिश्तों की डोर के सिरे खोजना/ टूट गये इन्द्रधनुष/ बिखरे शीशों में अब भी चमकते थे भुतेरे चेहरे/ लेकिन कोई अपना नहीं / ’  लेकिन निर्सम्बन्धों के इस अंधेरे से निकल कर प्रकाश की तलाश में बढ़ना ही जीवन है-- ’दिन के उजाले में/ किस सूरज के गुमान में/ कण कण का तिरस्कार कर रहे हो?/ कुछ ही देर में/ होने वाला है अंधेरा.......बढे़ चलो! धाए हुये सवेरा’--कुन्ती मुखर्जी.

आज की सामाजिक विद्रुपताओं के साथ अव्यवस्था का तांडव कितना पीडा़दायक है ! केवल प्रसाद सत्यम की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-- ’पुलिस प्रसाशन कानून सब/ हो जाते हैं पंगु और लाचार/ और तब पूरा कुनबा/ हो जाता मन से बीमार/ यही है-- सत्ता का सार ! ’ सारी अभिव्यक्तियों के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. इसी अनकहे को कहने का प्रयत्न करता है कवि.

गीतिका वेदिका के शब्दों में-- ’जो लिख रहा/ क्या यही सत्य है?/ जो दिख रहा/ क्या यही सत्य है? नहीं/ बहुत कुछ और भी है/ अनलिखा, अनदेखा, अनजाना.’ जीवन के तमाम सच समर्थ भाषा का सम्बन्ध पा कर साकार होते है और हमारे सोच-विचार में चमक पैदा करते हैं.

तरूण कवि सज्जन धर्मेन्द्र की रचनायें इसका साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं-- शब्द एक दूसरे से जुड़ कर तलवार बनाते हैं/ विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिये....आईने के सामने आईना रखते ही/ वो घबरा कर झूठ बोलने लगता है,  एक दूसरे संदर्भ उनकी कहन का ऎसा ही तेवर-- ’सारी नदियाँ/ इस मौसम में/ तुम्हारे काले बालों से निकलती हैं/ फ़िर भी मेरी प्यास नहीं बुझती

अपनी सीमाओं से बाहर निकलने पर जो निस्सीम अनन्त विस्तार दिखाई पड़ता है उसमें आत्मसात होने की झलक पाने की चेतना एक दार्शनिक पहलू मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई से साक्षात्कार का एक अवसर भी है-- ’बोल में शब्द हूँ/ ध्वनि में निश्शब्द हूँ/ चर्चा में प्रश्न हूँ/ संवाद में उत्तर हूँ/ खोजता हर जगह मृग कस्तुरी की तरह/ वो है मेरे अन्दर फ़िर भी अन्जान हूँ/ कैसे पहचानूँ कि मैं कौन हूँ’-- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा. अथवा, काश ! टूट जाये ये दीवार/ और/ हो उन्मुक्त उड़ चलूँ मैं/ भाव पंख पसार/ आकाश के विस्तार में/ क्षितिज नापते/ स्वयं ही विस्तार हो जाने’-- डा. प्राची सिंह.

सब कुछ सहने और कुछ भी न कहने की प्रवृत्ति उस आत्महन्ता मौन तक ले जाती है जो व्यवस्था के कांइयेपन को ताकत देता है. इस निरीहता को छोड़कर आवाज उठाने और खडे़ होने की प्रेरणा भी कविता देती है. प्रतिकार से दूर रहने वाला आम आदमी अपनी सीमाओं में ही घिरा रहता है. बृजेश नीरज के शब्दों में-- ’छत को देखते/ नापता है आकाश/ कमरे की फ़र्श के सहारे/ भांपता है धारती का व्यास/ देखा है उसने ताजमहल/ और अमरीका भी/ तस्वींरो में’ 

इस यथास्थिति के खिलाफ़ बृजेश नीरज का कवि प्रेरित करता है-- ’लेकिन चीखो/ फ़िर/ पूरी ताकत लगाकर.... लगे कि जिन्दा हो.

सारे आदर्शों की बात करने वाला पुरुष प्रधान समाज आज भी नारी के प्रति ’योग्य’ दृष्टिकोण से नहीं उबर सका. यह कितना पीड़ादायक है-- आदम की भूख/ उम्र नहीं देखती/ न देखती है/ देश-धर्म-जात/ बस सूँघती है/ मादा गंध’  इसी तरह महिमा श्री अपनी दूसरी रचना ’तुम्हारा मौन’ में असंपृक्ति का चिंत्रण करती है-- ’तुम्हारा मौन/ विचलित कर देता है/ मन को/ सुनना चाहती हूँ तुम्हें/ और मुखर हो जाती हैं दीवारें, कुर्सियां, दरवाजे/ टेबल-चमचे.../ सभी तो बोलने लगते हैं सिवाय तुम्हारे’.

कवयित्री वंदना तिवारी आत्म-परमात्म शक्ति की ओर उन्मुख हो ’सद्भावे, साधुमावे च’ के रूप में कहती हैं- ’जब जिंदगी के किनारों की/ हरियाली सूख गई हो/ पसी मौन हो कर/ अपने नीडॊं में जा छिप हों/ सूरज पर ग्रहण की छाया/ गहराती ही जा रही हो......तब मेरे प्रभु/ मेरे होठों पर हँसी की/ उतनी रेखा बनाये रखना’.

’घाव समय के’ कविता में विजय निकोर ने अमिट घावों की ओर संकेत दिया है-- ’अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे/ अनगिनत घाव जो वास्तव में भरे नहीं/ समय को बहकाते रहे/ पपडी़ के पीछे थे हरे/ आये गये रिसते रहे/

इसी बेबसी की एक स्थिति को उन्होंने प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है-- ’आज मैने डाल पर देखा/ कोई उदास आँखों वाला रक्ताक्त पक्षी/ आशंकित/ झिझक रहा था लौट आने को डाल पर/ और फ़िर जा बैठा उसी डाल पर/ क्षत विक्षत हुआ जिस पर बार-बार’.

जय पराजय के वाद भी समर शेष रह जाता है क्योंकि वास्तव में हार और जीत दोनों शाश्वत सत्य नहीं हैं. सत्य तो समर ही है जो कुछ देता भी नहीं. बार बार मिटाता है और मिटने के लिये आमंत्रित करता रहता है. विन्ध्वेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ’विनय’ इसी चिर संघर्ष की पृष्ठभूमि पर कहते हैं-- ’क्या है जीवन का उद्देश्य/ कैवल्य/ मुक्ति/ स्वर्ग/ तो फ़िर जीवन क्यों?’ अर्थात जीवन जो प्रत्यक्ष और सबसे बडा़ सच है उसमें आच्छादित अपनी सत्ता को पहचान लेने की प्रतिश्रुति-- ’मैं खो चुका हूँ खुद को/ निकलना चाहता हूँ उस आप से/ जो कैद है किसी आवरण के भीतर’--

भीतर अपनी आकाक्षाओं की दुनिया है और बाहर है अनन्त ब्रह्माण्ड का विस्तार. भीतर के टिमटिमाते प्रकाश से जब संसार को प्रकाशित करनेवाले सूर्य का परम प्रकाश जुड़ जाता है तो अपनी ही सत्ता महनीय हो जाती है. शरदिन्दु मुखर्जी के शब्दों में - ’समय की धार पर/ अंधेरे का आँचल पकडे़/ मैं बैठा रहा अपनी इच्छाओं का दीप जला कर/ अडिग अचंचल/ प्राची में उगती/ स्वर्णिम छटा के मधुर स्पर्श ने/ मुझको एक नई औकात दिला दी/’ इसी भाव को वह दूसरे संदर्भ में कहते हैं-- ’यह जन्मदिन है/ स्मृतियों का पीला पतझर/ नये वसंत का आश्वासन औ’ कोमल पत्रों का मर्मर/ कौन भेजता मौन निमंत्रण/ किसका यह सस्वर संकेत

समय तो सब से मूल्यवान वही है जो हमारे साथ है जिसमें हम साँस ले रहे हैं. हमारी भविष्यदृष्टि भी इसी पर निर्भर है. ’गया वक्त फ़िर हाथ आता नहीं’ इसीलिये साथ चलते एक-एक क्षण को पूरी शिद्दत से जी लें, उससे जो पाना है पा लें. शालिनी रस्तोगी की पंक्तियाँ देखिये-- ’अतीत के अंधकार में/ तो कभी/ भविष्य के विचार में/ भरमाते हम/ खो देते हस्तगत/ वर्तमान के/ मोती अनमोल.’

उपर्युक्त विवरण में उद्धरण के रूप में कुछ बानगी ही दी जा सकी है. अधिसंख्य रचनायें उद्धरणशीलता (कोटेबिलिटि) की शक्ति रखती हैं. तमाम भीमकाय समवेत संकलनों की भीड़ में कलेवर में यह छोटा संग्रह अपनी अलग पहचान रखता है. कुछ पुराने अनुभवी कवियों के मध्य ऊर्जावान नये रचनाकार संग्रह में अपने-अपने रंग बिखेरते हैं. इस मूल्यवान संग्रह को संपादित करने के लिये बन्धुवर सौरभ पाण्डेय जी तथा इसे सुरुचिपूर्ण कलेवर में प्रस्तुत करने के लिये अंजुमन प्रकाशन और समर्पित साहित्यकार वीनस केसरी जी बधाई के पात्र हैं.

काव्य-संकलन - परों को खोलते हुए 01

सम्पादन - सौरभ पाण्डेय

प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद

मूल्य - रु. 170/

ISBN 978-81-927746-3-3

संस्करण - प्रथम, पेपर बैक, 2013


**************
--गुलाब सिंह

ग्रा. - बगहनी,

पो. - बिगहना,

जिला - इलाहाबाद (उप्र)

पिन - 212 305

मो. - 09936379937

Views: 992

Replies to This Discussion

आदरणीय गुलाब सिंहजी ने जिस मनोभाव और हार्दिक संलग्नता के साथ काव्य-संकलन ’परों को खोलते हुए -1’ की समीक्षा की है वह समस्त सहयोगी लेखकों के सकारात्मक विन्दुओं को सामने लाने का सुप्रयास बन कर सामने आया है. मेरे लिए इस शृंखला के सम्पादक के तौर पर सीख भी है. आदरणीय गुलाब सिंह जी द्वारा साहित्य के आकाश में गुजारे गये समृद्ध क्षणों और ऊँची उड़ान के अपार अनुभवों से हम सभी लेखकगण लम्बे समय तक लाभान्वित होते रहें, इसी अपेक्षा के साथ प्रस्तुत हुई समीक्षा के विन्दुओं के प्रति मैं अपना सादर अनुमोदन अभिव्यक्त करता हूँ.

शुभ-शुभ

साहित्य जगत में अपनी पूर्ण चमक के साथ जगमगाते एक सितारे, सम्माननीय गुलाब सिंह जी द्वारा 'परों को खोलते हुए' पुस्तक की समीक्षा पाना गौरवान्वित कर रहा है..साथ ही अपनी रचनाओं का उनकी नज़र से गुज़रना ही किसी उपलब्धि से कम नहीं लग रहा.

उन्होंने नव-कवियों के खुलते परों के बहुत आत्मीयता के साथ तौला है...और सभी रचनाकारों की रचनाओं के निचोड़ को विशिष्टता के साथ रचनाकारों के समक्ष रखा है... यह मेरे लिए बहुत उत्साहवर्धक है.

साथ की कविता लेखन के बारे में कही गयी उनकी बिन्दुवत बातें भी दिग्दर्शिका की तरह मैं आत्मसात कर रही हूँ... 

'परों को खोलते हुए' की इस बिन्दुवत आत्मीय समीक्षा के लिए मैं आदरणीय गुलाब सिंह जी के प्रति नत हो आभार व्यक्त करती हूँ 

सादर.

अपनी सीमाओं से बाहर निकलने पर जो निस्सीम अनन्त विस्तार दिखाई पड़ता है उसमें आत्मसात होने की झलक पाने की चेतना एक दार्शनिक पहलू मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई से साक्षात्कार का एक अवसर भी है-- ’बोल में शब्द हूँ/ ध्वनि में निश्शब्द हूँ/ चर्चा में प्रश्न हूँ/ संवाद में उत्तर हूँ/ खोजता हर जगह मृग कस्तुरी की तरह/ वो है मेरे अन्दर फ़िर भी अन्जान हूँ/ कैसे पहचानूँ कि मैं कौन हूँ’-- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

किस प्रकार आभार व्यक्त किया जाये आदरणीय संपादक श्री सौरभ गुरुदेव जी का ,प्रकाश में लाने हेतु और आदरणीय श्री गुलाब सिंह जी का प्रकाश डालने हेतु. मै नहीं जानता. रिणी हूँ आप सब का . स्नेह बनाये रखिये सादर 

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