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ग़ज़ल -- कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  2   

दरवाज़े पर देखो कोई आया  क्या ?

अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?

ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी

खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?

कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को

इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?

 

फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर

छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?

 

सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े

कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?

जुगनू सहमा सहमा सा क्यों लगता है

कोई सूरज फिर उसको धमकाया क्या ?

 

खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे

किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?

***************************************

गिरिराज भंडारी

 

 

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 26, 2015 at 9:30pm

अहा हा हा ! मजा आ गया! इस गजल ने तो नये पाट खोल दिए...शानदार! गज़ल ऐसा लगता है किसी मंझे हुए नौजवान गजलगो ने लिखी है! आदरणीय गिरिराज सर आपकी नौजवानी को सलाम! लगता है होली के हुलास का असर लिए हुए है ये गज़ल!

खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे

किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?                 क्या बात है सर!

कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को

इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?                  क्या कहने! क्या कहने!

फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर

छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?                 बडी बात इतने सरल लहजे में! उम्दा!

जुगनू सहमा सहमा सा क्यों लगता है

कोई सूरज फिर उसको धमकाया क्या ?                 वाह! 

Comment by vijay nikore on April 26, 2015 at 6:13pm

गज़ल के भाव अच्छे लगे। हार्दिक बधाई।

सौरभ जी के विचारों से सीखने को मिला, उनका आभारी हूँ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 9:41am

आदरणीय गिरिराज सर बहुत सुंदर रचना हुई है हर शेर पुरअसर है, पहले तो दाद कुबूल फरमायें।

आखिर शे'र को ज़रा देखिये

खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे

किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?--> यहाँ थो़ड़ा अटकाव है इस शेर को यूँ करें तो

खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे
सागर से कोई प्यास बुझा पाया क्या  

वैसे और भी गुँजाइश है ज़रा विचार कीजियेगा

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 24, 2015 at 1:43pm

खूबसूरत भाव आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ....सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 24, 2015 at 6:37am
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , कुछ नई तरह से प्रस्तुत रचना बहुत ही लुभावनी है,बहुत अच्छी लगी , हार्दिक बधाई , शुभकामनाएं , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:47pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:46pm

आदरणीय मिथिलेश भाई,  उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:46pm

आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:45pm

शुक्रिया ! आदरणीय सौरभ भाई , रस्सी बाल्टी खींचने मे सहारा देते रहियेगा ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 23, 2015 at 8:55pm

वाह! बहुत खूब, सर. हर शेर कमाल का कहा है आपने. दिली बधाई कुबुलें

कृपया ध्यान दे...

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