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बोलने से कौन करता है मना - (ग़ज़ल) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    212

**********************

जन्म  से  ही   यार  जो  बेशर्म  है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
**
छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ  मेरे  शेष  अब  तो  कर्म  है
**
बोलने  से  कौन  करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
**
चाँद  आये  तो  बिछाऊँ  मैं उसे
 एक  चादर  आँसुओं  की नर्म है
**
शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की  ये हवा क्यों गर्म है
**
( रचना - 30 जुलाई 2014 )

मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 613

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 18, 2014 at 12:15pm

आदरणीय मेरे कहे को मान देने के लिए सादर धन्यवाद.

चाँद आये तो बिछाऊँ उसके हित
एक  चादर  आँसुओं  की नर्म है
हम्म .....

या ऐसे देखें -
चाँद पहलू में कभी आ जाय तो 
एक चादर आँसुओं की नर्म है

यों, ऐसे शेर, आदरणीय, मनोदशाओं पर निर्भर करते हैं. अतः ऑप्शन कई हो सकते हैं.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2014 at 11:27am


आदरणीय भाई आशीष जी, गजल पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार । आपने सही फरमाया कि आदरणीय सौरभ भाई की बात पर खूबसूरत मंजर पेश किया जा सकता है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2014 at 11:26am


आदरणीय भाई सौरभ जी , सादर अभिवादन । गजल पर विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद । संदर्भतः जिस पंक्ति के विषय में आपने लिखा है मेरा मन्तव्य भी आसुओ की नर्म चादर को चाँद के लिए बिछाना ही था । आपकी टिप्पणी के बाद मैंने इस पक्ति को पुनः गौर किया तो मुझे भी लगा कि यहाँ पर अर्थ कुछ उलझ सा गया है ।  अब इसमें संशोधन कर रहा हूं जिससे अर्थ जादा स्पष्ट हो सके ।
 ‘ चाँद आये तो बिछाऊँ उसके हित‘ क्या ऐसा करने से मंतव्य पूरा हो रहा है ? मार्गदर्शन करे आभारी रहूंगा ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2014 at 11:25am


आदरणीया मीना बहन , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2014 at 11:24am


आदरणीय भाई विजय निकोर जी गजल पर आपकी उपस्थिति से इसका मान बढ़ गया । उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2014 at 11:24am

आदरणीय भाई रामसिरोमणिजी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार l

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 14, 2014 at 11:12pm

काफियों के लिए खास दाद आदरणीय लक्ष्मण जी !

आदरणीय सौरभ जी की कही बात से एक खूबसूरत मंजर पेश किया जा सकता है |

बढ़िया ग़ज़ल पर बधाई और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2014 at 11:43am

आदरणीय लक्ष्मण धामीजी, बधाई स्वीकारिेये इस बढिया ग़ज़ल पर.  ग़ज़ल के शेर संयत और सक्षम हैं. काफ़िया को आपने बेहतर निभाया है. 

अलबत्ता, आँसुओं की नर्म चादर पास होने के बावज़ूद चाँद को बिछाने की बात सोचना मुझे स्पष्ट नहीं हुआ. उस बिछी चादर पर चाँद को सुलाना या बिठाना तो समझ में आता है. आपके स्पष्टीकरण की चाहना है, आदरणीय.

इस ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई.

सादर

Comment by Meena Pathak on August 13, 2014 at 2:35pm

बहुत खूब ..बधाई आप को 

Comment by vijay nikore on August 13, 2014 at 11:12am

अच्छी रचना के लिए बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी

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