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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 44 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 20 दिसम्बर 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 44 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
 
इस बार प्रस्तुतियों के लिए हरबार की तरह कोई विशेष छन्द का चयन नहीं किया था. इस कारण प्रदत्त चित्र पर कई छन्दों में रचनाएँ आयीं. जिनमें प्रमुख रूप से दोहा छन्द रहा.  

दोहा छन्द के अलावा आयोजन में रचनाकारों द्वारा कुण्डलिया, सार, हरिगीतिका, रोला, चौपाई, कामरूप, त्रिभंगी छन्दों पर भी सुरूचिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की गयीं.  

 


 

एक बात मैं पुनः अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें.  वस्तुतः आयोजन का प्रारूप एक कार्यशाला का है. जबकि आयोजन की रचनाओं के संकलन का उद्येश्य छन्दों पर आवश्यक अभ्यास के उपरान्त की प्रक्रिया तथा संशोधनों को प्रश्रय देने का है.

 

इस क्रम में ज्ञातव्य हो कि छन्दोत्सव आयोजन के नियमों के अनुसार रचनाओं की अशुद्ध या अनगढ़ पंक्तियों में संशोधन अब आयोजन के दौरान नहीं होते. आयोजन के दौरान रचनाकारों द्वारा रचनाओं की पंक्तियों में जो संशोधन हेतु निवेदन किये गये थे, आग्रह है कि संशोधन हेतु उन निवेदनों को इस पोस्ट के साथ पुनः प्रस्तुत किया जाय. ताकि हमें संशोधन कार्य में सहुलियत हो.


 

रचनाओं और रचनाकारों की संख्या में और बढोतरी हो सकती थी. लेकिन कारण वही है - सक्रिय सदस्यों की अन्यान्य व्यस्तता.  कई पाठक ऐसे भी देखे गये जो कतिपय रचानाओं पर ही अपनी उपस्थिति बना पाये.

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

 

************************************

आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी

प्रथम प्रस्तुति
छन्द - दोहा


वादों की हर लाश पे, दौलत की है चोट।
नेताजी से पूछ लो, कैसे  मिलते वोट ।।

सिर्फ सियासत में दिखा, ऐसा अद्भुत साथ ।
सीता के आगे जुड़े,  इक रावण के  हाथ ।।..  

कुरसी का लालच भला, करवाता क्या खेल ।
ताकत  का देखो ज़रा,  कमजोरों से मेल ।।

खूब सियासत खेलते, नेता यारां चेत ।
पानी लाये रेत से, फिर पानी में रेत ।।

पांच बरस तोड़ा बहुत, सपनो का विश्वास ।
फिर आये करने वही, वादों का  परिहास ।।

द्वितीय प्रस्तुति
छन्द - हरिगीतिका

 
लें, जोड़ता हूँ हाथ देवी अब मुझे मत दीजिए
आकाशवाणी हो गई- “देवी इसे मत दीजिए
इस श्वेत कपड़े ब्लेक मन की सत्यता बतला रहे
फिर से करेगा नाश ये हम इसलिए जतला रहे

बस पाप का इसका घड़ा तो भर गया अब तारिये
इस लोक से निर्मुक्त हो, बरतन उठा के मारिये
अब रूप दुर्गा का धरो  इस दैत्य का संहार हो
ये है गलत पर इस तरह संसार का उद्धार हो”

आकाशवाणी क्या सुनी देवी बनी फिर चण्डिका
ले हाथ में इक काठ की मोटी पुरानी डण्डिका
दो चार जमकर वार कर बोली यहाँ से भागना
इक नार अबला जग गई अब देश को है जागना
************************************

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तवजी  


प्रथम प्रस्तुति
छन्द - चौपाई


श्वेत वस्त्र में नेता आया ॥ हर वोटर को शीश नवाया॥               
दुश्मन को भी गले लगाया। फिर चुनाव का मौसम आया॥   

पार्षद पद का प्रत्याशी हूँ। एक वोट का अभिलाषी हूँ॥                
खुद की क्या मैं करूँ बड़ाई। हर दिन होगी साफ सफाई॥

रोशन हर घर हो जाएगा । हर नल में पानी आएगा॥                   
खाऊंगा ना खाने दूंगा। सभी ज़रूरी काम करूंगा॥

और किसी की बात न मानो। मुझे हितैषी अपना जानो॥
विरोधियों को बहला लेना। हाँ हाँ कहना वोट न देना॥

मेरी सूरत पर ना जाओ। वोट डालकर मुझे जिताओ॥                    
पूरा अब हर सपना होगा। महापौर भी अपना होगा॥

द्वितीय प्रस्तुति
छन्द - कामरूप


काला अधिक कुछ, और मोटा, खटखटाये द्वार ।           
नज़दीक आये, मुस्कराये, कलियुगी अवतार॥                       
फिर गिड़गिड़ाया, खोलकर मुँह, जोड़कर दो हाथ।                              
दंगल चुनावी,  जीत जाऊँ, तुम अगर दो साथ॥

कालू भगत है, नाम मेरा, चिन्ह गेंडा छाप।                               
फोटो छपा है, देख मेरा, रखें पर्ची आप॥                             
मैं भी चलूँगी , संग तेरे, हर गली हर द्वार।                           
तो जीत पक्की, है तुम्हारी, करें साथ प्रचार॥

(संशोधित)
************************

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी

प्रथम प्रस्तुति
छन्द - कुण्डलिया

सपना मत देखो प्रिये, मानो मेरी बात
कुछ दिन की ही बात है होगा स्वर्ण प्रभात
होगा स्वर्ण प्रभात दिवस आयेंगे अच्छे
लगते हैं अति रम्य मधुर बातों के लच्छे
कहते है ‘गोपाल’ साथ ना छूटे अपना
निश्चय होगा सत्य एक दिन अपना सपना

वादा करता हूँ प्रिये उभय जोड़ कर हाथ
और कहो तो झुका दूं सत्वर अपना माथ
सत्वर अपना माथ न दूंगा घिसने बरतन
कैसे मैं अब देख कराता यह परिवर्तन
महरी रख लूं एक इसी पर मै आमादा
हाथ जोड़ कर प्रिये किया यह पक्का वादा

डी ए का बढ़ना सुखद लगता है तत्काल
राम राज में धनद सब कर्महीन कंगाल
कर्महीन कंगाल देखते सुख का सपना
लेकिन उन्हें नसीब कष्ट की माला जपना
यह श्वेताम्बर भ्रष्ट किसी मंत्री का पी ए
कहता महरिन सद्म जरा बढ़ने दो डी ए

द्वितीय प्रस्तुति
छन्द - दोहा

द्वार खुला है गेह का बाहर का यह ग्राफ
पत्नी बाहर नभ तले बर्तन करती साफ़

तभी हाथ में आ गया उस दिन का अखबार
पति की फोटो थी छपी उस पर विकट प्रचार

रेप किसी का था किया  पढ़ती खबर अधीर
हाथ जोड़कर कांपता श्वेताम्बर बलबीर

किया नहीं मैंने प्रिये कोई ऐसा काम
लगा रही है मीडिया सब झूठे इल्जाम

मै जन-सेवक मात्र हूँ मेरा मन है साफ़  
लोग भले कुछ भी कहें पर तू कर दे माफ़
*********************

आदरणीय गिरिराज भंडारीजी  

छन्द - दोहा


उलटी चलन, पहाड़ क्यों , झुकता सम्मुख ऊँट
मन संशय से भर रहा , नीयत में है लूट  

वादों के कुछ शब्द ले, जोड़े दोनों हाथ
भेड़ वेश में भेड़िया , आया, मांगे साथ

बेदिल आया देखिये , कहने दिल की बात
दो पल देने रोशनी , वर्षों काली रात

यही समय है मारिये , इनको धोबी पाट
फिर धोने को पाप सब, भेजें गंगा घाट

खद्दर में मत जाइये , सांपों की ये जात
मौका है, फन काटिये, छोड़ सभी जज़्बात
**************************************

आदरणीया राजेश कुमारीजी

छन्द - त्रिभंगी


हे भोले बकुले , श्यामल नकुले, अभिनय तेरा चोखा  है|
यूँ बैठा उखडू ,जैसे कुकडू ,कर को  जोड़े  ,धोखा है||
तेरे हथकंडे ,मत के फंडे, जाने सब ये, नारी है|
हे उजले तन के, गिरगिट मन के, जनता तुझपे, भारी है||

हाथों को जोड़े ,छल को ओढ़े, जन मत मांगे, नेता जी|
झूठी यादों का, बस वादों का ,पांसा फेंके, नेता जी||
वोटों की खातिर,नस नस शातिर, आये चलके, नेता जी|
दिल की मक्कारी, नीयत सारी,मुख पे झलके,नेता जी||
********************

आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी

प्रथम प्रस्तुति
छन्द - दोहा

लोकतंत्र के राज में, जनता ही भगवान ।
पाँच साल तक मौन रह, देते जो फरमान ।

द्वार द्वार नेता फिरे, जोड़े दोनो हाथ ।
दास कहे खुद को सदा, मांगे सबका साथ ।।

एक नार थी कर रही , बर्तन को जब साफ
आकर नेता ने कहा, करो मुझे तुम माफ ।

काम पूर्ण कर ना सका, जो थी मेरी बात ।
पद गुमान के फेर में, भूल गया औकात ।।

निश्चित ही इस बार मैं, कर दूंगा सब काज ।
समझ मुझे अब आ गया, तुमसे मेरा ताज ।।

द्वितीय प्रस्तुति
छन्द - सार


लोकतंत्र का कमाल देखो, रंक द्वार नृप आये ।
पाँच साल के भूले बिसरे, फिर हमको भरमाये ।।

लोकतंत्र का कमाल देखो, हमसे मांगे नेता ।
झूठे सच्चे करते वादे, बनकर वह अभिनेता ।।

लोकतंत्र का कमाल देखो, नेता बैठे उखडू ।
बर्तन वाली के आगे वह, बने हुये है कुकडू ।।

लोकतंत्र का कमाल देखो, एक मोल हम सबका ।
ऊॅंच नीच देखे ना कोई, है समान  हर तबका ||

लोकतंत्र का कमाल देखो, शासन है अब अपना ।
अपनों के लिये बुने अपने, अपने पन का सपना ।।
************************

आदरणीय सचिन देवजी

प्रथम प्रस्तुति
छन्द - दोहा


नेता खड़ा चुनाव में,   जोड़े दोनों हाथ
सभी वोट उसको मिलें, मांगे सबका साथ

गलियाँ कूचे छानकर,  करता ये परचार
अच्छे दिन चाहो अगर, दो मोरी सरकार

पड़ा काम तो छू रहा,  देखो सबके पाँव
पांच साल फिर ढूँढना, ये बैठा किस गाँव    

माताओं बहनों जरा, रखना मेरा ध्यान
मुहर लगानी है यहाँ, मेरा घड़ी निशान

आप सभी की मुश्किलें, कर दूँगा आसान
कोरे वादे कर रहा, मार कुटिल मुस्कान

द्वितीय प्रस्तुति
छन्द - दोहा

लोकतंत्र मैं देखिये , क्या जनता के ठाट !
हाथ जोड़ नेता खड़े , लग जाये ना वाट !

आऊँ वोटों के लिये  , घर तेरे हर साँझ !
तू बोले तो दूँ अभी ,  सारे बर्तन माँझ !

शीश झुका विनती करूँ , वोटों की मनुहार !
जीतूँ जो गिरगिट बनूँ , अपने  रंग हजार !

नेता जी अब ध्यान से, सुन लो मेरी बात !
अति लुभावन वादों से, ना बदलें हालात  !

जीत चुनाव कर डालो , काम काज कुछ ठीक !
शायद फिर न मांगोगे , वोटों की यूँ भीख !
**********************

सौरभ पाण्डेय  

छन्द - रोला छन्द
लगती महिला भद्र, चित्र की ’निरत’ ’सुकाजी’
नेता जोड़े हाथ, वोट हित पहुँचा पाजी.. .
’कर मैया उद्धार, शरण मैं तेरी आया’
’करने दे रे काम, करूँगी जैसा पाया’

थे काबिज अंग्रेज, मगर अब आये अपने
लेकिन निकले धूर्त, महज दिखलाते सपने
जनता करती कर्म, नियत है इसकी दुनिया
मगर सियासी चाल, समझती मन से गुनिया

नेता अभिनव जाति, सियासी होता रग-रग
सधी न जिसकी सोच, बोल तक उथली डग-मग
राजनीति की चाल, चले है कुटिल महा जो
लोकतंत्र के नाम, ढोंग ही बेच रहा जो
*******************

आदरणीय जवाहरलाल सिंहजी

छन्द - चौपाई


हाथ जोड़ता हूँ मैं बहना, तुम मेरे आँगन का गहना.
मेरे हाथ की राखी देखो, एक नजर से मुझको पेखो.
बर्तन अब तू ना धोएगी, दाई-बाई सह होएगी  .
एक वोट दे मुझे जिताओ. बिजली से घर को चमकाओ.
अब ना होगा कभी अँधेरा, लाऊंगा मैं नया सवेरा
नवीन रसोईघर दिखेगा, रोज नया पकवान बनेगा
अगर जीत कर घर आऊँगा, लड्डू मैं तुम से खाऊँगा
जीजा जी को भी समझाना, वोट मुझे देकर ही जाना
*******************

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवालाजी  

छन्द - कुण्डलिया

नेताजी झुककर कहें, सेवक मेरा नाम
सावधान उनसे रहें, करें देश बदनाम
करें देश बदनाम, और वोटर को लूटें
बनकर बगुला भक्त, पराये धन पर टूटें
कहे यही कविराय, भ्रष्ट जिनके आकाजी
उनकी हो पहचान, बच न पाए नेताजी ||

बाजीगर नेता हुए, जनता दे ना भाव,
मधुर बात नेता करे, छोड़े खूब प्रभाव |
छोड़े खूब प्रभाव लगें ये प्रभु का बन्दे
मांग रहे सहयोग, चाहते सबसे चंदे
देते सबको सीख, मतों के ये सौदागर
ले झोली में भीख, ठगें सबको बाजीगर ||

मत का समझें अर्थ सब, तब आवे जनतंत्र,
जन जन के संकल्प से, आ जावे गणतंत्र ।
आ जावे गणतंत्र, योग्य को चुनकर लाओ
अर्ज करे कर जोड़,योग्य हो उन्हें जिताओं
कह लक्ष्मण कविराय, टटोले मन तो सबका
वोटर करे न बात,मूल्य सब समझे मत का ||

**************************

आदरणीय शिज्जु "शकूर"जी

छन्द - दोहे


हाथ जोड़ बैठा हुआ, क्या इसकी पहचान।
नेता नामक जीव है, या कोई इंसान।।

बरतन भाँडे छोड़कर, सुनिये मेरी बात।
सेवा सबकी मैं करूँ, दिन हो चाहे रात।।

सूरत पर ना जाइये, मैं भी हूँ इंसान।
अंगूठे से दाबना, मेरा देख निशान।।

श्वेत वसन दिन है अगर, मुखड़ा काली रात।
सूरत तो दिखती नहीं, सेवा की क्या बात।।

और तनिक झुकिये नहीं, लग जायेगी चोट।
हाँ-हाँ जी मैं आपको, दूँगी अपना वोट।।
*****************

आदरणीय अरुण कुमार निगमजी  

छन्द - कुण्डलिया

बर्तन माँजे जिस तरह , माँजूंगी परिवेश
चम-चम चमकेगा सुनो , मेरा भारत देश
मेरा भारत देश ,  आज से  निर्मल होगा
बगुले  तूने  खूब , हंस  का  पहना चोगा
जागे  सारे लोग ,  हुआ  ऐसा  परिवर्तन
बदल गई अब सोच, नहीं खड़केंगे बर्तन ||
********************

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Replies to This Discussion

आदरणीय सौरभ भाईजी ,

छंदोत्सव के सफल आयोजन और संकलन के लिए हार्दिक धन्यवाद ,आभार । 

संशोधन हेतु अनुरोध 

चौपाई ..........  संशोधित ............  खाऊंगा ना खाने दूंगा। सभी ज़रूरी काम करूंगा॥

कामरूप छंद ...   [ 1 ] संशोधित 

काला अधिक कुछ, और मोटा, खटखटाये द्वार ।   

कामरूप छंद ...   [ 2 ]  संशोधित  पूरी रचना पोस्ट कर रहा हूँ

कालू भगत है, नाम मेरा, चिन्ह गेंडा छाप।                                

फोटो छपा है, देख मेरा, रखें पर्ची आप॥                             

मैं भी चलूँगी , संग तेरे, हर गली हर द्वार।                           

तो जीत पक्की, है तुम्हारी, साथ करें प्रचार॥ 

सादर 

                      

आदरणीय अखिलेशभाई,
आपके सुझावों के अनुसार पंक्तियों को संशोधित कर दिया गया है.
सादर

"बड़ा ही तेज चैनल है" 

गज़ब ! आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, आदरणीय सौरभ भईया, इस श्रमसाध्य और त्वरित संकलन हेतु आप को बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद .

भाई गणेशजी, त्वरित कार्य पर शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद.
यदि मेरा डोंगल रात्रि  साढ़े बारह के बाद अचानक एक-सवा घण्टों के लिए कार्य करना बन्द न करता तो संभवतः संकलित रचनओं की प्रस्तुति और पहले आ जाती.


आज की तिथि में त्वरित संकलन कार्य मेरी विवशता भी है. अन्यथा, हम (हम सभी कहें तो अनुपयुक्त न होगा) जिस व्यस्तता में चल रहे हैं, कि मिले मौके को गँवाने का अर्थ था,  जाने कबतक यह कार्य विलम्बित रहता. फिर आयोजन की कार्यशाला का ही नुकसान होता न !
अब यही अपेक्षा है कि वे सभी रचनाकार जिनकी पंक्तियाँ रंगीन हुई हैं, उन्हें काला करवा लें. .. :-)))
शुभ-शुभ

आदरणीय मंच संचालक महोदय मैं अपनी रचनाओं में लाल रंग में अंकित पंक्ति में निम्नानुसार संशोधन की प्रार्थना करता हूं -
प्रथम प्रस्तुति दोहा -
एक नार कर रही थी, बर्तन को जब साफ । के स्थान पर
एक नार थी कर रह , बर्तन को जब साफ । एवं
दूसरी प्रस्तुति में
ऊॅंच नीच देखे ना कोई, समान है हर तबका ।। के स्थान पर
ऊॅंच नीच देखे ना कोई, है समान  हर तबका ।।

यथा निवेदित तदनुरूप संशोधित, आदरणीय रमेशभाई.
विश्वास है, आपने इन संशोधनों का कारण पूरी तरह से समझ लिया है.
शुभेच्छाएँ

जी,

क्षमा याचना के साथ पुनः निवेदन है कि कापी पेस्ट करते समय ‘‘एक नार थी कर रही‘‘ के ‘‘रही‘ में मात्रा कट गया कृपया इसे संशोधित करने की कृपा करे  सादर

हा हा हा.. .......

आदरणीय रमेशभाई,
आप विश्वास करें, मुझे पूरा अहसास था कि भूलवश ही सही रही शब्द की  दीर्घ छूट गयी है. मेरे मन में था कि उस पंक्ति को पेस्ट करते समय इसे ठीक कर लूँगा. लेकिन मुझसे भी भूल हो गयी... :-))
टंकण त्रुटि को ठीक कर लिया गया है.

आदरणीय अरुण भाईजी, मंच पर हम सभी सदस्यों को आपकी गुरुतर उपस्थिति की सदा अपेक्षा रहती है. व्यस्तता कार्मिक जीवन की अहम हिस्सा है. इसे सम्मान देते हुए ही हम सभी अपने व्यक्तिगत जीवन के अन्यान्य पहलुओं को समाज में रख पाते हैं. यह मंच वैचारिक रूप से समान कार्यकर्ताओं को आवश्यक आकाश देने का प्रयास कर रहा है. साथ ही, कई नये सदस्य आपकी सलाहों की बाट जोह रहे हैं.

आपकी प्रतिक्रिया और हुभकामनाओम् के लिए सादर धन्यवाद.

आदरणीय सौरभ भाई जी,

त्वरित "संकलन-प्रस्तुति"  हेतु बधाइयाँ......इतनी व्यस्तता के बाद भी आपकी उपस्थिति और श्रम देख कर लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है क्योंकि व्यस्तता को कारण मैं भी बताता हूँ. प्रयास करूँगा कि और भी अधिक समय उपस्थित रह सकूं. आपका कार्य न केवल सराहनीय है, अपितु अनुकरणीय भी है. सादर........

आपका सादर आभार आदरणीय अरुणभाईजी, आपने मेरे दायित्व निर्वहन और तदनुरूप क्रियान्वयन को मान दिया है.
सादर

सुंदर एवं सफल आयोजन के लिए साधुवाद 

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