For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कल  का  जंगल  ...

खामोश चेहरा
जाने
कितने तूफ़ानों की
हलचल
अपने ज़हन में समेटे है

दिल के निहां खाने में
आज भी
एक अजब सा
कोलाहल है

एक अरसा हो गया
इस सभ्य मानव को
जंगल छोड़े
फिर भी
उसके मन की
गहन कंदराओं में
एक जंगल
आज भी जीवित है

जीवन जीता है
मगर
कल ,आज और कल के
टुकड़ों में
एक बिखरी
इंसानी फितरत के साथ

मूक जंगल का
वहशीपन
जाने क्यूँ
आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के
कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल  का  जंगल
छोड़ जाता है

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Views: 566

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:44pm

आदरणीयलक्ष्मण रामानुज लाडीवाला जी  प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह देना का हार्दिक आभार।  आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:43pm

आदरणीय समर कबीर साहिब  प्रस्तुति अपने स्नेहिल शब्दों से अलंकृत करने का दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:42pm

आदरणीया अर्पणा शर्मा जी प्रस्तुति  अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का  दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 27, 2016 at 1:09pm


मूक जंगल का वहशीपन 
जाने क्यूँ आज भी 
आदियुग के दावानल में 
रिश्तों को झुलसाता है 
अपने आज पे 
बीते कल को दोहराता है 
आदमीयत के कैनवास को 
नफरत की कालिख़ से 
सजाता है 
आज के हर पायदान पे 
कल  का  जंगल 
छोड़ जाता है | ---- आदमी के अन्दर के इस वहशीपन के कारण ही कई बार रिश्ते शर्म सार होते रहे है | सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई श्री सुशील सरना जी  

Comment by Samar kabeer on October 26, 2016 at 5:02pm
जनाब सुशील सरना साहिब आदाब,वाक़ई आज भी इंसान के अंदर कहीं न कहीं उस वहशी पन की झलक देखने को मिल जाती है,जिसका ज़िक्र आपने अपनी कविता में बहुत ही ख़ूबसूरत तरीक़े से बिम्बों के माध्यम से किया है,इस शानदार प्रस्तुति के लिये दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Arpana Sharma on October 26, 2016 at 3:11pm
आदरणीय सुशील सरना जी - बिंब बहुत सुंदर बन पड़े हैं -
"मूक जंगल का
वहशीपन
जाने क्यूँ
आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के
कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल का जंगल
छोड़ जाता है"

बहुत बधाई ।
Comment by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 12:23pm

आदरणीय  Shyam Narain Verma   जी प्रस्तुति के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by Shyam Narain Verma on October 25, 2016 at 3:52pm
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं हम कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२जब जिये हैं दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं हम कान देते आपके निर्देश हैं…See More
1 minute ago
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service