For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 20

कल से आगे .........


महाराज दशरथ राजसभा की औपचारिक परम्परा के बाद सभा कक्ष में बैठे हुये थे। सभा में कुछ नहीं हुआ था, बस सबने देवर्षि द्वारा किये गये भविष्य कथन पर हर्ष व्यक्त किया था, सदैव की भांति चाटुकारिता की थी। इसी में बहुत समय व्यतीत हो गया था। सारे सभासद यह दर्शाना चाहते थे कि वे ही सबसे अधिक शुभेच्छु है महाराज के, वे ही सबसे बड़े स्वामिभक्त हैं। यह किस्सा नित्य का था। चाटुकारिता सभासदों की नसों में लहू से अधिक बहती थी। महाराज भी इससे परिचित थे किंतु उन्हें इसमें आनन्द मिलता था, उनके अहं को तुष्टि मिलती थी। दशरथ के 18 मंत्रियों में एक महामात्य जाबालि ही ऐसे थे जो अपेक्षाकृत बहुत खरा बोलते थे।

अद्भुत चरित्र था जाबालि का भी।
वे एक प्रकार से अनीश्वरवादी थे।
वे पुनर्जन्म को भी नहीं मानते थे।
पाप-पुण्य और कर्मों के फल की अवधारणा को भी नकार देते थे।

कुछ ऐसे थे विचार उनके जैसे कोई इक्कीसवी सदी का विचारक सोच रहा हो - जो कुछ है यही है जो सामने है। न इससे पीछे कुछ था न इसके आगे कुछ होगा। इसी जन्म को सत्कर्मों से धन्य करो। सुकर्म करो - इसलिये नहीं कि उनका फल अगले जन्मों के लिये संचित होगा या उनसे स्वर्ग मिलेगा, अपितु इसलिये कि सुकर्म ही करणीय है। दुष्कर्म मत करो - इसलिये नहीं कि उसके बदले में नर्क मिलेगा, अपितु इसलिये कि उससे किसी दूसरे को कष्ट होता है, दुःख होता है। मनुष्य विचारशील प्राणी है, सामाजिक प्राणी है इसलिये उसे अपने साथ-साथ सबकी उन्नति का, सबकी प्रसन्नता का ध्यान रखना चाहिये। सबके हित की चेष्टा करनी चाहिये।

महाराज दशरथ कई बार उनकी बातों से तिलमिला भी जाते थे किंतु वे जानते थे कि जाबालि से बढ़कर मंत्रिपरिषद में उनका कोई हितैषी नहीं है इसीलिये अपने सनातन विरोधी विचारों के बावजूद वे जाबालि की बातों को महत्व देते थे। प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय में वे एकांत में उनसे परामर्श अवश्य लेते थे और यथासंभव उनकी बातों को आपने आचरण में समायोजित करने का प्रयास भी करते थे। उनकी बातों से कई बार तिलमिलाने के बावजूद वे उन्हें मंत्रिपरिषद से हटाने या उनका महत्व कम करने के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। जाबालि से अधिक मान महाराज केवल राजगुरु वशिष्ठ को ही देते थे।


भोजन का समय व्यतीत होता जा रहा था। महाराज के भोजन के समय में बहुत कम व्यतिक्रम होता था, मात्र किसी अकस्मात आपदा के आ खड़े होने पर ही यह संभव था। आज तो कोई आपदा भी नहीं थी किंतु देवर्षि आशा का एक ऐसा बीज बो गये थे जिसका पौधा महाराज तुरन्त उगा देखना चाहते थे। उसे सींचना सहलाना चाहते थे और इस सब में उन्हें भूख का अहसास ही नहीं हो रहा था। उनके साथ इस समय मात्र जाबालि बचे थे। अनुचर से राजगुरु के पास संदेश भेजा गया था कि महाराज अत्यंत शीघ्र उनके चरणों में प्रणाम निवेदित करना चाहते थे। उनकी अनुज्ञा मिलते ही महाराज उनके सम्मुख प्रस्तुत होने को तत्पर थे। अनुचर अभी तक नहीं लौटा था और उसकी इस लापरवाही पर अब महाराज को झल्लाहट होने लगी थी। उन्होंने आवाज लगाई - ‘‘प्रतिहारी !’’
आवाज के साथ ही प्रतिहारी उपस्थित हुआ। झुक कर उसने महाराज को राजकीय परिपाटी के अनुसार प्रणाम किया और बोला - ‘‘आदेश महाराज !’’
‘‘देखो यह अनुचर कहाँ रह गया ।’’
‘‘क्षमा करें, किन्तु कौन अनुचर महाराज ?’’
‘‘अरे वही, जिसे राजगुरु की सेवा में भेजा था।’’
प्रतिहारी कोई उत्तर देता इससे पूर्व ही महाराज को दूर से द्वार की ओर आते राजगुरु वशिष्ठ की छवि दृष्टिगोचर हो गयी। उन्होंने प्रतिहारी की ओर हाथ से इशारा करते हुये कहा - ‘‘जाओ तुम !’’
वशिष्ठ लगभग चालीस पीढ़ियों से, महाराज इक्ष्वाकु के शासनकाल से ही इस वंश के राजगुरु के पद पर आसीन थे। गलत मत समझ लीजियेगा - वशिष्ठ इनकी उपाधि थी जो परिवार के ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त होती थी और वह इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु के पद पर आसीन हो जाता था। इनके वंश ने भी इक्ष्वाकु वंश के समान ही इतनी पीढ़ियों तक अपनी श्रेष्ठता विद्यमान रखी थी और अपने पद को गरिमा प्रदान की थी।
प्रतिहारी चला गया। उसके पीछे महाराज भी उठकर द्वार की ओर बढ़े। महाराज के पीछे अनायास ही जाबालि भी बढ़ चले। अत्यंत विशाल सभा कक्ष की पूरी लम्बाई तय कर जब तक ये लोग द्वार तक पहुँचे राजगुरु भी द्वार तक आ गये थे। पहले महाराज ने और फिर जाबालि ने झुक कर राजगुरु की चरण धूलि ग्रहण की। महाराज व्यग्रता से बोले -
‘‘गुरुदेव ! आपने क्यों कष्ट किया, मैं तो आ ही रहा था, बस आपकी अनुज्ञा की प्रतीक्षा थी।’’
गुरुदेव ने दोनों को आशीष दिया। महाराज को ‘पुत्रवान भव’ और जाबालि को ‘यशस्वी भव’।
गुरुदेव अस्सी से ऊपर की अवस्था होते हुये भी पूर्ण स्वस्थ थे। सुतवाँ शरीर - न गठीला और न ढीला। श्वेत केशराशि, श्वेत मूछें और श्वेत ही सुदीर्घ दाढ़ी। दण्ड हाथ में था किंतु चलने के लिये उसके अवलम्ब की कोई आवश्यकता नहीं थी। दूसरे हाथ में कमण्डलु, माथे पर, भुजाओं पर और वक्ष पर चन्दन का लेप। कमर में गेरुआ अधोवस्त्र और कन्धे पर जनेऊ। पैरों में खड़ाऊँ थे। कुल मिला कर वशिष्ठ सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे।
‘‘अनुचर ने जब राजन का संदेश दिया तो मैंने उससे प्रयोजन भी पूछ लिया। जो कुछ उसने बताया उसके बाद मुझसे संवरण नहीं हुआ। अनुचर आपको सूचना देता और आप आते उतने समय में मैं स्वयं ही आ गया।’’
‘‘जी गुरुदेव !’’
‘‘तो फिर अब विलम्ब क्या है ? बुलाओ बिटिया-जामाता को। दीर्घ काल से आई भी नहीं है शांता।’’
‘‘कोई विलम्ब नहीं है गुरुदेव। बस आपकी सम्मति की प्रतीक्षा थी।’’
गुरुदेव हँसे फिर बोले ‘‘अब तो मिल गयी सम्मति! अब बिना समय गँवाये तीव्रगामी अश्वों वाले रथ से भेजो दूत को। बल्कि दूत के रूप में स्वयं आमात्य जाबालि ही यदि चले जायें तो सर्वश्रेष्ठ होगा।’’
‘‘जैसी आज्ञा गुरुदेव !’’ दशरथ और जाबालि दोनों ने ही हाथ जोड़ कर आदेश शिरोधार्य किया।
‘‘मुनि श्रेष्ठ की मर्यादा के अनुकूल होगा यह। वैसे मुनिवर तो सरल व्यक्तित्व हैं, किसी को भी भेज दो विचार नहीं करेंगे किंतु बिटिया सोच सकती है।’’
‘‘मैं स्वयं चला जाऊँ।’’ दशरथ ने पूछा
‘‘यदि ऐसा संभव हो सके तब तो सर्वोत्तम होगा। चाहें तो महारानियों को भी ले लीजियेगा। महारानी कौशल्या भी अपनी बहन से मिल आयेंगी इसी बहाने।’’
‘‘तब फिर मैं स्वयं ही जाने को प्रस्तुत होता हूँ।’’
‘‘किंतु महाराज ! आप बहुधा अस्वस्थ रहते हैं। इतनी सुदीर्घ यात्रा आपके लिये कष्टकारी हो सकती है।’’ जाबालि ने कहा।
‘‘महामात्य अस्वस्थता तो मानसिक है और अब उसकी दवा मिल गयी है। अब तो मैं पूर्णतः स्वस्थ हूँ।’’ दशरथ ने हँसते हुये कहा।
‘‘महामात्य ! महाराज को ही जाने दें। सालियों से मिलने में रस ही अलग होता है।’’
सब हँस पड़े।
‘‘सम्राट् ! कालगणना कह रही है कि आपके पुत्र कालांतर में आर्यावर्त में सर्वत्र पूज्य होंगे। ज्येष्ठ राजकुमार तो स्वयं इंद्र से भी अधिक पूज्य होगा। युगों तक वह आर्यों के मन-मन्दिर में सातवें विष्णु के रूप में वास करेगा। समूचा आर्यावर्त उसे स्वयं परमेश्वर का अवतार मान कर उसकी आराधना करेगा।’’
दशरथ तो वैसे भी प्रसन्नता के अतिरेक में डूबे हुये थे गुरुदेव के इस वाक्य ने तो उन्हंे उल्लास सागर में आकंठ डुबा दिया। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या कहें।
तभी एक प्रश्न उनके मन में कुलबुलाया। वे जरा संकोच से बोले -
‘‘गुरुदेव एक प्रश्न है, अनुमति हो तो पूछूँ ...’’
‘‘पूछ डालिये। प्रश्न को मन में कभी नहीं रखना चाहिये। आते ही पूछ डालना चाहिये अन्यथा सन्देह और शंका जन्म लेने लगते हैं।’’
‘‘गुरुदेव ! अभी तक आप राजकुमारों के जन्म का समय क्यों नहीं निश्चित कर पा रहे थे। आप सदैव कहते थे कि मुझे चार पुत्रों का योग है किंतु कब यह कभी नहीं बताया।’’
‘‘यही विधि का विधान था राजन। हम सब उस अनंत की लीला का एक कण मात्र ही तो जानते हैं। उसी की लीला थी कि हम कुमारों का जन्म समय नहीं निश्चित कर पा रहे थे। किसी कोण से देखने पर कोई समय निर्धारित होता था तो दूसरे कोण से वह निरस्त हो जाता था। पर यह सदैव निश्चित था कि आपको चार पुत्रों का योग है।’’ वशिष्ठ ने उत्तर दिया फिर प्रतिप्रश्न किया ‘‘और कोई शंका महाराज ?’’
‘‘नहीं गुरुदेव ! अब तो बस आनन्द ही आनन्द है। पौत्र खिलाने की आयु में मैं पुत्र खिलाऊँगा। गुरुदेव समझ में नहीं आ रहा कि मैं अपनी प्रसन्नता को कैसे व्यक्त करूँ ?’’
‘‘आपके नेत्र सबसे अच्छी अभिव्यक्ति दे रहे हैं, आप कोई प्रयास न करें।’’ वशिष्ठ ने हँसते हुये कहा।
‘‘कुमारों को आ जाने दीजिये फिर सम्पूर्ण प्रजा के मनोरथ पूर्ण कर दीजियेगा। यही सबसे उत्तम अभिव्यक्ति होगी आननद की।’’ जाबालि ने सुझाया।
‘‘वह तो होगा ही महामात्य। उसमें भी कोई शंका है।’’ इस बार दशरथ जोर से हँस पड़े हालांकि गुरुदेव के सामने वे ऐसा नहीं करते थे पर आज आनन्द ने मर्यादाओं के बंधन को शिथिल कर दिया था।
‘‘अच्छा ! तो अब हमें अनुमति दीजिये और आप महारानियों सहित प्रस्थान की तैयारी कीजिये।’’


...... क्रमशः


मौलिक और अप्रकाशित


- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 483

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2016 at 12:01am

संवादों के क्रम में मनोवैज्ञानिक भंगिमाओं का बढ़िया ध्यान रखा गया है. बढ़िया गति है. फिर भी उत्सुकता बनी है. 

शुभ-शुभ

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
1 hour ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
9 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
9 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
10 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
10 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
11 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
11 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
11 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
13 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
yesterday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
yesterday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service