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"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-79 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

 

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-79 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

विषय - "छाँव/छाया"

आयोजन की अवधि- 12 मई 2017, दिन शुक्रवार से 13 मई 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

 

ग़ज़ल - तस्दीक अहमद खान

 

यह सोच के ले कर आया हूँ मैं राह में क़िस्मत की छाया|

मुझको भी किसी दिन मिल जाएगी मंज़िले उलफत की छाया|

 

मैं ने तो छुपाई हंस हंस कर दुनिया से ग़रीबी अपनी मगर

चेहरे ने मेरे शीशा बन कर दिखला दी हक़ीक़त की छाया |

 

कुछ एसे भी बद क़िस्मत इन्सा रहते हैं ज़माने में यारो

फुट पाथ पे जो सो जाते हैं क़िस्मत में नहीं छत की छाया|

 

मत काटिए एसे दरखतों को रस्ते में खड़े हैं जो यारो

देते हैं थके हारे हर इक राही को ये राहत की छाया |

 

गम मुझ को यही है करके वफ़ा भी राहे मुहब्बत में लोगों

हो पाई नहीं मुझको हासिल दिलबर की इनायत की छाया |

 

वो चाहे अगर तोहो जाए धनवान भी मुफ़लिस पल भर में

मगरूर है क्यूँ क़ारूने जहाँ तू पाकर दौलत की छाया |

 

तस्दीक़ सुना है लोगों से वो आशिक़ क़िस्मत वाला है

हासिल है जिसे इस दुनिया में दिलबर की मुहब्बत की छाया|

दोहे- बसंत कुमार शर्मा

 

 

बया बनाती  घोंसला, काँटों का है गाँव|

अद्भुत पेड़ बबूल का, देता उसको छाँव||

 

पाल रहे आतंक जो, देकर अपनी छाँव|

सारे जग में एक दिन, पा न सकेंगे ठाँव||

 

माँ के आँचल की मिली, जब तक शीतल छाँव|

खुशियों का था आगमन, रोज हमारे गाँव||

 

थका नहीं है हौसला, भले थके हैं पाँव|

पीपल बूढा हो गया, देते देते छाँव||

 

क्षणिकाएँ- मोहम्मद आरिफ

 

(1) नहीं मिल

पाती है जब

छाँव ममता की

तो कभी-कभी

कई मासूम ज़िंदगियाँ

अनाथ हो जाती है ।

 

ग़ज़ल- मनन कुमार सिंह

 

 

आओ बैठें छाँव तले हम

थोड़ा जी लें छाँव तले हम।

 

आज तलक औरों ने कह ली

कुछ बतिआयें छाँव तले हम।

 

गोद भरी माँ की, पुतली से

दूर बलाएँ,छाँव तले हम।

 

लग्न हुआ, ललना इठलाई,

स्वप्निल अलकें,छाँव तले हम।

 

चाकरी की चक्की चलती

कायम कर्मों के छाँव तले हम।

 

राज किया करते जो,काबिल

कहते-'कुर्सी के छाँव तले हम।

 

और दलाली के धंधे में

पनपे जो,कहते-छाँव तले हम।

 

 

 

(2) ममता की

छाँव तले/ कई ज़िंदगियाँ

किलकारियाँ भरती है

जिसे देखकर/ स्वयं ईश्वर भी

गदगद हो जाता है ।

 

(3) कोई फ़र्क/ नहीं पड़ता है

चाहे माँ के/ आँचल की छाँव हो

या घने पेड़ की/ दोनों सुस्ताने का

अच्छा आश्रय साबित होती है ।

 

(4) भीषण गरमी में/ गुल मोहर की छाँव

होती है सहारा/ भीतर की बेचैनी

और बाहर के/ ताप को शांत करने हेतु ।

 

(5) एक दिन ग़ुस्से में

चिलचिलाती बोली धूप

मुझमें चुभन है/ जलन है,शोले हैं

होकर सहज बोली छाँव

तेरी चुभन , जलन, शोलों को

शांत करने हेतु मैं हूँ ।

 

कुण्डलिया छंद- अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

 

1. 

 

रोटी मिर्ची प्याज से, भरा हुआ है पेट।

शीतल छाया पेड़ की, गया वहीं पर लेट॥

गया वहीं पर लेट, छाँव लगती है प्यारी।

पंखा झलते पात, मिट गई सुस्ती सारी॥

मजदूरों की जात, पहन बंडी लंगोटी।

दिन भर करते काम, मिले तब सूखी रोटी॥

 

2.

 

कटे पेड़ गमले सजे, मिले कहीं न छाँव।

छोड़ शहर की जिंदगी, चल मामा के गाँव॥

चल मामा के गाँव, छुट्टियाँ वहीं बितायें।

नदिया के उस पार, रोज अमराई जायें॥

गाँवों में है प्यार, स्वार्थ में कभी ना बटे।

हैं अच्छे संस्कार, इसलिए पेड़ ना कटे॥

क्षणिकाएँ- प्रतिभा पाण्डे

 

1- इसके नीचे बैठ

घण्टों  हँसी ठट्टा किया करते थे

बाबूजी और रहमत चाचा

अब  बिना आँख मिलाये

पास से निकल जाते हैं

 बहुत  उदास  है मेरे  गाँव का

 घना नीम आजकल

जाने किसकी नज़र लग गई है

इसकी  छाँव पर

 

2- तुम्हारी छाँव के मोह ने

मुझसे छीन ली है मेरी धूप

बरगद होने का अहम् पाले

तुम कहाँ  समझ पाओगे

कि अब  कितना झुलसाती है

ये छाँव

द्विपदियाँ - सतीश मापतपुरी

 

धूप और धूप ही तो हर तरफ पसर गयी ।

छाँव तो बदल ली ठाँव जाने किससे डर गयी ।

 

तीखी धूप लग रही है हाट में - बाजार में ।

लूट और खसोट भर गयी सेठ - साहूकार में ।

 

छाँह की पनाह खोजते गरीबी मर गयी ।

छाँव तो बदल ली ठाँव जाने किससे डर गयी ।

 

लम्बी - चौड़ी बातें करके जानें वो किधर गये ।

छाया देंगे आपको ये कह के वो मुकर गये ।

 

रूप देख धूप के ये ज़िन्दगी सिहर गयी ।

छाँव तो बदल ली ठाँव जाने किससे डर गयी ।

 

मैली बनियान पर धवल कमीज चढ़ गयी ।

कल जो था उचक्का आज शान उसकी बढ़ गयी ।

 

वोट में जो खोट की वो चोट दिल में भर गयी ।

छाँव तो बदल ली ठाँव जाने किससे डर गयी ।

 

क्षणिकाएँ-  नादिर ख़ान

 

(1) पूर्ण विराम तक के सफर में

सांसें छोड़ देती हैं जब साथ

शख्सियत ज़िंदा रहती है

यादों की छाँव तले ....

 

(2) घुटनों के बल/ तो कभी नन्हें कदमों से

चहल कदमी करती/ शर्माती गुदगुदाती

खट्टी – मीठी/ यादों की छाँव

विचरण करती है

सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल तक

और तलाशती है वजह

अपने होने का ....

 

(3) दिलों में दरार जब पड़ गई

आँगन में दीवार भी उठ गई

मगर बरगद की छाँव/ रोज़ जाती है

इस पार से उस पार

बिना भेदभाव के

ज़िम्मेदारी के साथ ....

 

पृच्छाया(अतुकांत)- डॉ. टी. आर. शुक्ल

 

धरती का तीन चौथाई भाग पानी में डूबा है,

फिर भी हम बूंद बूंद पानी को तरसते हैं ?

धरती पर हर वर्ष प्रचुर खाद्यान्न उत्पन्न होता है,

फिर भी लाखों लोग भूखों मरते हैं ?

पृथ्वी की सभी वस्तुएं सभी की सम्मिलित सम्पदा है,

फिर भी कुछ लोग उस पर एकाधिकार जता दूसरों को जीने से वंचित रखते हैं ?

सामाजिक असमानता और भिन्नता की चक्की में ,

महिलाएं और बच्चे ही पिसते हैं ?

दिग्भ्रमित युवावर्ग कामान्ध मृगजल में डूब

खोता जा रहा है पारिवारिक नैतिक मूल्य ?

. . . ऐसे ही अनेक,

लम्बे समय से संचित,

बार बार परेशान करते, एक एक प्रश्न जुड़ते,

विशाल पृच्छाया बन गए।

 

इन प्रश्नवाणों को रोज पैना करते सोचता

कि जब कभी तुम मिलोगे मेरे प्रियतम ! तो

एक साथ प्रहार कर तुम्हें बेचैन कर दूंगा ।

छक्के छुड़ा दूंगा, तुम्हारी हेकड़ी भुला दूंगा,

और नहीं , तो पसीने से तर तो जरूर ही कर दूंगा।

परसों, मैंने तुम्हें ललकारा !

नृत्य करती जिव्हा की कमान पर तानकर इन्हीं शरों को ।

पर , तुमने सामना ही नहीं किया,

तुम नहीं आए ? लगा, डर गए ?

दिनरात की प्रतीक्षा के बाद

कल,

मैंने तुम्हें पराजित घोषित कर दिया।

 

आज, फिर

जब मैं इनकी कुशाग्रता देखकर क्षुब्ध हुआ, तब

एक अनोखी लहर ने

तुम्हारी, कृपाच्छादित सीमा में अचानक धकेल दिया।

ए मेरे अभिन्न ! यह कैसा सम्मोहन?

मैं अपने को ही भूल गया,

वहां थे, तो केवल तुम और केवल तुम !

तीक्ष्ण प्रश्न.तीरों से भरा तूणीर भी लुप्त हो गया !

प्रश्नाघात करने को सदा आतुर

थिरकती जिव्हा भी मौन !

अब ! क्या ? किससे ? क्यों ? प्रश्न करे कौन ?

ग़ज़ल- अशोक कुमार रक्ताले

 

जाने क्या खाकर सूरज आता है

अब छाया में भी तन झुलसाता है

 

कम पड़ती है अब छाया बरगद की

हर दुपहर मेला सा लग  जाता  है  

 

कम  होती है आवाजाही पथ पर

सारा दिन सूरज आँख दिखाता है 

 

बच्चे कब किसकी माने हैं बातें

इनसे तो सूरज भी  घबराता है

 

मिल जाए तो नहीं छूटती छाया

अबतक का अनुभव ये बतलाता है

 

वृक्ष काटकर बहुधा ये मानव ही

निज सुख में हरदिन आग लगाता है

 

हरे वृक्ष और मूल्य उस छाया का

मानव तपकर भी समझ न पाता है

 

 

 

तुकांत कविता- श्याम मठपाल

 

तपती दोपहरी ,दूर बहुत गाँव

स्वर्ग सी लगती ,नीम की ये छाँव

 

पथरीले रास्ते,नंगे मेरे पाँव

बियाबान डगर में,मिलती नहीं छाँव

 

पग-पग पर छल है ,हर क्षण पर दाँव

अमृत सा लगता ,आँचल का ये छाँव

 

शहीद का शव पहुंचा,आज अपने गाँव

पेड़ पोंधे सूख गए ,कहाँ मिलेगी छाँव

 

तन-मन जल रहे ,कहाँ कदम बढावूं

बैरन भये सभी,मिले न कोई छाँव

 

नफरत है हवा में ,कौवे करें काँव

मरहम के लिए चाहिए,प्रेम प्यार की छाँव

 

अतुकांत - ब्रिजेन्द्र नाथ मिश्र

 

 

धूप से छाले सहे पर,

छाँव के सुखभोग कहाँ?

 

 

कल्पनाओं के क्षितिज पर,

जो सपन मैं बुन सका था |

जिंदगी की कशमकश  में,

भी उसे मैं जी सकूँगा |

परिंदों की तरह,

अपने घोंसले  को देखकर,

सूंघकर उसकी सुगंध को

 पी सकूंगा |

 

पत्थरों पर सूर्य - किरणें,

तपिश - सी दे रही,

पांव के छालों को

आराम का संयोग कहाँ?

धूप से छाले सहे पर

छाँव के सुखभोग कहाँ?

 

वेदना के शीर्ष पर

सब भाव पिघलते जा रहे |

आशाओं की आस में,

सब अर्थ धुलते जा रहे |

 

पोर - पोर पीर से

भर उठा है, क्या कहूं?

दर्द के द्वार पर,

आह के उदगार रीते जा रहे |

 

छीजती इस जिंदगी को,

हँस - हँस कर जी सकूँ,

कोई कोई कर सके तो करे,

मेरे बस में ये प्रयोग कहाँ?

धूप से छाले सहे

पर

छाँव के सुखभोग कहाँ?

 

दलदल भरी कछार में,

दरार होती नहीं |

बाढ़ में जो बह गए,

उन वृक्षों की शाखों पर,

कभी बहार होती नहीं |

 

चिड़ियों की चहचहाहट

अब यादों  में  बसती है |

जड़ से जो उखड गए,

उनमें संवार होती नहीं |

 

जो खो चुके सबकुछ

इस सफर में उस सफर में |

उन्हें और कुछ भी

खोने का वियोग कहाँ?

धूप से छाले सहे

पर

छाँव के सुखभोग कहाँ?

हाइकू- मनीषा सक्सेना

रूप सुंदरी

कामकाजी कुशल

लाड़ली छाया

आपाधापी में

बढती ज़रूरतें

नौकरी छाया

कामकाजी मां

हो घर में आराम

महरी छाया

बौस भी चाहे

दायें बाएं भी करे

क़ानून छाया

स्कूल है छूटा

लगा घर में ताला

डे स्कूल छाया

मन परेशां

ग्रहजनित शंका

दें छाया दान

छाया नाट्य

व्हाट्सेप ज़माना

खो कर पाया

जीवन शाम

मुझसे बड़ी छाया

असीम सुख

शिशु खेलता

अपनी ही छाया से

छत्र-छाया में

१०

पड़े हैं लाले

छायादार वृक्षों के

विकास कहें

११

सूर्य चन्द्र की

छाया बनी ग्रहण

तर्क विज्ञान

१२

छत्र छाया से

महरूम शैशव

भटका युवा

१३

छाया है यन्त्र

बनी है विरासत

करे गणना

१४

मेरी छाया

दिखाती छाया चित्र

दिल बहला

 

कुण्डलियाँ छंद- सतविन्द्र कुमार

 

 

(1)

 

होते हैं परिवार में,पूर्वज वृक्ष विशाल

छाया जिनकी में रहें,छोटे सभी निहाल

छोटे सभी निहाल,नहीं दुख कोई पाते

उनके कष्ट अनेक,बड़े खुद पर ले जाते

सतविन्दर कविराय,उन्हीं के कारण सोते

लुट जाता सब चैन,अगर वे साथ न होते।

 

 

(2)

ऐसे भी कुछ लोग हैं,जो सुख जाते भोग

जन्में जिस परिवार में,वही बनाता योग

वही बनाता योग,नहीं कुछ पड़ता करना

मिला बाप का नाम,नहीं कुछ करना-धरना

सतविन्दर कविराय,पास पप्पू हों कैसे?

पिता नाम की छाँव,मिले तब पढ़ते ऐसे।

 

 

(3)

कटते जाते वृक्ष सब,घटते जाते गाँव

धूप नगर-सी फैलती,सिमट रही है छाँव

सिमट रही है छाँव,नहीं चलता अब चारा

बस रोजी की भूख,समुख है मानव हारा

सतविन्दर कविराय,प्रकृति से हैं जन हटते

होकर वे लाचार,देखते वन को कटते।

हाइकू- कल्पना भट्ट

 

घर के बड़े

बरगद की छाँव

लगते हरे ।

 

आँगन सूना

गर्मी की है तपिश

नहीं हैं छाँव ।

 

पूर्ण नहीं है

धूप कभी कहीं से

छाँव बगैर ।

 

छाया की चाह

होती है सभी को

देते कितने ।

 

खोजती आँखें

छाँव चलते हुए

गर्मी लगती ।

 

छाँव नहीं हैं

बढ़ रही भीड़ है

पेड़ लगाओ ।

 

पशु पक्षी की

लूट गयी है छाँव

मानव चोर ।

 

छाँव-  बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

 

 

जिंदगी जीने की राहें मुश्किलों से हैं भरी,

चिलचिलाती धूप जैसा जिंदगी का है सफर।।

 

हैं घने पेड़ों के जैसे इस सफर में रिश्ते सब,

छाँव इनकी जो मिले तो हो सहज जाती डगर।।

 

पेड़ की छाया में जैसे ठण्ड राही को मिले,

छाँव में रिश्तों के त्यों गम जिंदगी के सब ढ़ले।

कद्र रिश्तों की करें कीमत चुकानी जो पड़े,

कौन रिश्ते की दुआ ही कब दिखा जाए असर।।

 

भाग्यशाली वे बड़े जिन पर किसी की छाँव है,

मुख में दे कोई निवाला पालने में पाँव है।

पूछिए क्या हाल उनका सर पे जिनके छत नहीं,

मुफलिसी का जिनके ऊपर टूटता हर दिन कहर।।

 

तुमको देने छाँव जो हर रोज झेले धूप को,

खुद वो काले पड़ गए तेरे निखारे रूप को।

उनके उपकारों को जीवन में 'नमन' तुम नित करो,

उनकी खातिर कुछ भी करने कुछ न छोड़ो तुम कसर।।

कविता- कल्पना भट्ट

 

पुछ रही है छाँव हमसे

धुप में ही क्यों याद करते हो

शीतलता की जरुरत जब होती

तभी तुम क्यों याद करते हो

तन्हा होती हूँ जब मैं कभी

मुंह मोड़कर चल देते हो

अपने स्वार्थ की खातिर ही

बस तुम याद मुझको करते हो

वक़्त को बदलते देखा हैं मैंने

तुम भी बदलते रहते हो

जिस छाँव में पले बड़े हो

उसीको भला बुरा कहते हो

बरगद हो या पीपल की छैयां

तुमको हम ने ही तो  सींचा है

तुम बड़े हो सको इसलिए

तुम्हारी धुप से खुद को तपाया है

आज खुद को देखो ज़रा

हाल क्या अपना किया है

जिस छाँव ने सहारा दिया था

उसी छाँव से तुमने मुंह मोड़ा है |

 

 

गजल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

 

जिससे किस्मत छीना करती यारों आँचल छाँव

उस को तपते जीवन पथ पर देता बादल छाँव।1।

 

आँधी तूफाँ नीड़ उजाडे बिछड़ें जननी तात

नन्हीं चिड़िया सुख से सोती पाकर कोंपल छाँव।2।

 

जबतब क्रोधित होकर उगले सूरज नभ से आग

खेत हरे जब तपते जलते करते बादल छाँव।3।

 

अलसाया मन हर्षित हो कर झटपट जाता जाग

जब जब नूतन सपना पलता यारो काजल छाँव।4।

 

सज्जन कहते मत त्यागो तुम यह कर्मों की रीत

चाहे दुर्दिन मिट जाते हों पाकर अंजल छाँव।5।

 

संगत से कब बदला करता जो फितरत का दास

त्याग न पाया जैसे विष को विषधर सन्दल छाँव।6।

 

हाँफ हाँफ   कर  रेतीले  पथ  ढूँढा  करती  धूप

जंगल जंगल छिपती फिरती लेकिन घायल छाँव।7।

 

तपन भरे मरूथल में जैसे है प्यासे को ओस

दहशतगर्दी के आलम में वैसी साँकल छाँव।8।

 

कितना ताप हरेगी कहना है उसका अपमान

आशीषों की वर्षा करती पलपल करतल छाँव।9।

 

पेड़ लगाकर एक देखना तुम भी आँगन और

सूने जीवन में भर देगी हर कोलाहल छाँव।10।

 

उड़ जाता है हंस खुशी से भवसागर के पार

थमती साँसों को मिलती है जब गंगाजल छाँव।11।

 

 

दोहे- अशोक कुमार रक्ताले

 

अपनेपन की घट रही, गली-गली नित छाँव |

बहुत भुरभुरे हो गए , अब रिश्तों के गाँव ||

 

उन वृक्षों की दुर्दशा , देख ह्रदय सकुचाय |

जिनकी छाया बिन कभी, जीवन सँवर न पाय||

 

छाँव न देगा उम्रभर, लालच का यह कक्ष |

इसके होते हैं विरल, बहुत विरल सब पक्ष ||

 

नहीं छाँव का धूप से , होता कोई वैर |

मगर धूप सम्मुख नहीं, फैलाती वह पैर ||

 

अमराई में उग रहे , चारों ओर बबूल |

लापरवाही से हुई, सुख की छाया धूल ||

 

 

अतुकांत - सुशील सरना

 

लो अलंकरण हो गया

सड़कों से

अब हर गाँव का

और रिश्ता टूट गया

पगडंडी से

हर पाँव का

दूर तलक है तपन

अब खेत

न खलिहान हैं

कंक्रीट के जंगलों में

संवेदनहीन मकान हैं

हर तरफ है धुंआ

और ट्रैक्टरों का शोर है

 

गीत- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

 

प्यार लुटाती खुश होकर माँ, अपने मन के गाँव में |

आँख मिचोली खेले बच्चा, माँ ममता की छाँव में ||

 

कभी सुलाती अपने ऊपर, करती प्यार दुलार

दूध पिलाकर अपने तन का, करे उसे तैयार |

बच्चें को तो माँ का सीना, जैसे बरगत ठाँव में

आँख मिचोली खेले बच्चा, माँ ममता की छाँव में |

 

माँ की ममता प्रभु भी चाहे, लेते तब अवतार,

कृष्ण यशोदा के आँगन में,पाते प्यार आपार |

उधम मचाते तभी यशोदा, डाले बेडी पाँव में,

आँख मिचोली खेले बाच्चा, माँ ममता के छाँव में |

 

चन्दन सा मन होता माँ का, महके घर परिवार,

गुलमोहर की छाँव तले माँ, बच्चे को दे प्यार |

बिन माँ के बच्चे का जीवन,  बीते करते काँव में,

आँख मिचोली खेले बच्चा, माँ ममता की छाँव में ||

तन्हा बैल

टूटा हल

और सूनी सूनी भोर है

घास फूस की झोपड़ियां

और वो चूल्हे

जाने कहाँ गए

पनघट,कुऍं

पायल, गौरी

अब सब स्वप्न के नाम हैं

छाया वाले पेड़ों के

अब शेष

ठूंठ से अवशेष हैं

बदले हुए परिवेश में

हर शख़्स का बदला भेस है

सियासतदारों ने कैसा किया

विकास देश के गाँव का

साथ पेड़ों के मिटा दिया

 

 

दो मुक्तक- दयाराम मेठानी

 

(1)

ज़िन्दगी की दौड़ धूप में कुछ छाँव भी मिलना चाहिये,

विकास के दौर में शहर संग गाँव भी चलना चाहिये,

देश प्रेम की भावनाये भरपूर हो वतन वालों में,

मिटे भेदभाव सब ऐसा कोई पथ निकलना चाहिये।

(2)

वतन में धूप छाँव का खेल दिखता बड़ा निराला है,

धूप है गरीब पर अमीरों पे छाँव का उजाला है,

धधकती धरा पर दाल रोटी के लिये जो है जलता,

उसके हिस्से में तो आता सदा सूखा निवाला है।

 

दोहे - रोहिताश्व मिश्रा

 

जब से आए शहर में ,छूटा प्यारा गाँव ।

तबसे पाई ही नहीं,ममता वाली छाँव ।

 

बतरस वो चौपाल की, सीधे सच्चे लोग ।

माँ की रोटी दाल थी,जैसे छप्पन भोग ।

नाम उनकी छाँव का

रिश्ते सारे बिखर गए

संवेदनाओं ने

दम तोड़ दिया

सोंधी मिट्टी और अपनेपन के

हर बंधन को छोड़ दिया

वो रिश्ते

जो हर रिश्ते के

दर्द को छाया देते थे

बिना स्वार्थ के अपनेपन का

सब को साया देते थे

वो मीठी लोरी कहाँ गयी

वो चूल्हे की रोटी कहाँ गयी

वो बूढ़ा पीपल कहाँ गया

वो रिश्तों की छाया कहाँ गयी

सच /

गाँव

अब शहर हो गए रे

बे-शज़र /

बे-छाँव हो गए रे

 

 

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Nov 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31

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