श्रद्धेय सुधीजनो !
 "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-61 के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.  इस बार के आयोजन का शीर्षक था - ’उत्सव’. 
 पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे. 
 सादर
 सौरभ पाण्डेय
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 १. आदरणीय मिथिलेश वामनकर 
 ग़ज़ल
 ====
 दीप से सजा है घर, जिन्दगी का उत्सव है
 मन मिटा अंधेरों को, रौशनी का उत्सव है
 
 धर्म से न मजहब से, जात से न मनसब से
 हर कोई यहाँ शामिल, हर किसी का उत्सव है
 
 गम ख़ुशी बराबर से, उम्र भर लगे यारां
 भूल जा सभी बातें, ये हँसी का उत्सव है
 
 सिर्फ एक मकसद है, हर कहीं उजाला हो 
 दाग़े-दिल मिटाता ये सादगी का उत्सव है
 
 भावना से उपजी है, प्यार से बुझे केवल
 ये खुदा को पाने की, तिश्नगी का उत्सव है
 
 चाँद हो अगर पूरा, आसमां अगर रौशन
 खिलखिला पड़े आलम, चाँदनी का उत्सव है
 
 छेड़े धुन मुहब्बत तो, फ़िक्र क्या जमाने की
 राधिका तो नाचेगी, बांसुरी का उत्सव है
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 २. सौरभ पाण्डेय
 उत्सव : पाँच शब्द-चित्र 
 ===============
 १.
 घर और घर में अंतर होता है
 एक के आगे जले पटाखों का ढेर सारा कूड़ा 
 दूसरे के आगे 
 महज़ बजबजाते कचरे का ढेर होता है..
 
 २. 
 वो लोग पकवान में क्या-क्या बनाते हैं माँ ?
 क्या ढेर सारा भात होता है ? 
 और दूध भी ?
 
 ३.
 इन जलते दीयों.. बिजली की लड़ियों से बेहतर 
 अपनी ढ़िबरी है भइया.. 
 घर की रोशनी घर ही में रह जाती है !..
 
 ४.
 धूप दीप माला.. रंग-रंग के फूल.. इतने सारे फल 
 ऐसे-ऐसे नैवेद्य 
 ढेर सारी दक्षिणा.. 
 मनुआ देर तक डबर-डबर देखता रहा 
 उसे माँ याद आ रही थी.. 
 और बापू भी !
 
 ५.
 चुप हो जा.. आज नहीं रोते.. उत्सव है आज..
 मनुआ वाकई चुप हो गया 
 मगर उसे पता नहीं चल रहा था, 
 आखिर आज बदला क्या है ? 
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 ३. आदरणीय नादिर खान जी 
 ग़ज़ल
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 है दिवाली हम मनायें प्यार का उत्सव
 संग सबके खिलखिलायें हो बड़ा उत्सव
 
 मौका है दस्तूर भी है, मुस्कुरा भी दो
 ज़ख्म भर जायेंगे गर होता रहा उत्सव
 
 ज़िन्दगी है चार दिन की सब को है मालूम
 बाँट खुशियाँ गम को पी ले तब मना उत्सव 
 
 खेल हमने खूब खेला जीते हारे भी
 जब उसूलों को निभाया तब हुआ उत्सव 
 
 छोड़ दे अपने अहम को जीत ले दुनिया
 सब को लेकर साथ चल सबका मना उत्सव 
 
 उसकी आँखों का नशा ऐसा हुआ मुझपर
 हार बैठा दिल मै अपना हो गया उत्सव
 
 हर सड़क पर हर गली में पसरा है मातम
 हुक्मरानों ने शहर में जब किया उत्सव 
 
 दिल में अपने ज़ख्म लेकर आ रहे थे सब
 जश्न का माहौल था होता रहा उत्सव
 
 पूछता था हाल सबका, सबसे मिलता था
 थी नमी आखों में उसकी, नाम था उत्सव 
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 ४. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
उत्सव : दोहे
 उत्सव जीने की कला, जीवन का हर रंग।
 जिसे सीख अनुभव करे, नित मन जीव उमंग।१।
 
 नित नव ऊर्जा का करे, जीवन में संचार।
 सदियों से है जोड़ता, उत्सव मन के तार।२।
द्विगुणित होता है सदा, उत्सव में उत्साह।
 उत्सव की होती अतः, हर मानस को चाह।३।
रिश्ते नातों का जगत, बँध उत्सव की डोर।
 बल पाकर अपनत्व का, खींच रहे निज ओर।४।
झूमे मन आनंद में, छलके तन उत्साह।
 कारक उत्सव जानकर, निकले मुख से वाह।५।
राम कृष्ण नानक नबी, ईसा ज्ञानी बुद्ध।
 इनसे जुड़ उत्सव सभी, भरें भाव मन शुद्ध।६।
(संशोधित)
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 ५. आदरणीया राहिलाजी
 हाइकू 
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 मायूस मन
 निर्धनता का दंश
 कैसा उत्सव ।।
हुये उदार
 हृदय के विचार
 दिये का दान ।।
दूर हो तम
 कुटिया भी रोशन
 मना त्यौहार ।
मीठा शगुन
 सुसज्जित बदन
 चहका मन ।।
आओ मनायें
 सार्थक दीपावली
 सुदामा संग ।।
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 ६. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी 
 उत्सव 
 सावन में शिव भादो कान्हा, वर्षा ऋतु में हरियाली 
 गणेशोत्सव नवरात दशहरा, शरद पूर्णिमा दीवाली 
 
 हर उम्र वर्ग में हो उत्साह, प्रेम और सद्.भाव बढ़े  
 धन वैभव सम्मान मिले, ऐसी हो देश में दीवाली 
 
 स्वस्थ रहें. दीर्घायु बनें, परिवार सुखी सम्पन्न रहे  
 ज्योति प्रेम की जलती रहे, सौ बरस रहे खुशहाली 
 
 महावीर बुद्ध नानक जयंती, खुशहाली छठ ईद की  
 उत्सव बारों मास यहाँ, कोई दिन न जाये खाली  
 
 सब को मेरी शुभकामना, हृदय से सभी को बधाई  
 हर दिन एक त्योहार बने, हर रात लगे .दीवाली  
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 ७. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 
 उत्सव (अतुकान्त कविता)
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 कोई दिन तय नहीं
 समय, कोई भी हो
 तैयारियाँ हो पायीं हों या न हो पायीं हो
 स्थिति कैसी भी हो
 सब चलता है , स्वीकार है मुझे
 
उपस्थिति किसी की हो तो बहुत अच्छा                       (संशोधित)
 न हो तो भी पर्याप्त है
 
 विधि - विधान बेमानी है
 राग - रंग
 नाच - गाना
 वाद - विवाद
 हो तो भी स्वीकार
 न हो तो भी संतुष्ट
 
 मैं तो एक भाव हूँ
 जहाँ मैं हूँ वहाँ बाक़ी सब व्यर्थ है
 जहाँ मैं नहीं हूँ
 वहाँ सब कुछ व्यर्थ है
 
 मै किसी कारण से नहीं होता 
 अगर मै किसी के मन में हूँ तो वो खोज ही लेते हैं 
 मुझे बाहर निकालने का कोई कारण
 
 मै उत्सव हूँ
 अपने आप में मगन
 जिसके अन्दर मैं हूँ वो भी मगन
 अकेला भी , भीड़ मे भी
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 ८. आदरणीय अशोक रक्ताले जी 
 गीत (हीर: मात्रिक छंद ’६, ६, ११ आदि गुरु अंत रगण’ आधारित)
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 ढोल बजा, नाच रहा, झूम रहा गाम है,
 दीप जला, द्वार सजा, उत्सव की शाम है |
 
 भाव सभी, प्रेम सजे, आज जहाँ हो गये
 दर्द सभी, दुःख सभी, व्यर्थ वहाँ हो गये,
 ठौर-ठौर, मस्त सभी, हर्ष का मुकाम है
 दीप जला, द्वार सजा, उत्सव की शाम है |
 
 धर्म भूल, जाति भूल, लोग पास आ रहे,
 बैर भूल, द्वेष भूल, साथ सभी गा रहे,
 चैन मिले , शान्ति रहे, इतना पैगाम है
 दीप जला, द्वार सजा, उत्सव की शाम है |
 
 साथ रहें, पास रहें, सबका अरमान है
 जोड़ रहा, वक्त जिन्हें, मानें वरदान है,
 भारत भी, एक नेक, सबका ही धाम है,
 दीप जला, द्वार सजा, उत्सव की शाम है |
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 ९. आदरणीया प्रतिभा पाण्डॆय जी
 उत्सव (अतुकान्त)
 =============
 दिवाली के दीये और रंगोली के रंग
 संभाल लेती हूँ 
 कि तय है दीपोत्सव आएगा 
 अगले बरस भी 
 कुछ कमी ,कुछ नमी 
 कुछ मिला कुछ छूटा में लिपटा 
 पर आना तय है इसका
 हर साल
कुछ दीये टूट जाते हैं 
 और कुछ सीना फुलाए
 अगले बरस तक पहुँच जाते हैं
 जलने के लिए
 रंगोली के रंग भी
 खुश दिखते हैं ,चटख रहते हैं
 रंगोली भरने को
 हर साल
तुम्हारा होना भी तो था उत्सव
 मन में सहेजे दीये 
 उतर पड़ते थे आँखों में, होंठों पर 
 कभी भी 
 और रंगोली के रंग 
 कहाँ मानते थे कोई सीमा 
 पसर जाते थे गालों पर 
 बेतरतीब ,कभी भी
फिर ये सब सामन चुरा 
 तुम चल दिए 
 और मैं ठगी सी खंगालती रही 
 मन को ,कि शायद
 कहीं कुछ बचा हो
 पर हाथों में आते हैं 
 बस टूटे दीये 
 और फीके रंग
जानती हूँ तुम नहीं हो 
 लौट कर आने वाला उत्सव 
 फिर क्यों पुराने सामान को ढूँढना
 आँखों के पानी से
 आज के दीपक भिगोना
 जो जल रहे है इतने जोश से
 अगले बरस भी जलने के
 वादे के साथ
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 १०. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
 गजल
 ====
 कभी अलवार में उत्सव कभी नयनार में उत्सव
 ध्वजा हो धर्म की ऊँची रहे संसार में उत्सव /1 
हमारी रीत अद्भुत है अनौखा है चलन अपना
 मरण या जन्म कुछ भी हो मने हरिद्वार में उत्सव /2
सजन को नित्य गजरे की लगे महकार में उत्सव
 करे महसूस सजनी भी सजन मनुहार में उत्सव /3
फसल हर साल अच्छी हो मने घटधार में उत्सव
 निकट उत्सव कोई आए मने बाजार में उत्सव /4
हुनर से दूर है जो भी उदासी उसको तट पर भी
 भरोसा जो करे खुद पर उसे मझधार में उत्सव /5
दुखों को बाँट कर भर दो सभी की झोलियाँ सुख से
 सिखाते है यही बातें सदा संसार में उत्सव /6
न हों मजबूरिया इतनी पड़े परदेश में रहना
 दुआ बस मागता सबका मने परिवार में उत्सव /7
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 ११. आदरणीय तेज़वीर सिंह जी
 बदहाली – ( तुकांत कविता )
 ===================
 कौनसा, उत्सव कैसा उत्सव, कैसी दिवाली,
 घर भी खाली, जेब भी खाली, पेट भी खाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव, कैसी दिवाली!
 खेल कूद की उमर है लेकिन,
 चूल्हा फ़ूंके ,पांच साल की छोटी लाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव, कैसी दिवाली!
 बीमारी मेरे घर में, मेहमान सदा से,
 खटिया पर डेंगू से, लडती घरवाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव, कैसी दिवाली!
 सडक, चौराहे रोशनी से दमक रहे हैं,
 पैर पसारे मेरे घर में रात ये काली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव, कैसी दिवाली!
 एक दिये भर को तेल नहीं है,
 पूडी की ज़िद करती छोटी लाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 बोझ कर्ज़ का, बढता जाये दिन दिन,
 ठेंगा दिखा रही ,दूर खडी खुश हाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 मुन्ना मांग रहा, फ़ुलझडी पटाखे,
 मेरी जेब में केवल, माचिस खाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 इंद्र देव ने, बज़्र गिराया,
 दिखती नहीं कहीं हरियाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 सूख गये सब बाग बगीचे,
 भटक रहा है, दर दर माली! 
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 मरने को मज़बूर किसान है,
 नेता मना रहे, डट कर दिवाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 कुंभकर्ण सरकार हो गयी,
 प्रजा दे रही खुल कर गाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
 बच्चों की ज़िद को,कैसे समझाऊं,
 मेरे कद से बहुत बडी ,मेरी बदहाली!
 कौनसा उत्सव, कैसा उत्सव ,कैसी दिवाली!
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 १२. आदरणीय सुनील वर्माजी
 आम आदमी (गेय रचना)
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 मैं भारत का आम आदमी, मेरी बोलती बंद है 
 गम की लिए पोटली घुमु, खुशियाँ केवल चंद हैं ।।
 कभी "बीइंग ह्यूमन " कभी "अगेंस्ट कर्रप्शन "
 बस रह गयी मेरी यह परिभाषा 
 कभी इधर गिरु कभी उधर गिरूँ 
 हूँ चौपड़ का ज्यूँ एक पासा ।।
 ये आरक्षण ये सब्सिडी सब होते मेरे खातिर है 
 पर ले जाते है लूट इसे ,जो लोग बहुत ही शातिर हैं 
 ले चैन हो हवा खुद ने सारी , दी मुझको केवल गंध है 
 मैं भारत का आम आदमी, मेरी बोलती बंद है ।।
 बैठ के उत्सव खाने में, जो महंगाई को रोते हैं
 फिर बाँट के कम्बल सड़कों पर, खुद महलों में जा सोते हैं 
 मैं हूँ इंसा या कोई खिलौना, मन में चलता द्वन्द है 
 मैं भारत का आम आदमी, मेरी बोलती बंद है ।।
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 १३. आदरणीय सतविंदर कुमार जी 
 उत्सव:मुक्तक
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 साँझा प्यार है उत्सव
 जीवन आधार है उत्सव
 अगर हालात नाकाफ़ी हों
 तो बस मँझधार है उत्सव
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 १४. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवालाजी
 उत्सवों से हिन्द की पहचान है 
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 उत्सवों का देश भारत जानते
 सात दिन में आठ उत्सव मानते |
 तीज के त्यौहार सब आते रहे
 ईद में सब लोग मिलने आ रहे ||
 
 दीप से रोशन सभी घर हो रहे
 दाम में तेजी भले हम सब सहे
 भाव रखकर शुद्ध, हम पूजा करे 
 उत्सवों से प्रेम के ही डग भरे ||
 
 उत्सवों से हिन्द की पहचान है
 देश का सम्मान माँ की शान है |
 कृष्ण के सन्देश को सब जानले 
 राम के आदर्श को सब मानले ||
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 १५. आदरणीय सुशील सरना जी 
 भाव हीन रिश्तों का उत्सव ....
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 भाव हीन रिश्तों का उत्सव कैसे भला स्वीकार करूँ 
 जिस आदि का अंत हो उत्सव क्यों न उससे प्यार करूँ
ध्येय पंथ की गंध भुला दे 
 रजनी का जो अंत भुला दे 
 ब्रह्म ध्वनि का शंख भुला दे
 क्यों उसका अभिसार करूँ
 अन्धकार को पीते दीप का कैसे भला प्रतिकार करूँ 
 जिस आदि का अंत हो उत्सव क्यों न उससे प्यार करूँ
देह गर्भ की सुप्त अभिलाषा 
 अश्रु जड़ित साँसों की आशा 
 अन्तहीन वो स्पर्श पिपासा 
 भला कैसे मैं अंगीकार करूँ
 हार द्वार पे जीत क्षरण का कैसे भला शृंगार करूँ 
 जिस आदि का अंत हो उत्सव क्यों न उससे प्यार करूँ
रेखाओं में जीवित जीवन 
 रेखाओं में धड़के मधुबन 
 रेखाओं में महके चन्दन 
 कैसे प्रीतरेख अंगार करूँ
 मरुस्थल से नयन पथों में क्यों मैं हाहाकार करूँ 
 जिस आदि का अंत हो उत्सव क्यों न उससे प्यार करूँ
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 १६. आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी 
 [अ] " उत्सव " - (अतुकांत कविता)
सांस्कृतिक तत्व
 पौराणिक तथ्य
 जन कल्याण के
 पवित्र उत्सव ।
तीज-त्योहारों
 और व्यवहारों
 मेल-जोल के
 सतरंगे उत्सव ।
पटाखों से
 मिठाइयों से
 शोरगुल से
 मनते उत्सव ।
उच्च घराने
 नकल दोहराने
 दिखावे के
 मंहगे उत्सव ।
दिल बहलाने
 संबंध बनाने
 मन मार के
 तन-धन के उत्सव ।
अथक परिश्रम
 मदिरा से दम
 रोटी चटनी से
 निर्धन के उत्सव ।
स्वार्थ पूर्ति
 धन आपूर्ति
 भ्रष्टाचार के
 बढ़ते उत्सव ।
महँगाई से
 दंगाई से
 आतंकवाद से
 रुकते उत्सव ।
नैतिकता से
 आध्यात्मिकता से
 परिपूर्ण होते
 काश उत्सव ।
 ____________
[ब] कुछ हाइकू रचनाएँ :-
[1]
 ये ज्योतिपर्व
 प्रकाशित व्यक्तित्व
 आत्म गौरव
[2]
 प्रति उत्सव
 अतिथि देवो भव
 संस्कृति तत्व
[3]
 लौ सा मुकुट
 करे दैदीप्यमान
 दीप महान
[4]
 जीवन रक्त
 पवित्र सा प्रकाश
 जीवन सिक्त
[5]
 समयनिष्ठा
 स्वास्थ्य शिक्षा सम्पदा
 सच्चा है धन
[6]
 विधि-विधान
 बनते व्यवधान
 स्वार्थ प्रधान
[7]
 मन दूषित
 जलवायु को दोष
 खोकर होश
[8]
 मीठे हों बोल
 मीठा हो आचरण
 मीठा व्यक्तित्व
[9]
 ज़्यादा मिठाई
 मक्खन ख़ुशामद
 रास न आई
[10]
 मीठे हों नाते
 रिश्तों में हो मिठास
 छोड़ें भड़ास
[11]
 शव ही शव
 दिखाते समाचार
 त्रास-उत्सव         (संशोधित)
[12]
 बेरोज़गारी
 बिन स्वावलंबन
 दुनियादारी
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 १७. आदरणीय पंकज कुमार मिश्र ’वात्साययन’ जी
 ग़ज़ल
 ====
 चल मनस का अँधेरा मिटायें।
 इस तरह दीप उत्सव मनायें।।
आदमी का हृदय मुस्कुराये।
 आस का दीप चलकर जलायें।।
आदमीयत की नव रौशनी से।
 अपनी बस्ती चलो जगमगायें।।
भूख का कुछ जतन चल करें हम।
 पेट की आग चल कर बुझायें।।
नफरतों की हैं ज़द में अधर सब।
 मुस्कुराना चलो हम सिखायें।।
अन्नदाता से रूठी माँ लक्ष्मी।
 चल उन्हें आज हम सच सुनायें।।
मन्त्र अबकी न हो संग्रहण का।
 त्याग का पाठ सबको पढ़ायें।।
अबकी अन्तस् में घण्टी बजाकर।
 स्वार्थ वाला 'दरिद्दर' भगायें।।   (दरिद्दर भगाना-एक प्रथा)
ध्यानपूर्वक सुनो बात 'पंकज'
 'आसनी' शुद्ध चल कर बनायें।।
 ***********************************************************
 १८. आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवस्तव जी
 उत्सव (अतुकान्त)
 ============
 सभी को चिंता थी समय से
 कार्यालय पहुँच जाएँ अभी
 ट्रेन थी मंजिल पहुंचकर भी रुकी
 अटक आकर आउटर पर थी गयी 
 भूल सिग्नल भी गया था बदलना
 रंग अपना लाल से होना हरा 
 नौकरीपेशा सभी सहमे हुए 
 क्रास लग जाएगा जरा सी देर में 
 त्याग दी फिर ट्रेन कुछ ने सोचकर
 तय करेंगे आप चलकर यह दूरी स्वयं 
 कौन जाने कब तलक अवरुद्ध अब लाइन रहे 
 और तुम भी थी इन्ही उत्साहियों में
 हम तुम्हारी पीठ पर थे दोस्तों के साथ
 कील उभरी थी अचानक चप्पलों में 
 और तुमने था उठाया हाथ में पत्थर 
 उन्ही से जो पड़े थे रेलवे के किनारे 
 तब विहंस मैंने कहा था जोर से 
 ‘भाग ! नीरज भाग ! अपना सिर बचा'
 हंस पड़ा था तब वहां समुदाय सारा
 हंसी पडी थी सब सहेली भी तुम्हारी 
 छोड़ तुमने था दिया पत्थर लजाकर
 दृश्य ऐसे ही अचानक जगत पथ में 
 बनते कभी उत्सव हमारी आँख के
 भूल जिनको हम नहीं पाते कभी
 और है नहीं संभव कभी भी भूलना
 मंजर अचानक जो स्वयं ही अवतरित हो 
 नाच उठाते है नयन-उत्सव सरीखे
 ***********************************************************
 १९. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी
 गजल
 =====
 आदमी से आदमी ने बाजी' मारी,
 हारकर इंसान ने कब बात हारी।
 जीत का उत्सव सही है आबदारी,
 हार में है जीत की ही बेकरारी।
 सिलसिला चलता रहेगा दूर तक यह,
 याद रख लो हम अमन के हैं पुजारी।
 घिस न जायें शब्द सारे बेवजह अब,
 ढूँढ किसने वाटिका अबतक उजारी।
 फूल हो हर बाल अपना खिलखिलाये,
 बन कली खिलती रहे बाला दुलारी।
 ***********************************************************
 २०. आदरणीय आशीष यादव जी
 मिटाकर द्वेष मन का, चलो उत्सव मनायें (वर्णिक नज़्म)
 =====================================
 गले लगना सभी के, दिलों मे प्रेम रखना,
 न कोई दुश्मनी हो, न कोई भेद रखना|
मिटा ईर्ष्या अहं को, प्रणय के गीत गायें,
 मिटाकर द्वेष मन का चलो उत्सव मनायें|
रहे हर रोज होली, मने प्रतिदिन दिवाली ,
 नही नंगा बदन हो, न कोई पेट खाली|
खिलाकर मुफलिसों को खुशी से झूम जायें,
 मिटाकर द्वेष मन का चलो उत्सव मनायें|
 ***********************************************************
 २१. आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी 
 छन्न पकैया
 ==========
 छन्न पकैया छन्न पकैया, बात बताऊं कैसे ।
 दीवाली में हमको भैया, चित्र दिखे हैं जैसे ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, बेटा पूछे माॅं से ।
 कहते किसको उत्सव मैया, हमें बता दो जाॅं से ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, उनके घर रोशन क्यों ।
 रह रह कर तो आभा दमके, चमक रहे बिजली ज्यों ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, हाथ माथ पर धर कर ।
 सोच रही थी भोली-भाली, क्या उत्तर दूं तन कर ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, आनंद भरे मन में ।
 उत्सव उसको कहते बेटा, जो सुख लाये तन में ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, हाथ पकड़ वह बोली ।
 देखो चांदनी दिखे नभ पर, जैसे तेरी टोली ।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, बेटा ये मन भाये ।
 तेरे मेरे निश्चल मन में, ये आनंद जगाये ।
छन्न पकैया छन्न पकैया, ढूंढ रहे वे जाये ।
 नहीं चांदनी उनके नभ पर, जो उनको हर्षाये।।
 ***********************************************************
 २२. आदरणीया कल्पना भट्ट जी 
 'उत्सव' (अतुकांत )
 =============
 शाम ढले, रोज़ होते उत्सव
 बजते हैं ढोल नगाड़े 
 थापों पर थिरकते पैरों की 
 छम छम, गीतों की 
 मधुर तानो पर 
 गाता पूरा वन अंचल 
 सुगन्धित हुई धरा पे
 टपकते मोतियों सी लगती 
 आग की तपिश 
 उत्साह उमंग की होली में
 थिरकते पैरों की झंकार 
 नारी की सुंदरता 
 वीरों की गाथाओं पर बने 
 मधुर गीत संगीत बजाते 
 वन अंचल में रहते यह लोग 
 निर्जीव होती संस्कृति की 
 धरोहर बनते 
 रोज़ मनाते अपने उत्सव 
 करते मन प्रफुल्लित |
 ***************************
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आदरणीय सौरभ भाई , आपकी लगन प्रणम्य है , संकलन के श्रम साध्य काम को पूर्ण कर संकलन  इतनी जल्दी उपलब्ध कराने के लिये हार्दिक साधुवाद । 
मेरी रचना की एक पंक्ति मे, की  लिखना छूट गया था उसे इस तरह सुधारने की कृपा करें --
उपस्थिति किसी की हो तो बहुत अच्छा ( रचना मे ऊपर से छठवीं पंक्ति ) -- सादर निवेदन ।
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सादर
हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कल्पनाजी.
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