रात के कुएं में
 क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति
 और मुझे भान नहीं
 उजालों के अस्तित्व का.
 
 या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी -
 उजालों के भय से.
 
 कुछ भी सोचो, तय यही है,
 मुझसे गप्पें मारतीं रातें
 पूछतीं नहीं- 'तुम क्यों हो नंगे' .
 
 दिखातीं नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,
 घर की बात समझतीं हैं. 
 
 कह रही थी वह-
 एक भाई है मेरा,
 मेरी प्रकृति के विपरीत,
 सवाल करता है बहुत,
 पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.
 
 मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सच बात है आदरनीय , अपनी कमियों के बारे में कोई बात करना , प्रश्न पूछा जाना पसंद नही करते , सुन्दर रचना के लिये बधाई ॥
श्रीयुत श्री सुनील जी , कुछ अलग हटकर ,सुन्दर प्रस्तुति , हार्दिक बधाई ! सादर
आदरणीय सुनील जी इस सुन्दर प्रस्तुति प्रस्तुति पर बधाई निवेदित है
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