For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 36 में सम्मिलित सभी गज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम स्नेही स्वजन

सबसे पहले तो विलंब के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | इस बार के तरही मुशायरे की फिसलती ज़मीन पर इतनी खूबसूरत गज़लें आईं हैं की मन आह्लादित है | इस मंच की यही खुसूसियत है की आप अपनी प्रगति धीरे धीरे नोटिस कर सकते हैं, यह बात मैं उन नए लोगो के लिए कह रहा हूँ जो हाल ही में इस मंच से जुड़े हैं साथ ही मैं मंच से जुड़े उन वरिष्ठ शायरों से गुजारिश भी करता हूँ की आप नए शायरों की रहनुमाई इसी प्रकार से करते रहे |

बात है मिसरों को चिन्हित करने की तो इस बार एक कदम आगे बढ़ते हुए इस बार मिसरों को लाल रंग के साथ-साथ हरे और नीले रंग से भी दर्शाया गया है|

लाल तो आप जानते ही हैं कि बेबह्र मिसरों के लिए है, हरे मिसरे भी बेबह्र हैं परन्तु वहां बह्र की गलती अलफ़ाज़ को गलत वजन में बाँधने से हुई है| नीले मिसरे ऐसे मिसरे हैं जिनमे कोई न कोई ऐब है | नीले मिसरों को चिन्हित करते समय जिन ऐबों को नज़र में रखा गया है वह है तनाफुर, तकाबुले रदीफ़, शुतुर्गुर्बा, ईता, काफिये के ऐब और ऐब ए ज़म |

गौरतलब है की बहुत से मिसरों और भी ऐब हैं परन्तु इस मंच पर चल रही कक्षा में जिन ऐब पर चर्चा हो चुकी है उन्हें ही ध्यान में रखा गया है | कई मिसरों में ऐब ए तनाफुर भी है पर इसे छोटा ऐब मानते हुए छोड़ा गया है,  यक़ीनन ऐब तो ऐब होता है और शायर को इस ऐब से बचना चाहिए |

यदि कहीं कोई गलती हो गई हो या किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो तुरंत सूचित करें |

सादर धन्यवाद

राणा प्रताप सिंह
सदस्य टीम प्रबंधन सह मंच संचालक (तरही मुशायरा)

****************************************

प्रस्तुत है ग़ज़लों का संकलन :-

Tilak Raj Kapoor 

ज़रा सी दूर तलक, साथ चल के देखते हैं
बिखर चुका है यकीं, चल बदल के देखते हैं।

बुझे बुझे से चरागों में रौशनी देखी
अभी कुछ और करिश्‍मे ग़ज़ल के देखते हैं।

बहुत दिनों से नया कुछ नहीं कहा हमने
किसी के दर्द के दरिया में जल के देखते हैं।

सही समय पे जो खुद को बदल नहीं पाते
वही दरख्‍़त कभी हाथ मल के देखते हैं।

गिरे कुछ ऐसे कि अब तक सम्‍हल नहीं पाये
तुम्‍हारा साथ मिला है, सम्‍हल के देखते हैं।

विदा के वक्‍त में दुल्‍हन के हाथ की मेंहदी
इसी में ख्‍़वाब कई रंग कल के देखते हैं।

सदा ही चाल औ तिकड़म कपट से काम लिया
कहॉं ये लोग कभी खुद को छल के देखते हैं।

*************************************

चलो कि दूर जड़ों से निकल के देखते हैं
नयी हवा है, नयी चाल चल के देखते हैं।

हरिक दिशा से कई हाथ आ गये जुड़ने
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं।

नसीहतों से भरा कल समझ गये जो भी
वही ज़मीं से जुड़े ख्‍़वाब कल के देखते हैं।

कमी, कमी है, कमी है, न रोईये, चलिये
बहुत मिला है, नज़रिया बदल के देखते हैं।

जरा सी जि़द थी बिछुड़ कर मिले हैं मुद्दत से
जरा सी बात पे फिर से मचल के देखते हैं।

गुमे हुए हैं जो साजि़श में कब वो देखेंगे
जो हादिसों से मिटे दिल, दहल के देखते हैं।

न सिर्फ़ बात करें कर के भी दिखायें कुछ
यहॉं के लोग नतीज़े अमल के देखते हैं।

*************************************

Saurabh Pandey
सियाह रात के मारे दहल के देखते हैं
सड़क से लोग नज़ारे बगल के देखते हैं

बहुत किया कि उजालों में ज़िन्दग़ी काटी
कुछ एक पल को अँधेरों में चल के देखते हैं

फिर आज वक़्त उमीदों से देखता है हमें
उठो कि वक़्त की घड़ियाँ बदल के देखते हैं

किसी निग़ाह में माज़ी अभी तलक है जवां
अभी तलक हैं चटख रंग कल के, देखते हैं

तब इस बगान में गुलमोहरों के साये थे
मिलेगी शाख पुरानी.. टहल के देखते हैं

लगा कि नाम तुम्हारा हमें छुआ ’सौरभ’.. .
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं !!

*************************************

फरमूद इलाहाबादी
ग़ज़ल से ऊब के हमको मचल के देखते हैं
उछल पड़े हैं जो जलवे हज़ल के देखते हैं

खुली रखो न हमेशा ही खिड़कियाँ दिल की
जवान झुक के तो बच्चे उछल के देखते हैं

पडी है लात उन्हें जब से, दांत टूट गये
तभी से और ज़ियादा संभल के देखते हैं

तुम्हारे इश्क में बेले हैं आज तक जितने
लगी है भूक तो पापड वो तल के देखते हैं

कहे न साँप कोई आस्तीन का हमको
लिहाज़ा आप के नेफे में पल के देखते हैं

सुना है इनमें जो डूबा उबर नहीं पाया
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

मरा या ज़िंदा है फरमूद जानने के लिए
दुबारा जीप से अपनी कुचल के देखते हैं

*************************************

Arun Kumar Nigam 

चलो जहान की सूरत बदल के देखते हैं
पराई आग में कुछ रोज जल के देखते हैं

कहा सुनार ने सोना निखर गया जल के
किसी सुनार के हाथों पिघल के देखते हैं

कभी कही न जुबां से गलत सलत बातें
हरेक बात पे मेरी उछल के देखते हैं

अभी उड़ान से वाकिफ नहीं हुये बच्चे
हमारे नैन से सपने महल के देखते हैं

जरा सबर तो रखो होश फाख्ता न करो
अभी कुछ और करिश्में गज़ल के देखते हैं

*************************************

वीनस केसरी 

बनावटी जो अमल आजकल के देखते हैं
तो हम भी अपना ये लहजा बदल के देखते हैं

सड़क पे कैसा तमाशा किया अमीरों में
गरीब लोग ये क्या आँखें मल के देखते हैं

ये कैसे गुल खिले है हुस्न के चमन में, क्यों ?
वो अपने आप को इतना सँभल के देखते हैं

हम उनकी वज्ह से ये दिल का रोग ले बैठे
पर उनसे ये न हुआ "चलिए चल के देखते हैं"

अभी कुछ और जमीनें हैं जेह्न में "वीनस"
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं"

*************************************

अरुन शर्मा 'अनन्त'
किसी के प्यार में खुद को बदल के देखते हैं,
जरा सा इश्क की गलियों में चलके देखते हैं,

तेरा ही जिक्र सुबह शाम लब ये करते रहे,
तेरा ही ख्वाब निगाहें मसल के देखते हैं,

लहूलुहान मुहब्बत में रोज होने लगा,
अजब ये मर्ज लगा है सँभल के देखते हैं,

न दूर याद गई ना ही नींद आई कभी,
कि सारी रात ही करवट बदल के देखते हैं,

लगा के बीच में शे'रों के काफिया जादुई,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं.

*************************************

ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi)

हम अपने घर से जो गुलशन निकल के देखते हैं
फिर O.B.O. के सदस्यों को चल के देखते हैं

चलो कि सहने चमन में टहल के देखते है
जरा मिजाज़ हम अपना बदल के देखते हैं

नज़र से हटता नहीं है वो झील का मंज़र
हसीन फूल खिले है कवँल के देखते है

कहाँ वो प्यार के नग्मे विसाल की बातें
सुनहरे ख्वाब यहाँ लोग कल के देखते हैं

जब आइना है मुकाबिल सवांर लें खुद को
गमे हयात की सूरत बदल के देखते है

हमेशा रहता है मौसम वहां मोहब्बत का
के सूए वादिये कश्मीर चल के देखते है

जिन्हें ज़रा भी नहीं प्यार अपने गुलशन से
वही गुलाबों को अक्सर मसल के देखते है

कही पे मीर है इकबाल है कही ग़ालिब
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है"

नसीब होता नहीं एक घर भी ऐ गुलशन
हसीन ख्वाब तो हम भी महल के देखते है

सुना है दर पे मिलेंगे उसी के सब "गुलशन"
चलो दयार में उसके ही चल के देखते है

*************************************

कल्पना रामानी 

गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं, में चल के देखते हैं।

सुदूर वादियों में आज, गुल परी उतरी,
प्रियम! हो साथ तुम्हारा, तो चल के देखते हैं।

उतर के आई है आँगन , बरात बूँदों की,
बुला रहा है लड़कपन, मचल के देखते हैं।

अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा,
मिला है क्या जो पतंगे, यूँ जलके देखते हैं।

नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना,
फरेबी आज वे नज़रें, बदल के देखते हैं।

चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी,
अभी कुछ और करिश्में, ग़ज़ल के देखते हैं।

विगत को भूल ही जाएँ, तो ‘कल्पना’ अच्छा,
सुखी वही जो सहारे, नवल के देखते हैं।

*************************************

मोहन बेगोवाल

चलो मिजाज अभी हम बदल के देखते हैं
बदल रहें जहाँ के संग चल के देखते हैं.

रवाएती थी जदीद अब वो गज़ल हो गई,
अभी कुछ और करिश्मे गज़ल के देखते हैं.

यहाँ चली हवाओं ने दिखाए रंग ऐसे,
कभी इनसे बच,कभी इनमें ढल के देखते हैं.

क्या बताएँ तुझे, ना यकीं रहा खुद पे,
ख्वाब फिर भी हमेशा महल के देखते हैं.

तलाश लिया बहुत कुछ मन के समंदर से ,
चलो खुदा साथ रिश्ता बदल के देखते हैं.

खुद के ना रहे, ना हम बेगानो के हो सके,
शमअ की तरह अक्सर जल के देखते हैं.

*************************************

Dinesh Kumar Khurshid 

फिजा तो खूब है घर से निकल के देखते है
तमाम सब्ज़ मनाज़िर के चल के देखते है

ये अर्श-ओ-फर्श समन्दर पहाड़ सब्जों गुल
खुदा के सारे करिश्मे संभल के देखते है

कहाँ कहाँ हुए सैराब प्यास के मारे
तमाम चश्मे वफ़ा यूँ उबल के देखते हैं

जहाँ का दर्द समेटे है अपने दामन में
बहुत अजीब है तेवर ग़ज़ल के देखते है

न हाथ आयेगा अमृत वगैर हुस्ने अमल
तो आज ज़हर हमी खुद निगल के देखते है

कलम के जोर से सच्चाइयों की ताकत से
हम इन्कलाब के धारे बदल के देखते है

नहीं जो देता है मांगे से फल शज़र "खुर्शीद"
तो मेरे हाँथ के पत्थर उछल के देखते है

*************************************

Dr. Abdul Azeez "Archan"

चरागे फ़िक्र हैं दिन रात जल के देखते हैं
हिसारे तीरह फिजा से निकल के देखते हैं

रहे हयात में जिस सम्त चल के देखते हैं
नतीजे रूबरू अपने अमल के देखते हैं

हमारी फ़िक्र में क्या है हयाते मुस्तकबिल
बहुत अजीब है मंज़र जो कल के देखते हैं

तुम्हारी राह्बरी में ये ठोकरें कब तक?
हम आज खुद नया रस्ता बदल के देखते हैं

तमाम शह्र पे काले धुवें की छत क्यों है?
हुआ है क्या चलो घर से निकल के देखते हैं

ज़मीं के दर्द से जुड़कर हकीकतों के सबब
बदल गए हैं जो तेवर ग़ज़ल के देखते हैं

लगे न ठेस कोई तल्ख़ गुफ्तगू से अज़ीज़
रुख आइनों का हमेशा संभल के देखते हैं

*************************************

HAFIZ MASOOD MAHMUDABADI

निगार खानये हस्ती में चल के देखते हैं
वफ़ा के नक़्शे कदम पर निकल के देखते हैं

जो लोग अपने कदों को बलंद कहते थे
बलंदियों को वही अब उछल के देखते हैं

ग़ज़ल ने जलवे दिखाए हैं खूब खूब मगर
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

अमीरे शह्र का वादा भी खोखला निकला
मिजाज़ अपना चलो फिर बदल के देखते हैं

सताती याद है बचपन की जिस घडी हमको
तो मां के क़दमों पे हम भी मचल के देखते हैं

गनीम देख के हैरत से काँप उठता है
जब अपने हम कभी तेवर बदल के देखते हैं

है खौफ फिर न कहीं इंक़लाब आ जाये
मिजाज़ बदले हुए हम ग़ज़ल के देखते हैं

ज़हाने इश्क में हद से गुज़र के हम 'मसऊद'
सुलगती रेत पे सेहरा की चल के देखते हैं 

*************************************

Sanju Singh 

शमा -ए -मानिंद हम भी पिघल के देखते हैं ,
चिराग बुझ गए अब हम भी जल के देखते हैं .

नज़र उठे जब भी बस तु ही नज़र आये ,

इसी फ़िराक ज़रा हम संभल के देखते हैं .

अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे ,
सुनों कि आज यही दिल बदल के देखते हैं .

नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी ,

ज़मीन ख्वाब फकत हम महल के देखते हैं .

सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं ,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

*************************************

Ajay Kumar Sharma

निसारे जात से बाहर निकल के देखते हैं
हम अपना आज नज़रिया बदल के देखते हैं

सफर का शौक है हम को कहीं भी ले के चलो 
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर चल के देखते हैं....

ज़माने को तो बदलना हमारे वश में नहीं
लो अपने आप को ही हम बदल के देखते हैं ....

किसी को फिक्र है कितनी चलो ये आज़मा लें
खिलौनों के लिए हम भी मचल के देखते हैं...

भला ये कौन है जो तीरगी से लड़ रहा है
अँधेरों से ज़रा बाहर निकल के देखते हैं....

ये जुस्तजू का सफर भी तमाम होने को है
सुकूँ के वास्ते हम साथ चल के देखते हैं....

संवार लेते हैं गेसू ग़ज़ल के हम भी चलो
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ....

लकीरें हाथ की शायद बदल ही जाएँ अजय
ज़रा सा वक़्त के साँचे में ढल के देखते हैं ....

*************************************

गीतिका 'वेदिका'

यकी हमे है जो खुद पर लो जल के देखते है
भरोसा जिनको नही वो उछल के देखते है

कभी रहा न वो मेरा कोई छलावा था
अगर गिरे भी तो एक बार चल के देखते है

न कोई दाव वे जीते न कोई हम हारे
चलो न अब के ये पाली बदल के देखते है

गये पहाड़ पे फिर प्यार मिल गया हमको
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,
चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है

*************************************

Amit Kumar Dubey Ansh 

लहू जमा कब से अब पिघल के देखते हैं 
बहुत हुआ जमना अब उबल के देखते हैं

सफ़र गुज़र कर भी साथ चल रहा मेरे 
उसी अदा से चलो फिर मचल के देखते हैं

सुना बहुत कि कयामत तुम्हारी महफ़िल में
रकीब लाख़ सही हम टहल के देखते हैं

नयी उडान नये ख्वाब जादुई मंज़र
नया मिज़ाज चलो यार ढल के देखते हैं

कि सर से पांव मिरा हो गया ग़ज़ल पुरनम
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

बड़ा हसीन तिरा सिम्त -सिम्त लगता है
चलो कुछ और नज़ारे महल के देखते हैं

प्रलय विनाश हुआ जो उसे न भूलेंगे
बढ़े चलो कि प्रलय से निकल के देखते हैं

*************************************

Ashok Kumar Raktale 

चलो की आज बगीचे में चल के देखते हैं,
खिले गुलाब चमेली टहल के देखते हैं.

कभी विनाश हुआ है रुकी नदी से भी?
हुआ विनाश न! कैसे? सम्हल के देखते हैं.

मचल-मचल के गए थे नदी किनारे पर,
हशर जिन्हें न पता हो मचल के देखते हैं.

बही विशाल शिलाएं गजब रवानगी थी
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं"

उन्हें सकून मिला है ‘अशोक’ देख अहा !
बचे कुछेक जनों को उछल के देखते हैं,

*************************************

Shijju S.

हर एक सिम्त उन्हें जब मचल के देखते हैं
लिये हिजाब हमें वो सँभल के देखते हैं

फिर आज रौनके-शह्र आम हो गयी शायद
चलो फिर आज घरों से निकल के देखते हैं

जहाँ मिले थे कभी हम कई दफ़ा तुमसे
उठो ज़रा कि उसी राह चल के देखते हैं

कभी ग़ज़ल में उतर ख़्वाब में समा के कभी
जमालो-वुसअते-कुदरत टहल के देखते हैं

किसी तरह से नुमायाँ हुई न हालते-दिल
हुज़ूरे-यार क़याफ़ा बदल के देखते हैं

शुरू हुआ कि अभी दौरे नज़्म ये ''तनहा''
''अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं''

Abid ali mansoori 

जरा आओ घर से निकल के देखते हैँ,
लगी है आग कैसे चल के देखते हैँ!

बहुत हो चुके यह ताअस्सुब के सिलसिले,
अदाबत को मोहब्बत मेँ बदल के देखते हैँ!

इक नई सहर की उम्मीद लिए दिल मेँ,
किसी शाम की तरह ढल के देखते हैँ!

थके परिन्दोँ की उड़ान अभी बाकी है,
मंज़र ये पहरेदार महल के देखते हैँ!

एक रोज़ तो मिलेगी हमेँ चाहतोँ की मंज़िल,
गर्दिश मेँ ज़माने की संभल के देखते हैँ!

तपते सहरा को भी समन्दर बना देती है,
अभी कुछ और करिश्मेँ ग़ज़ल के देखते हैँ!

जीस्त खुशियोँ से उनकी जगमगाने के लिए,
चिरागोँ की तरह हम भी जल के देखते हैँ!

न फ़रेब न सितम न अदाबत हो जहां मेँ,
चलो किरदार अपना 'आबिद' बदल के देखते हैँ!!

*************************************

Abhinav Arun 

हकीकतों की ज़मी पर जो चल के देखते हैं ,
वही कमान से बाहर निकल के देखते हैं ।

वो आँधियों में भी बाहर निकल के देखते हैं ।
हवा के रुख को परिंदे, बदल के देखते हैं

कई सदी तो तुम्हारे हरम के दास रहे ,
हमें भी हक़ है कि सपने महल के देखते हैं ।

तरक्कियों के ये सांचे मुझे पसंद नहीं ,
जिन्हें लुभाते हैं वो इनमे ढल के देखते हैं ।

जिन्हें ज़मीनी हकीकत का कोई इल्म नहीं ,
वो आपदा को भी पुष्पक पे चल के देखते हैं ।

हमीं ने झुनझुने वालो पे ऐतबार किया ,
कि जैसे बाप को बच्चे उछल के देखते हैं ।

अभी तो मुझको इबादत की एक ठौर मिली ,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ।

*************************************

अरुन शर्मा 'अनन्त'

बुरी नियत से दरिन्दे मचल के देखते हैं,
बड़ो को प्यार से बच्चों को छल के देखते हैं,

झुकी झुकी सी नज़र वार बार बार करे,
वो उसपे और अदायें बदल के देखते हैं,

ये सारी उम्र तेरी राह तकते बीत गई,
तू आयेगी कि नहीं आज जल के देखते हैं,

बड़ा हसीन सा दिखने में है तारों का जहाँ
चलो चलें कि फलक साथ चलके देखते हैं,

सभी के शे'र निराले सभी के शे'र जवां,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं...

*************************************

Er. Ganesh Jee "Bagi" 

सदैव भाग्य भरोसे जो चल के देखते हैं,
वो बंद आँखों से सपने महल के देखते हैं |

न कोई फैसला ज़ज्बात मे कभी होता,
वफ़ा की राह पे कुछ पल टहल के देखते हैं |

तना-तनी में बनी बात क्यों बिगाड़े हम,
जो आप बदलें तो हम भी बदल के देखते हैं

बदलने गाँव की सूरत पधारे नेता जी,
जनानी ओट से औ हम उछल के देखते हैं |

रदीफ़ -ओ- काफ़िया बह्रो कहन का है जादू,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं |

*************************************

Dr Lalit Kumar Singh 

निगाहे-नाज़ नजारों में ढल के देखते हैं
गिरा कोई भी अगर,खुद संभल के देखते हैं

तिरी निगाह की जद में रहा यहाँ अबतक
कहो तो आज नज़र से निकल के देखते है

दिखे नहीं जो किसी को, तो आह भरता क्यूँ
खुद अपनी सांस की हद में टहल के देखते हैं

कहाँ तो एक भी तिनका कभी नहीं जुटता
कहाँ तो ख्वाब, सुना है, महल के देखते हैं

कहा कि सुन लो मिरी बात ऐ जहाँ वालो
जो बात बन न सकी तो उबल के देखते हैं

तिरा हिजाब उठाते, तो फिर जमाना था
चलो यहाँ से कहीं और चल के देखते हैं

कहाँ-कहाँ, ये नचाया हमें तिरा ज़ल्बा
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

*************************************

Ram Shiromani Pathak

चलो की आई है बारिस टहल के देखते है ,
वही थी याद पुरानी उछल के देखते है !

हुआ है क्या जो नहीं मेघ नभ पे दिखते है !
किसान ख्वाब तो अच्छी फसल के देखते है !!

बहुत मज़े से ही काटी है ज़िन्दगी ,थोड़ा !
निशाते ग़म का मज़ा भी निगल के देखते है !!

पड़ी थी मार पड़ोसन को प्यार से देखा !
पकड़ के हाँथ नज़ारे बगल के देखते हैं !!

बड़ा ही प्यार दिलाती है ये कलम दीपक ,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है !!

*************************************

गीतिका 'वेदिका' 

नदीम आज नदीदा में ढल के देखते है

नजीब टेड़ के गोशा में छल के देखते है

मिली न वो हमे ए यार चाह दिलबर की
चलो खजां से कही दूर चल के देखते है

हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है

चलो न दूर कहीं दूर घर बसा ले सुनो
यहाँ नदीम हमें खूब जल के देखते है

चलो न आज कि शब् चाँद पे जिया ज़लवा
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

*************************************

Rajesh Kumari 

वो अब्रपार निगाहें बदल के देखते हैं
किसान आज घरों से निकल के देखते हैं

गई चुगान को माँ ना अभी तलक आई
इधर उधर तभी चूजे उछल के देखते हैं

मुसीबतों से हमें हारना नहीं आता
तपी जमीन पे हम आज चल के देखते हैं

सुना है दिन में उन्हें बिजलियाँ डराती हैं
सियाह रात में जुगनू संभल के देखते हैं

हमे अजीज बड़ी वो फ़कीर की बेटी
मिज़ाज और हुनर तो कमल के देखते हैं

रुबाइयों ने बड़ी वाहवाहियां लूटी
अभी कुछ और करिश्मे ग़जल के देखते हैं

नसीब "राज" ये सबका करम से ही बनता
सुना है रोज वो सपने महल के देखते हैं

*************************************

Harkirat Heer

चलो आज गम के सांचे में ढल के देखते हैं
जलती शमा में परवाने सा जल के देखते हैं

हौसला हो तो दूर नहीं होती मंजिल कभी
चलो कुछ और कदम भी चल के देखते हैं

क्या पता वो कभी थाम ले हाथ मेरा
इस वास्ते हम साथ चलके देखते हैं

ये कौन ले आया अँधेरे में रौशनी का दिया
तारे भी आज मचल - मचल के देखते हैं

दर्द भी है ,दवा भी और इक तड़प भी
अभी कुछ करिश्में गज़ल के देखते हैं

कहते हैं मुहब्बत इक आग का दरिया है
हीर चलो इस आग में जल के देखते हैं

*************************************

Kewal Prasad

सुहानी रात में चांदनी, छल के देखते हैं।
अजी ये बात है तो साथ, चल के देखते हैं।।

कभी खुशी कभी गम, रूला-रूला जाते।
अजब है दुनियां यहीं पे, मचल के देखते हैं।।

सुबह से शाम दीवाने भटकते हैं गम में।
मिलाएं कौन से मंजर, निकल के देखतें हैं।।

सभी ने मौत के डर से, जला दिया दीपक।
जलधि में ज्वार जो आया,खगंल के देखते हैं।।

वो आसमां से उतर के, सुबक-सुबक रोए।
हुए हैं ईंट भी सैलाब, चल के देखते हैं।।

पुरूष-बच्चे तड़प के, मरे-जिए ऐसे।
कहानी दर्द के जैसे, दहल के देखते हैं।।

उड़ा दें होश की परतें, झुकी-झुकी है नजर।
अभी कुछ और करिश्में, गजल के देखते हैं।।

*************************************

Harjeet Singh Khalsa

उसी के रंग में हम भी आ ढल के देखते है
कि साथ वक़्त के थोड़ा बदल के देखते है

यूँ बैठ जाने से मन्जिल नहीं मिला करती,
उदास-ऐ-दिल, कुछ और चल के देखते है 

न पा सके कुछ हम जब वफ़ा निभाकर भी,
वफ़ा के कौल से बाहर निकल के देखते है

असर दवा में नहीं सुन ज़रा ऐ चारागर,
ज़हर ले आ अब वो ही निगल के देखते है

मिटा दिए ग़म भी और हर उदासी भी,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है

*************************************

Sanju Singh 

फुहार रिमझिम है हम मचल के देखते हैं
चलो न यार लड़कपन में चल के देखते हैं

तमाम खार गुलों को मचल के देखते हैं
चमन बहार हुआ हम भी चल के देखते हैं

नज़र जिधर भी उठे, तू ही तू नजंर आये
इसी फ़िराक ज़रा हम संभल के देखते है.

अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे ,
सुनों कि आज यही दिल बदल के देखते हैं

नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी ,
ज़मीन ख्वाब फकत हम महल के देखते हैं .

सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं ,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

*************************************

Saurabh Pandey 

वो चाँदरात में छत पर निकल के देखते हैं
घड़ी-घड़ी में अदाएँ बदल के देखते हैं

वो बन-सँवर के अदा से निहारते हैं हमें
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

न सोगवार दिखे, दर्द भी बयां न किया
चलो कुछ और मुखौटे बदल के देखते हैं

खुशी की चाह में चलते दिखे.. मग़र सब ही
नये-नये कई पहलू अज़ल के देखते हैं

हम अपने हाथ में नर्गिस लिये मुहब्बत का
ये ज़लज़ले ये तलातुम जदल के देखते हैं 

हर इक निग़ाह में ज़िन्दा हुआ है आईना
अज़ब लिहाज़ हैं ये आजकल के, देखते हैं

*************************************

सानी करतारपुरी 

ख्बाबों के दस्तेरस से फ़िसल के देखते हैं,
क्या है दुनिया, घर से निकल के देखते हैं। 

पहाड़ों ने तो हमें आबशार करके फैंक दिया,
चलो किसी सहरा की ओर चल के देखते हैं। 

अब वो दिल में बसाये या पलकों से छिंटके,
ख्बाब बन उन आँखों में ढल के देखते हैं।

तय है जब हादसे हमें सहरा कर ही देंगे,
चलो कोई दरिया तो निगल के देखते हैं।

लहरा जाये तो बादल, बिछ जाये तो सब्ज़ा,
क्या-क्या तसव्वुर तेरे आँचल के देखते हैं। 

तारीक बस्ती के लिए यही सूरज हो जायेगा,
अदालते-झूठ में एक सच उगल के देखते हैं। 

ये भी तेरे लम्स की नाज़ुकी तक न पहुँचे,
गुलाब चेहरे पे हम मल-मल के देखते हैं।.

लम्स- स्पर्श

आर्ज़ुओं के सब खिलौनें तो टूट-बिखर गये,
बस ये दुनिया बची है, बहल के देखते हैं।

जिंदगी ने कहा आकबत को तारीख़ बना लें,  
मकतल के नेज़ों पे चल उछल के देखते हैं।

चाँद-सूरज न हुये पर कुछ तो रौशनी करेंगे,
चलो, चिराग़ों की तरह जल के देखते हैं।

मेरी पहली सूरत कोई भी न दिखलाये 'सानी',
घर के सारे आईने ही बदल के देखते हैं।

अलफ़ाज़ के ये तिलिस्मात जब तक न टूटें,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं।

*************************************

Ram Shiromani Pathak 

वो मुफलिसी में भी सपने महल के देखते है ,
गुनाह तो नहीं सपने दो पल के देखते है !!

हरेक मोड़ पे बिखरा था खौफ का मंज़र ,
डरो नहीं चलो हम भी चल के देखते है !!

तवील होने लगी है हिज्र की रात यूँ अब ,
विरह की आग में अब खुद को जल के देखते हैं !!

हरेक मोड़ पे पसरी थी रात की चादर
बढ़ें सभी यूँ ही जुगनूँ सा जल के देखते है !

सभी तरफ हो रही प्यार की ही बातें अब !!
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं!!

*************************************

Dr Ashutosh Mishra

छुपी निगाह से जलवे कमल के देखते हैं
लगे न हाथ कहीं हम संभल के देखते हैं

ग़जल लिखी हमे ही हम महल मे देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

हया ने रोक दिया है कदम बढ़ाने से पर
जरा मगर मेरे हमदम पिघल के देखते हैं

कहीं किसी ने बुलाया हताश हो हमको
सभी थे सोये जरा हम निकल के देखते हैं

तमाम जद मे घिरी है ये जिन्दगी अपनी
जरा अभी गुड़ियों सा मचल के देखते हैं

हमें बताने लगा जग जवान हो तुम अब
अभी ढलान से पर हम फिसल के देखते हैं

हमें न उन के तरीके कभी ये खास लगे
गुलाब को बेबजह ही मसल के देखते हैं

अभी दिमाग मे बचपन मचल रहा अपने
किसी खिलोने से हम भी बहल के देखते हैं

हयात जब से मशीनी हुई लगे डर पर
चलो ए आशु जरा हम बदल के देखते हैं

*************************************

Arun Kumar Nigam 

गये तुरंग कहाँ अस्तबल के देखते हैं
कहाँ से आये गधे हैं निकल के देखते हैं

सभी ने ओढ़ रखी खाल शेर की शायद
डरे डरे से सभी दल बदल के देखते हैं

वही तरसते यहाँ चार काँधों की खातिर
सभी के सीने पे जो मूँग दल के देखते हैं

वो आज थाल सजाये हुये चले आये
जिन्हें हमेशा बिना नारियल के देखते हैं

बड़ों-बड़ों में भला क्या बिसात है अपनी
अभी कुछ और करिश्में गज़ल के देखते हैं

*************************************

आशीष नैथानी 'सलिल' 

गरीब बच्चे भी सपने महल के देखते हैं
ये अच्छी बात कि चश्मा बदल के देखते हैं ॥

सँभल-सँभल के चले हम मगर रहे तन्हा
चलो अब इश्क में ही पर फिसल के देखते हैं ॥

अभी तो आँसुओं से रोशनाई बन पड़ी है
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ॥

पतंगा जानता है उस शमा को कौन है वो ?
मगर ये उसकी वफ़ा है, कि जल के देखते हैं ॥

पडोसी कौन है, कैसा है किसको है पता ये
अगर है वक़्त तो घर से निकल के देखते हैं ॥

*************************************

SANDEEP KUMAR PATEL 

वो अपने आप को पल पल बदल के देखते हैं
बदलते वक़्त के जो साथ चल के देखते हैं

बहुत से हर्फ़ जहन में मचल के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

ख़ुशी औ गम है दो पहलू हमारे जीवन के
जो आज गम हैं तो आगे निकल के देखते हैं

हैं जिनकी जेब भरी जेब काटकर हरदम
वही हैं आज जो सपने महल के देखते हैं

बबूल बोते रहे रात दिन जतन कर जो
चुभन भरे वो अभी फल फसल के देखते हैं

नक़ल अकल से करो दीप कारनामा हो
अकल को छोड़ अब जलवे नक़ल के देखते हैं

Views: 4256

Reply to This

Replies to This Discussion

//जैसे अक्ल २१ को अकल १२ बाँधा जाए और अस्ल २१ को असल १२ तो उस मिसरे को हरा किया जायेगा,//

मैं वीनस भाई की इस बात से सहमत न होते हुए, इसी तथ्य से किसी और ढंग से सहमत हूँ, जिसके मूल में राणा भाई की सकारात्मक सोच है और शब्द प्रयोग को लेकर स्पष्टता है.

प्रस्तुत हुई ग़ज़ल / ग़ज़लों की भाषा का स्वरूप बिना देखे और समझे इस तरह के किसी निर्णय पर आना भाषायी वितंडना का अनावश्यक कारण बनेगा. फिर से, शहर और शह्र का भूत अपना खेल दिखायेगा.

हर भाषा में प्रयुक्त हो रहे और मान्य हो गये शब्द अपने वज़ूद के प्रति आश्वस्त होते हैं. चाहे उनके मूल स्वरूप जो हों. वस्तुतः यह पूरे विश्व में भाषायी प्रगति और स्वरूप में द्रष्टव्य होता है. हर भाषा उस भाषा को प्रयोग करने वाले समुदाय के उच्चारण लिहाज़ और प्रयास के अनुरूप शब्दों को आकार देती है. तदनुरूप शब्दों के उच्चारण बनते हैं, चाहे उनके मूल स्वरूप जो हों. 

अन्यथा, हम बिरहमन या रितु आदि-आदि जैसे शब्दों को भी हरा करना शुरु करेंगे !  हम हिन्दी लिहाज़ की ओर से क्यों न सोंचें ? फिर यह विवाद नहीं, अनगढ़ मज़ाक होगा !

सुबह को सुब्ह या असल को अस्ल आदि-आदि की जानकारी होना एक बात है, लेकिन उनको ग़ज़ल में प्रयुक्त भाषा के अनुसार हम स्वीकारें, न कि उर्दू भाषा में शब्दों के उच्चारण की मान्यता के अनुसार.  वर्ना, इन संदर्भों में कोई रूढ़ि नियमावलि ग़ज़ल को सदा-सदा उलझाये रखेगी. और देसी ग़ज़लकार अनावश्यक ही विवादों का हिस्सा बनते रहेंगे.

इसी संदर्भ में मिरे, तिरे आदि-आदि शब्दों के प्रयोग का चलन है, जो कि मात्रा गिराने के नियम के कारण अनावश्यक ही हिन्दी पाठकों के सामने प्रस्तुत होता है.  मान्य, स्वीकार्य और स्थापित अक्षरियों से यथासम्भव छेड़छाड़ न की जाये. मात्रा गिरा कर पढ़ने के समय जानकार पाठक समझ लेते हैं कि किस शब्द के किस अक्षर की मात्रा गिरी है. फिर मिरा या तिरा या ऐसे असहज शब्दों का लिखा/कहा जाना अरुचिकर होता है.

/जैसे अक्ल २१ को अकल १२ बाँधा जाए और अस्ल २१ को असल १२ तो उस मिसरे को हरा किया जायेगा,//

सौरभ जी,
मैंने यह बात राणा भाई से फोन पर हुई बात के आधार पर लिखी है जिसमें उन्होंने पिछले महीने कहा था कि अब वो आगे ऐसे शब्द के मिसरे को भी चिन्हित करेंगे जिसमें मूल वज्न की जगह शब्द को बदले रूप के अनुसार बाँधा गया है

किसी शब्द के तद्भव कहते ही उसकी स्वीकार्यता स्वस्पष्ट है इस पर बात करना ही अनुचित है कि बदले शब्द को स्वीकार नहीं किया गया ...
स्वीकारने का एक और प्रमाण है कि मिसरे को हरा किया जा रहा है न कि बेबहर मानते हुए लाल किया गया है अगर शब्द का बदला रूप स्वीकार ही न हो तो फिर मिसरा बेबहर माना जायेगा और लाल किया जायेगा
जैसे
अरुन शर्मा 'अनन्त'
बुरी नियत से दरिन्दे मचल के देखते हैं,
नीयत शब्द कभी नियत वर्तनी में स्वीकार नहीं हो सकता इसलिए इस मिसरे को लाल होना चाहिए

Tilak Raj Kapoor

सदा ही चाल औ तिकड़म कपट से काम लिया
को कभी १ मात्रा नहीं माना जा सकता है इसलिए इस मिसरे को लाल होना चाहिए

Ram Shiromani Pathak
विरह की आग में अब खुद को जल के देखते हैं !!

इस मिसरे में मुझे ऐसा कोई शब्द नहीं दिखा जिसको बदले रूप में प्रयोग किया गया हो,, हाँ इसमें शब्द विन्यास गलत है इसलिए इस मिसरे को नीला होना चाहिए

Sanju Singh 

सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं ,
सुबह१२  बहर१२ लिखने के कारण यह मिसरा हरा किया गया है  जो राणा भाई की सोच को स्पष्ट कर देता है ...

मैंने एक बार जब लाल काला किया था तो शब्द के बदले स्वरूप पर अपना विचार स्पष्ट किया था और राणा भाई को भी अभी कुछ दिन पहले सलाह दी थी कि अभी हरा रंग न अपनाईये  क्योकि यहाँ कोई उर्दू ज़बान या हिन्दी भाषा में नहीं लिख रहा है सभी हिन्दुस्तानी ज़बान के शाइर हैं इसलिए हरा रंग मुझे व्यग्तिगत रूप से संतुष्ट नहीं करता, तत्सम और तद्भव (मूल और बदले रूप )में जो जैसा उचित समझें प्रयोग करे इसको हरे रंग से चिन्हित करना ही व्यर्थ है

मेरे ख्याल से चर्चा द्वारा इस विषय पर खूब खूब बातें हुई हैं ...

मगर जब चिन्हित किया गया है तो उसमें जो विसंगतियाँ दिखी उनको मैंने चिन्हित करने का प्रयास किया है ...

सादर

अब तथ्य वाकई बहुत स्पष्ट हो कर सामने आये हैं, वीनस भाई.

 

भाषा में किसी मान्य और स्थापित हो चुके शब्द के हिज्जे या अक्षरी को बह्र के अनुसार परिवर्तित करना किसी ढंग से उचित नहीं होना चाहिये इसके प्रति हम आग्रही बनें.  वज़्न के अनुसार यदि मात्रा गिरानी हो तो सुधी पाठक इसे समझते हैं तदनुरूप मिसरे और उसमें प्रयुक्त शब्द को स्वीकार कर लेंगे.

इस छोटी किन्तु अति महत्त्वपूर्ण चर्चा पर समय देने के लिए धन्यवाद. विश्वास है, अपनी बातचीत से अन्य पाठकों और ग़ज़लकारों के लिए स्पष्टता बनेगी.

इसके आगे मेरे पास बस यही कहने को बचता है कि यदि ग़ज़ल में कोई शाइर, शब्द के बदले वज्न को इस्तेमाल करता है तो उसी ग़ज़ल में उसी शब्द को मूल वज्न में इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना चाहिए ...

क्योकि फिर // हम तो हिन्दी के हैं भई // की टेक हास्यास्पद हो जाती है 

वैसे काइदे से तो हमेशा एक नाव पर चलने वाला ही अपनी विचारधारा को साबित कर सकता है, अन्यथा समग्र लेखन की समीक्षा होती है तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है ... 

यह भी सही कहा आपने.

एक ही ग़ज़ल में एक ही शब्द के दो रूप    --यानि हिन्दी प्रारूप और उसी शब्द का उर्दू प्रारूप, यदि है तो--   कत्तई मान्य नहीं होने चाहिये.  न इसके प्रति कोई आग्रह. 

यानि एक शाइर शहर और शह्र एक ही ग़ज़ल में साथ ले कर न चले.

(क्यों नहीं ?  इसके पीछे कोई तार्किकता मुझे समझ में नहीं आयी. लेकिन स्टैण्ड भी कोई चीज़ होती है.. )

लेकिन, यह भी स्पष्ट कर दूँ कि रक्त के लिए एक ही ग़ज़ल के मुख़्तलिफ़ अश’आर में या एक ही शेर में भी ख़ून, लहू और लोहू जैसे शब्द पूर्णतया स्वीकार्य व मान्य हैं.

तर्क ये है कि शब्द के बदले रूप को (जो उर्दू ग़ज़ल में मान्य नहीं है और उर्दू अनुसार देखें तो जिससे शेर बेबहर हो जाता ही) ग़ज़ल में प्रयोग करने वाले शाइर की एक ही टेक होती है

// हम तो हिन्दी के हैं भई // अब इस टेक के बाद शाइर शहर और शह्र एक ही ग़ज़ल में साथ ले कर चलेगा तो हास्यास्पद नहीं हो जायेगा ??? // हम तो हिन्दी के हैं भई // का तर्क वहीं ध्वस्त नहीं हो जायेगा ..

एहतराम साहब के लेख का एक अंश यहाँ प्रासंगिक हो गया है ...

दुष्यन्त कुमार का रचनाकार ‘उर्दू ग़ज़ल से कहीं गहरे तक प्रेरित और अनुप्राणित है.’ भाषा में आयातित फ़ारसी तथा अरबी मूल के शब्दों के साथ ‘इज़ाफ़त’ और ‘वाव-ए-अत्फ़’ का प्रयोग उसे (उर्दू शैली या धारा की पहचान प्रदान करवाता है. यांे भी कह सकते हैं कि हिन्दी में ‘इज़ाफ़त’ और ‘वाव-ए-अत्फ़’ का प्रयोग उसे) हिन्दी नहीं रहने देता और दुष्यन्त ने ‘साये में धूप’ की ग़ज़लों में सूरते-जां, हालाते-जिस्म, अहले-वतन, रौनके़-जन्नत, जज़्ब-ए-अमजद, पेश-ए-नज़र, महवे-ख़्वाब, फ़स्ले-बहार, पाबन्दी-ए-मज़हब, शरीक-ए-जुर्म जैसे ‘इज़ाफ़त’ युक्त तथा मस्लहत-अ़ामेज़, गै़र-आबाद, तिश्ना-लब, नज़र-नवाज़ जैसे समास-रेखित तथा तहज़ीब-ओ-तमद्दुन, आरिज़-ओ- रुख़सार, साग़र-ओ-मीना, आमद-ओ-रफ़्त, जैसे ‘वाव-ए-अत्फ’ वाले दुराहे- शब्द युग्मकों का प्रयोग धड़ल्ले से किया है. इन शब्द-युग्मकों को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाए तो भी ‘कि मैं उर्दू नहीं जानता’ जैसी घोषणा के बावजूद ग़ज़लों में बरगश्ता, मरासिम, तसव्वुर, अहाता, हल्क़ा, तिलिस्म, रबाब, अदावत, मुस्तहक़, अलामात, मुजस्सम, सदक़ा और आक़बत जैसे शब्दों का उन्मुक्त प्रयोग दुष्यन्त कुमार को उर्दू के उन शाइरों की पंक्ति में खड़ा करवाने के लिए काफ़ी है जिनके सर पर उर्दू को फ़ारसी-अरबी शब्दों से बोझिल करने का आरोप है. दुष्यन्त पर उर्दू का माहौल ऐसा हावी है कि वे ‘होम’ और ‘हवन’ जैसे विशुद्ध संस्कृत शब्दों पर भी ‘वाव-ए-अत्फ़’ का प्रयोग करते हुए, उनसे ‘होेमो-हवन’ जैसा शब्द-युग्म बनाते हैं. ....

क्रमशः

................

तथापि, उनकी आत्मा से क्षमा-प्रार्थना सहित, यह बात कहने का साहस जुटाना होगा, कि अपनी अति संक्षिप्त भूमिका में ‘मैं स्वीकार करता हूं....’ शीर्षक के तहत उन्हांेने ‘शहर’ शब्द को लेकर जिस प्रकार की कज-बहसी (कुतर्क) से काम लिया है, उसने उनकी स्थिति को हास्यास्पद बना दिया है. दुष्यन्त कुमार फ़रमाते हैं.....‘कुछ उर्दू-दां दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है. उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है ‘वज़न’ नहीं वज़्न होता है. आगे लिखते है......‘कि मैं उर्दू नहीं जानता लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहां अज्ञानतावश नहीं, जानबूझ कर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूं, किन्तु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिन्दी में घुल-मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है.’
आइए, देखें कि दुष्यंत अपने दावे की लाज कहां तक रख पाए हैं. ‘साये में धूप’ की पहली और मशहूर ग़ज़ल ‘कहां तो तय था चिराग़ां हरेक घर के लिए’ में इस्तेमाल किए गए क़ाफि़ये घर, भर, सफ़र, नज़र असर आदि है. इन क़ाफि़यों की पंक्ति में स्थान देने (या खपाने) के लिए किसी भी शाइर की मजबूरी है, चाहे वो दुष्यन्त कुमार हो या मिजऱ्ा ग़ालिब, कि वो शब्द ‘शह्र’ को ‘शह्र’ का रूप देने का जीवट दिखाए. सो दुष्यन्त कुमार ने अपनी उक्त ग़ज़ल के दो अश्आर में, लफ़्ज ‘शह’ को, अपने दावे के अनुसार अज्ञानतावश नहीं, जानबूझ कर ‘शहर’ का रुप दिया और क़ाफि़ये के रुप में प्रयुक्त किया. लेकिन संकलन की तीसरी और 16वीं ग़ज़ल मंे उनके दावे और शब्द-ज्ञान दोनों की पोल खुल जाती है, जिसमें वे ‘शह्र’ को ‘शह्र’ ही के रूप में इस्तेमाल करने की ‘चूक’ से स्वयं को बचा नहीं पाते.
तीसरी और सोलहवीं ग़ज़लों के सन्दर्भित अश्आर क्रमशः निम्नवत है।
‘तुम्हारे शह्र में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में केाई हांका हुआ होगा.’
‘शह्र की भीड़-भाड़ से बचकर,
तू गली से निकल रही होगी.’
लुत्फ़ की बात यह है कि उपर्युक्त दोनों अश्आर में ‘शह्र’ शब्द को उसके तत्सम रूप में यानी ‘शह्र’ उच्चारण के साथ ही इस्तेमाल करने के बावजूद दुष्यन्त कुमार ने संभवतः अपनी बात ऊपर रखने के उद्देश्य से, लिखा ‘शहर’ ही हैं.
शब्दों के उच्चारण को लेकर दुष्यंत कुमार ने व्यवहार के हवाले से अरबी मूल के शब्द ‘सुबह’, फ़ारसी मूल के शब्द ‘बर्फ़’ और संस्कृत मूल के शब्द ‘स्मरण’ के प्रति उनका रवैया और भी दिलचस्प तथ्य सामने लाता है. मानना चाहिए कि जिस तरह दुष्यन्त उर्दू के ‘शह्र’ को हिन्दी में ‘शहर’ के रूप में घुला-मिला मानते थे वैसे ही वे ‘सुब्ह’ को ‘सुबह’ के रूप में और ‘बर्फ़’ को बरफ़ के रूप में घुला-मिला मानते रहे होंगे. सो उनके द्वारा ‘सुबह’ और ‘बरफ़’ रूपों का प्रयोग सर्वथा स्वाभाविक माना जा सकता है. उनके अश्आर उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है.
‘हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत,
तुमने बासी रोटियां नाहक़ उठाकर फेंक दीं.’
                   (ग़ज़ल सं0 42)
‘फिर मेरा जि़क्र आ गया होगा,
वो बरफ़ सी पिघल रही होगी.’
                   (ग़ज़ल सं0 16)
लेकिन संकलन में ही, अन्यत्र वो अपने इस दावे की लाज नहीं रख पाते कि वो उर्दू शब्दों के इस्तेमाल को उसी रूप में उचित मानते हैं जिस रूप में वे हिन्दी में घुल-मिल गए हैं.
‘शब ग़नीमत थी लोग कहते हैं,
सुब्ह बदनाम हो रही है अब.’
             (ग़ज़ल सं0 44)
‘यों मुझको ख़ुद पे बहुत एतबार है लेकिन,
ये बर्फ़ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं.’
             (ग़ज़ल सं0 13)
अब आइए दुष्यन्त कुमार के शब्द-प्रयोग के हवाले से संस्कृत मूल के शब्द ‘स्मरण’ का कुशल-क्षेम जाने जिसे उन्होंने अपने एक शे’र में वाचित रूप से ‘अस्मरण’ बना दिया है.
‘वे संबंध अब तक बहस में टंगे हैं,
जिन्हें रात-दिन (अ) स्मरण कर रहा हूं।’
             (ग़ज़ल सं0 8)
दुष्यन्त कुमार से यह चूक शायद इसलिए सरज़द हुई कि तीन मात्राओं वाला ‘स्मरण’ शब्द आम बोल-चाल में प्रायः पांच मात्राओं वाला ‘अस्मरण’ बनकर ही सामने आता है. यहां मैं यह बात स्पष्ट करता चलूं कि ग़ज़ल में भाषाई तथा शिल्प संबंधी प्रयोगों पर  केन्द्रित उपर्युक्त चर्चा में दुष्यन्त मात्र का सन्दर्भ निस्सन्देह सोद्देश्य हैं. ग़ज़ल के आम साधकों तक यह सन्देश पहुंचाना आवश्यक महसूस हुआ कि आलोचना किसी भी कलाकार को नहीं बख़्शती, चाहे वह दुष्यन्त कुमार जैसा क़द्दावर ग़ज़लकार ही क्यों न हो. लेकिन, साथ ही यह बात भी साफ़ होनी चाहिए कि किसी ख़ूबसूरत बाग़ीचे के सूने या कटीले कोनों पर निगाह पड़ने से समूचे बाग़ीचे की ख़ूबसूरती या महत्व में कोई कमी नहीं आती.
जनाब एहतराम इस्लाम के लेख 'हिन्दी वाङ्मय और ग़ज़ल' से कुछ अंश साभार
(नया ज्ञानोदय ग़ज़ल विशेषांक जनवरी २०१३ तथा गुफ़्तगू उर्दू ग़ज़ल विशेषांक दिसंबर २०१२ में प्रकाशित)

अपनी भाषा और समझ के परिप्रेक्ष्य में रचनाकर्म करना न कभी किसी अवरोध को मानता है न ही अनुचित है, चाहे अति संवेदनशील समझ ली गयी ग़ज़ल की ही विधा क्यों न हो.

ग़ज़ल को उर्दू (जो कि इतनी विशिष्ट तथा प्रोटेक्टेड भाषा बाद में बनी. साथ ही प्रयोगकर्ताओं की सोच में अनाश्यक अहं के व्याप जाने का कारण बनी, बहुत बाद में) की आत्ममुग्ध निग़ाह ने जितना अलगा-थलगा किया है उसका ख़ामियाज़ा ग़ज़लकार नहीं खुद ग़ज़ल उठाती रही.  भला हो समरस शब्दावलियों का कि जिनके उदार प्रयोगों से यह बच गयी.  यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. अब कोई इसे माने या न माने. वर्ना सत्तर-अस्सी के दशक तक आते-आते ग़ज़ल विधा स्पष्टतः हाशिये पर चली गयी थी.

अब इसकी संयत चल रही और लगातार व्यवस्थित हो रही साँस को चाहे जिस नाम से पुनः अवरुद्ध करने का चक्र चले.  एक आम विधा के तौर सदा प्रताड़ित ग़ज़ल ही होगी.

वैसे प्रस्तुत किये गये उद्धरण का मैं सम्मान करता हूँ. ग़ुफ़्तग़ू से ताल्लुक होने के कारण उपरोक्त आलेख को मैंने पढ़ा भी है. लेकिन इसकी वैसी आवश्यकता यहाँ कितनी थी यह भी रोचक विषय होगा.

ग़ज़ल ही नहीं ग़ज़ल कहने वाले...  और इसे निभाने वाले भी..  अब आगे बढें .    :-))

badhiya chrcha hui ... baat nikali to door tak gai ... :))))))

सौरभ पाण्डेय जी मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ।
उर्दू आदि के जो शब्द हिन्दी ने जिस तरह स्वीकार कर लिये हैं हिन्दी ग़ज़ल में उन्हें उसी तरह लिखा जाना चाहिये।
इस संदर्भ में हिन्दी ग़ज़ल के आदि पुरुष दुष्यंत जी की भूमिका हमारे लिये मानदण्ड स्थापित करती है। ‘साये में धूप’ की भूमिका में उन्होंने बड़े स्पष्ट तौर पर आने वाली हिन्दी ग़ज़लकारों की पीढ़ी के लिये यह तथ्य प्रतिपादित किया है। हम हिन्दी में लिख रहे हैं - हिन्दी का मिजाज नहीं छोड़ सकते। हम ब्राह्मण को बिरहमन नहीं लिखेंगे। मेरा को मिरा नहीं लिखेंगे।

मेरे कहे के मर्म तक पहुँचने के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई सुलभजी.

मेरा आशय शाब्दिकता को लेकर अन्यथा विवाद करना न हो कर शब्दों के स्वरूप की स्थायी मान्यता को स्वीकार करना है.

कोई शब्द किसी भाषा में उस भाषाको बोलने वाले लोगों के भौगोलिक परिवेश, स्वर-व्यवहार और भाव संस्कार के अनुसार स्वरूप ग्रहण करता है. इसी कारण अंग्रेज़ी या हिन्दी के वैश्विक स्तर पर कई स्वरूप प्रचलित और मान्य हैं.

शभ-शुभ

//मेरा आशय शाब्दिकता को लेकर अन्यथा विवाद करना न हो कर शब्दों के स्वरूप की स्थायी मान्यता को स्वीकार करना है.//

सौरभ जी
इस विषय में मेरा सोचाना यह है कि यह स्वीकारोक्ति तभी संभव है जब ग़ज़लकारों का एक बड़ा वर्ग समीक्षक और आलोचक की परवाह न कर के लगातार शब्द के बदले प्रारूप को अपनी ग़ज़लों में प्रयोग करना शुरू कर दे
अभी हम इस पर केवल बात कर रहे हैं ...
जो खुल कर इसके समर्थन में हैं वो भी अपनी ग़ज़लों में इसे अपनाने में हिचकते है, बस यही पर बात बनते बनते बिगड जाती है 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Apr 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Apr 29
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service