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ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर – समाचार

 

    रविवार 26 अक्टूबर 2014 को लखनऊ के रोहतास एंक्लेव में ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर द्वारा मासिक गोष्ठी का आयोजन किया गया. प्रस्तुत है एक संक्षिप्त प्रतिवेदन.
   

     हर वर्ष की तरह अक्टूबर का महीना इस बार भी त्योहारों से सुसज्जित था. दशहरा, दीवाली, भैयादूज के अवसर पर परिवार व मित्रजनों का आना-जाना लगा रहता है. आशंका थी कि ओपन बुक्स ऑनलाईन परिवार – लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी सदस्य व शुभानुध्यायी आमंत्रितों की इसी व्यस्तता के चलते धूमिल न पड़े. जैसी कि सम्भावना थी कई सदस्य व आमंत्रित नहीं पहुँच सके लेकिन जो उपस्थित हुए उनके स्वस्थ चिंतन और इस मंच के प्रति एकाग्र निष्ठा का ही परिणाम था कि रविवार का अपराह्न बलिष्ठ साहित्यिक विचारों की गूँज से गुंजित हो उठा.
   

     15 अक्टूबर को महाप्राण कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की पुण्यतिथि थी. श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’के अनुभवी संचालन और डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी की गरिमामयी अध्यक्षता से सज्जित उक्त गोष्ठी के प्रथम सत्र में कवि ‘निराला’ पर विचार व्यक्त करने के लिए उपस्थित सुधीजनों से आग्रह किया गया. पहले वक्ता के रूप में डॉ गोपाल नारायन जी का वक्तव्य सुनने से पहले परम्परागत ढंग से श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ जी ने माँ शारदे का वंदन गान किया.
   

     डॉ गोपाल नारायन जी ने निराला द्वारा रचित शोक गीत “सरोज स्मृति” पर विशद चर्चा की. उन्होंने पुत्री वियोग के पश्चात लिखी गयी कवि की इस रचना में समाहित रचनाकार के हृदय की पीड़ा और उनके जीवनदर्शन को अत्यंत प्रांजल भाषा में उपस्थापित किया.
   

    अगले वक्ता के रूप में श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ को आमंत्रित किया गया. वे स्वयं इस विचार-विनिमय में भाग लेने के लिए प्रस्तुत नहीं थे किंतु उन्होंने निराला की बहुचर्चित कृति “राम की शक्ति पूजा” पर डॉ गोपाल नारायन जी की एक दूसरी लघु शोधपरक रचना को पढ़कर सुनाया. रचना की गहनता और मनोहर वाचन ने सभी को मुग्ध कर दिया.
    

    इसके बाद शरदिंदु मुकर्जीश्री एस.सी.ब्रह्मचारी ने निराला के जीवन और व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं से सबको अवगत कराया.
   

     दूसरा सत्र काव्य-पाठ के लिए तय था. सबसे पहले श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ से अपनी रचना सुनाने का आग्रह किया गया. उन्होंने अत्यंत मधुर आवाज़ में सुनाया –

घरों से अँधेरे मिटा तो रहे हो
दिलों से अँधेरे मिटाओ तो जाने
यहाँ नफ़रतों का घना कोहरा है
मुहब्बत का सूरज उगाओ तो जाने

 

    गीत की प्रस्तुति और भाव से हम सभी मंत्रमुग्ध थे.

इसके बाद सुश्री संध्या सिंह जी को आमंत्रित किया गया. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने की जादुई कला में पारंगत संध्या जी ने आज भी अपने विशिष्ट बोध का परिचय दिया – रेंग रेंग चलने वालों के भीतर एक गगन...

    गोरखपुर से इस मंच के आकर्षण में पधारे भाई पवन कुमार जी पहली बार हमारे बीच आए थे. उनके सहज-सरल व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक दिखती है उनकी रचना में भी –

बचपन में एक छोटा सा घर
हर पल मिलती जगह जहाँ पर
कभी नहीं भूलेगा वो पल
कितना प्यारा माँ का आँचल

    श्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’ अनुभवी रचनाकार हैं. पिछले कुछ समय से वे विभिन्न रचनाधर्मी प्रयोग में लगे हुए हैं. आज उन्होंने रंगों की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की –

आत्म ज्ञान अध्यात्म में
ध्यान योग ‘उपमान’
रंग बैंगनी संतुलित
करता है उत्थान
  

    श्री एस.सी.ब्रह्मचारी प्रकृति की गोद में बिताए अपने यौवन के दिनों को याद कर कह उठते हैं –

चांद मुझे तरसाते क्यूँ हो
तुम सुंदर हो, तुम भोले हो
नटखट तुम हो बहुत सलोने
रूठ-रूठ जाते हो मुझसे
छुप-छुप कर बादल के कोने
तुम बादल से झांक-झांक कर
अपना रूप दिखाते क्यूँ हो
चांद मुझे तरसाते क्यूँ हो?

    सुश्री कुंती मुकर्जी अपनी नारी विमर्श की रचनाओं के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने ‘तवायफ़’ के दर्द और अहंकार को शब्द देते हुए सुनाया –

मैं नदी हूँ, तवायफ़ हूँ
पड़ता क्या फ़र्क किसी को
होकर प्रताड़ित सुख देना
देकर सुख प्रताड़ित होना
प्रारब्ध...यही जीवन-क्रम मेरा

अब बारी थी वर्तमान प्रतिवेदक (शरदिंदु मुकर्जी) की. पूरे दिन और रात भर प्रकृति विभिन्न रूप में उसे उसकी ‘औक़ात’ के सामने खड़ा कर देती है – फिर भी वह आशावादी है –

समय की धार पर अँधेरे का आँचल पकड़े
मैं बैठा रहा अपनी इच्छाओं का दीप जलाकर
अडिग, अचंचल
प्राची में उगती
स्वर्णिम छटा के मधुर स्पर्श ने
मुझको एक नयी औक़ात दिला दी

सभा के संचालक श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ जी ने ज़िंदगी की व्याख्या कुछ इस प्रकार की –

इससे खेलो तो खेल लगती है
और गर काटो जेल लगती है
दुख में चलती है पैसेंजर जैसी
ज़िंदगी सुख में मेल लगती है

अंत में डॉ गोपाल नारायन जी ने महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में धनुर्धर अर्जुन से प्रश्न किया –

......नहीं होता विश्वास
जो हो कृष्ण का सखा खास
वह इतना दुर्बल, इतना शक्तिहीन
तुममे न आत्मबल, न आशा नवीन
तो फिर यह युद्ध जीता किसने
क्या तुमने नहीं, कृष्ण ने?

गोष्ठी के समापन से पहले श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ जी को सभी ने विशेष रूप से अनुरोध किया एक और गीत सुनाने के लिए. अध्यक्षीय पाठ हो जाने के बाद वे विनम्रतापूर्वक संकोच कर रहे थे लेकिन अध्यक्ष की सहर्ष सहमति पाकर उन्होंने लखनऊ शहर पर लिखी गयी अपनी एक अनवद्य रचना का सस्वर पाठ किया जिसकी स्मृति हमारे मन में अमिट बनी रहेगी लम्बे समय के लिए.

ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर के संयोजक द्वारा घोषणा की गयी कि आने वाले समय में मासिक गोष्ठी के दौरान किसी पॉपुलर विषय पर – जो साहित्यिक, अथवा वैज्ञानिक या किसी और विधा से सम्बंधित हो सकता है – आमंत्रित वक्ता द्वारा व्याख्यान आयोजित किया जाएगा. इसके साथ ही एक सकारात्मक सोच लेकर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय के पश्चात गोष्ठी सम्पन्न हुई.
---------------शरदिंदु मुकर्जी

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आदरणीय शरदिंदु जी

आपने जिस साफगोई से यह  आलेख तैयार किया , वह प्रशंसनीय है i पूरा घटनाक्रम ज्यो का त्यों आपने उतर दिया है i आहत लखनवी हमारे लिये  एक उपलब्धि जैसे है सौभाग्य से वे मेरे अनुजवत है i सादर i

मासिक काव्य गोष्ठी का यह मेरा प्रथम अनुभव रहा जो शायद ही कभी भूल पाऊँ! सभी का स्नेह मिला, सक्षिप्त प्रतिवेदन से सारे दृश्य फिर से सामने उभर गये।
आदरणीय, बहुत बहुत धन्यवाद!

आदरणीय शरदिन्दुजी, लखनऊ चैप्टर के सौजन्य से आयोजित होती इस मासिक गोष्ठी की रूप-रेखा में आते जा रहे सकारात्मक परिवर्तन को बखूबी महसूस किया जा रहा है.
कार्यक्रम के आखिर में हुई घोषणा से मन उत्साह में है. यह एक अत्यंत प्रभावी तथा दूरगामी कदम है, जिसका हर हाल में स्वागत होना ही चाहिये.
उपस्थित कवियों की प्रतिनिधि पंक्तियों से रचनाओं के स्तर का पता चलता है. सभी कवियों को हार्दिक शुभकामनाएँ तथा बधाइयाँ.
सादर

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