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राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 21

कल से आगे ........


जैसी की सुमाली को अपेक्षा थी, पिता विश्रवा का निर्णय रावण के पक्ष में आया था।
दूसरे दिन प्रातः ही यह पूरा कुटुम्ब कुबेर के साथ पुष्पक में बैठकर विश्रवा के पास गया था। उन्होंने पूरी बात समझी और बोले- ‘‘मैं दोनों से पृथक-पृथक एकान्त में बात करना चाहता हूँ।’’
पहले रावण से बात हुई। विश्रवा ने उसे तभी देखा था जब वह दुधमुहाँ बच्चा था। आज उसको इस पूर्ण विकसित अवस्था में देख कर उन्हें प्रसन्नता हुई। उसे स्नेह से सीने से लगा लिया। फिर वे धीरे से विषय पर आये -
‘‘पुत्र कुबेर तुम्हारा भाई है। उसके साथ समान अधिकार से रहने में असुविधा क्या है ?’’
‘‘पिता ! ऐसा कैसे संभव है ? भाई कुबेर के साथ हम सब की स्थिति अनुगतों की ही तो रहेगी। हमारा स्वतंत्र अस्तित्व क्या रह जायेगा ?’’
‘‘क्यों ? आखिर इसमंे ऐसी कठिनाई क्या है ? पिता के व्यवसाय को प्रायः सारे भाई मिलकर ही सम्हालते हैं, और उसे नई ऊँचाइयों पर ले जाते हैं। वहाँ सबका बराबर स्वामित्व होता है।’’
‘‘किंतु पिता यहाँ ऐसा तो नहीं है। यह रावण के पिता का व्यवसाय तो नहीं है, यह साम्राज्य भी रावण के पिता का नहीं है। यदि यह सब आपका होता तो रावण का इसमें सहज अंश होता किंतु यह सब तो भाई के अनुसार उसका ही है। पिता ने तो कभी भाई के साम्राज्य को आँख भर के देखा भी नहीं होगा। यह पिता का होता तो रावण भाई का प्रस्ताव स्वीकार कर लेता किंतु यह तो भाई का नितांत व्यक्तिगत है। उसने वहाँ सब कुछ अपने अनुसार स्थापित किया है। ऐसे में रावण वहाँ पूर्णतः अप्रासंगिक ही होगा। वह भाई की दया पर आश्रित व्यक्ति जैसा जीवन व्यतीत करेगा और इसके लिये रावण कदापि प्रस्तुत नहीं है।’’
‘‘ऐसा क्यों होगा, जब कुबेर स्वयं तुम्हंे आश्वस्त कर रहा है अपने समान अधिकार देने के लिये ?’’
‘‘पिता ! भाई यदि मन से चाहें भी तो भी ऐसा नहीं हो पायेगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘भाई के साम्राज्य में सब कुछ भाई द्वारा, उसकी स्वयं की सुविधा और हित के लिये स्थापित है। वह एक ऐसा यंत्र है जिसमें हर पुर्जा अपने नियत स्थान पर अपना कार्य कर रहा है। और सुचारु रूप से कर रहा है। कोई स्थान शेष ही नहीं है जहाँ रावण और उसके भाइयों को समायोजित किया जाय। फिर रावण के मातामह और मातुलों को तो कहीं पर भी समायोजित कर पाना संभव ही नहीं है। उन्हें समायोजित किया जायेगा भी तो अनिच्छा से। किसी अवांक्षित अतिथि की भाँति ही उनके भरण-पोषण की व्यवस्था होती रहेगी पर उसे उनका स्वाभिमान कैसे स्वीकार कर सकेगा, आप ही बताइये ?’’
‘‘तुम अनावश्यक रूप से सम्भावनाओं का विकृत निरूपण कर रहे हो। ऐसा कुछ भी नहीं होगा। कुबेर तुम्हारे सभी के लिये अपने समान ही सम्मानजनक व्यवस्था करेगा ! वह आश्वासन दे तो रहा है। ’’
‘‘नहीं पिता ! ऐसा नहीं है। जैसे प्रत्येक राजसभा में कुछ ऐसे सभासद भी होते हैं जिनका कार्य मात्र राजा की प्रशंसा करना ही होता है। विद्वज्जनों के समक्ष उनकी स्थिति विदूषकवत् ही होती है। रावण की स्थिति भी भाई की राजसभा में कुछ वैसी ही हो जायेगी। और मातामह व मातुलों की स्थिति तो उससे भी हास्यास्पद होगी। क्या आपको लगता है कि आपका पुत्र ऐसी स्थितियों के साथ सामंजस्य बिठा पायेगा। क्या आप स्वयं ही हृदय से अपने पुत्र को ऐसी स्थितियों से सामंजस्य बिठाने का प्रयास करने का परामर्श देंगे ?’’
‘‘ऐसी स्थितियों के साथ कोई भी आत्माभिमानी व्यक्ति सामंजस्य नहीं बिठा सकता। मैं अपने पुत्र को ऐसा परामर्श कैसे दे सकता हूँ ? किंतु पुत्र मुझे विश्वास है कि ऐसा नहीं होगा। कुबेर भी मेरा ही पुत्र है। वह ऐसी स्थिति नहीं आने देगा।’’
‘‘रहना तो ऐसे ही होगा पिता ! रावण में विश्रवा और कैकसी का रक्त है, दोनों ही पूर्ण स्वाभिमानी हैं। रावण परजीवी की भांति पड़ा-पड़ा नहीं खा सकता। नहीं रह सकता।’’
‘‘परजीवी की भांति क्यों पड़ा रहे रावण ? जो भी दायित्व वह उचित समझे या जो भी दायित्व कुबेर उसके लिये निर्धारित करे उसका निर्वहन करे !’’
‘‘प्रत्येक दायित्व को तो उचित व्यक्ति ने पहले ही उठाया हुआ है। मैंने कहा न कि मशीन में प्रत्येक पुर्जा अपने स्थान पर पूरी कुशलता से कार्य कर रहा है।।’’
‘‘हूँ ....’’
‘‘इसके साथ ही एक तथ्य और भी तो है। भाई का साम्राज्य कहने के लिये है। वस्तुतः तो भाई आज विश्व के सबसे बड़े धनपति हैं। उन्हें तो धन का स्वामी ही मान लिया गया है। वे प्रथमतः व्यवसायी हैं, वणिक हैं। उनके राज्य में वही कार्य हैं। दूसरी ओर रावण ब्राह्मण योद्धा है, उसमें वणिक बुद्धि है ही कहाँ जो भाई के साम्राज्य में कोई दायित्व कुशलता से निभा सके। रावण के मातुलों की स्थिति तो और भी हास्यास्पद हो जायेगी। वे तो मात्र खड्ग की भाषा जानते हैं।’’
विश्रवा कुछ देर सोचते रहे। ऐसा लग रहा था कि रावण के तर्क उन्हें प्रभावित कर रहे थे। फिर भी उन्होंने समझाने का प्रयास किया -
‘‘सोच लो पुत्र ! कुबेर की बात मान लेने से तुम्हें जीवन के उतार-चढ़ावों से नहीं जूझना पड़ेगा। सहजता से तुम उत्कर्ष को प्राप्त करोगे। इसके विपरीत यदि लंका तुम्हें दे दी जाती है तो तुम्हें सब कुछ नये सिरे से बसाना पड़ेगा। सारा व्यवसाय जो कुबेर ने स्थापित किया है वह तो उसीके साथ चला जाएगा। लंका की सारी सम्पन्नता भी उसी के साथ चली जायेगी। लंका के अधिकांश सम्पन्न व्यवसायी भी संभवतः उसीके साथ चले जायेंगे। शेष बची प्रजा के पास के भरण-पोषण की भी तुम्हें नये सिरे से व्यवस्था करनी पड़ेगी। अत्यंत दुरूह होगा यह कार्य।’’
रावण प्रसन्न हो गया। पिता के इस वाक्य से उसे जो शंका थी वह मिट गयी थी। उसे विश्वास हो गया कि मातामह का विश्लेषण सही साबित हो रहा था। पिता उसके पक्ष में आ गये थे। उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा -
‘‘पिता रावण को अवसर तो दीजिये खुद को साबित करने का। वह आपके नाम को बट्टा नहीं लगने देगा। वह लंका की समृद्धि में इतनी अभिवृद्धि कर दिखायेगा जितने भाई ने कभी सोची भी नहीं होगी।’’
‘‘ठीक है, मान लेता हूँ तुम्हारी बात किंतु अभी इसे निर्णय मत मान लो। अभी मुझे कुबेर से भी बात करनी है। उसके तर्क भी सुनने समझने हैं। देखता हूँ वह क्या कहता है ...।’’

कुबेर की ओर से पिता को अधिक प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। वह योद्धा से पूर्व व्यवसायी था। वह कभी झगड़ा नहीं चाहता था। झगड़ा व्यवसाय को चैपट कर देता है और ऐसी परिस्थिति वह स्वीकार नहीं कर सकता था। जब तक बात केवल रावण या सुमाली की थी, उसके आत्मसम्मान का प्रश्न था। वह लंका को छोड़ना स्वीकार नहीं कर सकता था। किंतु अब पिता की आज्ञा उसके लिये एक ढाल के समान थी। बड़प्पन दिखाने का अवसर था। उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और लंका से अपना सारा तामझाम समेटने लगा।
उसने कुछ महीनों का समय माँगा जो देने में रावण को कोई आपत्ति नहीं थी। बल्कि यह तो उसके लिये भी हितकर था। यदि तुरत कुबेर उसे लंका सौंप देता तो शायद व्यापार विहीन लंका का भरण-पोषण कर पाना उसके लिये भी संभव नहीं हो पाता। भूखी प्रजा विद्रोह भी कर सकती थी, जिसे सम्हालना आसान नहीं होता। रावण को राज-काज सम्हालने का कोई अनुभव तो था नहीं। राज-काज क्या उसे तो कैसा भी अनुभव नहीं था। वह तो साधना से उठकर सीधे लंका के राजसिंहासन पर जाने वाला था। इसलिये उसे भी समय चाहिये था नीतिगत चिंतन के लिये। मातुलों पर वह अत्यधिक निर्भर नहीं रहना चाहता था। वह जानता था कि यह सब कार्य उनके बस का नहीं था। मातामह और प्रहस्त पर ही वह किसी हद तक भरोसा कर सकता था कि वे उसके सहायक सिद्ध होंगे। कुंभकर्ण तो जन्मजात आलसी था, उससे तो कोई आसरा था ही नहीं। उसका प्रयोग बस युद्ध काल में ही हो सकता था जो अभी रावण कतई नहीं चाहता था। विभीषण बहुत छोटा था साथ ही पिता की संगति में अधिक रहा होने के कारण उसमें तपस्यियों वाले संस्कार अधिक थे जो कि राज्य संचालन के लिये सर्वथा अनुपयुक्त थे।
अंततः यही तय हुआ कि कुबेर लंका से अपना समस्त व्यवसाय समेट कर लंका छोड़ लेगा और कैलाश पर अलकापुरी के नाम से अपना पृथक राज्य स्थापित करेगा। तब तक रावणादि लंका में ही रहकर लंका को समझेंगे और कुबेर के जाने के बाद स्वतः समस्त लंका के स्वामी हो जायेंगे।
ब्रह्मा के सिखाये रावण ने मानसिक और आत्मिक शक्तियों का अपूर्व विकास कर लिया था। वह पूरी गंभीरता से लंका की परिस्थितियों को समझने लगा। सुमाली और प्रहस्त के साथ मिलकर भविष्य की कार्यप्रणाली तय करने लगा - किस प्रकार लंका के बिखरे हुये व्यवसाय को पुनः स्थापित करना है साथ ही उपस्थित होने को तत्पर आर्थिक समस्याओं का निदान किस प्रकार करना है। कुबेर के सभी मंत्रियों और प्रमुख सहयोगियों ने उसीके साथ जाना तय किया था। उन्हें अभी रावण की क्षमताओं पर विश्वास नहीं था किंतु निचले स्तर के सभी कर्मियों के लिये यह संभव नहीं था। उनमें से अधिकांश ने लंका में ही रहने का निश्चय किया था। यह रावण के लिये बड़ी तसल्ली की बात थी। उसने अपने सभी मातुलों को ऐसे कर्मचारियों के साथ लगा दिया, व्यवस्थायें समझने के लिये। लगभग समूची प्रजा ने लंका में ही रहना तय किया था। स्वभावतः उन्हंे अपनी जन्मभूमि से लगाव था। वे उसे किसी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं थे। उनके लिये अलकापुरी में बसना आसान भी नहीं था। जैसा कि सुना जा रहा था अलकापुरी का क्षेत्र एक पूर्णतः भिन्न प्रकार की जयवायु का प्रदेश था। आम जनता के पास इतने संसाधन नहीं होते कि ऐसे प्रदेश के साथ सहजता से सामंजस्य बिठा सकें। फिर उनके खेत यहीं थे, सम्पत्ति यहीं थी, पेड़ यहीं थे, वे इन्हें किसके भरोसे छोड़ जाते और छोड़ भी जाते तो क्या अलकापुरी में उन्हें इनके स्थान पर दूसरे खेत, सम्पत्ति, पेड़ मिलने वाले थे ? उन्हें पूरा भरोसा नहीं था। यदि मिल भी जाते तो वे उन्हें किस प्रकार सम्हालते, इस संबंध में अपनी क्षमताओं पर भी उन्हें भरोसा नहीं था। कुछ भी हो रावण तो अब एक प्रकार से लंकेश्वर बन ही गया था।

क्रमशः


मौलिक एवं अप्रकाशित


- सुलभ अग्निहोत्री

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Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2016 at 12:17am

रावण और विश्रवा के बीच का वार्तालाप तनिक और नाटकीय होना था. क्योंकि कुबेर से पूर्व रावण की चाल ही अभिव्यक्त करती कि वह कितना महत्त्वाकांक्षी था. यों कथा का प्रवाह रोचक है. इतने बड़े कैनवास में कई घटनाओं को रोचकता से पिरोया गया है.

 

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