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कोई तो मकसद होगा दुनियाँ में हमारा -डा० विजय शंकर

कोई तो मकसद होगा दुनियाँ में हमारा -डा० विजय शंकर

लोगों ने तेरी दुनियाँ को
क्या से क्या बना दिया
हम तुझे ही बनाते
और तराशते रह गए ॥

लोगों ने तेरी दुनियाँ को
गुल-गुलिस्तां बना दिया
हम जो फूल मिले वो भी
तुझे ही चढ़ाते रह गए ॥

तुमने हमें क्यों भेजा था
इस दुनियाँ जहाँन में
वो सब छोड़ हम तुझे
ही तलाशते रह गए ॥

कोई तो मकसद होगा
दुनियाँ में हमारा भी
हम उसको छोड़ तुझको ही
मकसद समझते रह गए ||

तेरी जो उम्मीदें रही होंगी हमसे
उनको तो हमने जाना नहीं
हर बात पे हम तेरी ही
उम्मीदों पे बैठे रह गए ||

लगा बनाने वाले ने हमें
कुछ काम दिए थे ,जिन्हें
छोड़ अपने सारे काम हम
उसी पे छोड़ बैठे रह गए ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

Views: 404

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 12, 2014 at 10:48pm
आदरणीय लक्षमण धामी जी , बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2014 at 11:29am

आ० भाई विजय शंकर जी , इस बेहतरीन और सारगर्भित रचना को साझा करने के लिए बहुत बहुत बधाई .

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 12, 2014 at 10:47am
प्रिय जीतेन्द्र जी , आपकी बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 12, 2014 at 9:44am

बहुत ही सुंदर रचना साझा की आपने, शायद आजकल इंसानों के वजूद बस पढने को ही मिलते हैं. बहुत-२ बधाई आदरणीय डा.विजय जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 11, 2014 at 12:46pm
आदरणीय वेदिका जी , बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
Comment by वेदिका on August 11, 2014 at 11:01am
लगा बनाने वाले ने हमें
कुछ काम दिए थे ,जिन्हें
छोड़ अपने सारे काम हम
उसी पे छोड़ बैठे रह गए // यह बंद पुख्ता नज़र आया।
हार्दिक बधाई लीजिये आदरणीय!
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 11, 2014 at 10:47am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , रचना को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाव।
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 11, 2014 at 10:44am
आदरणीय डॉ o गोपाल नरायन जी,
आप्पकी नज़र पैनी है। मेरा संकेत सिर्फ हमारी वजेहात का ही नहीं है बल्कि हमारे दायित्वों का भी है।
रचना को परखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2014 at 10:38am

इंसानों के होने के कारणों को साझा करती आपकी जीवन दर्शन शास्त्रीय रचना के लिए आपको  बधाइयाँ , आदरणीय विजय भाई |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 10, 2014 at 1:15pm

विजय जी 

इंसानी वजूद की वजेहात का प्रश्न  शाश्वत है i आपकी चिंता बिलकुल वाजिब है -

 

तेरी जो उम्मीदें रही होंगी हमसे
उनको तो हमने जाना नहीं
हर बात पे हम तेरी ही
उम्मीदों पे बैठे रह गए ||

लगा बनाने वाले ने हमें
कुछ काम दिए थे ,जिन्हें
छोड़ अपने सारे काम हम
उसी पे छोड़ बैठे रह गए ॥

 

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