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आ० भाई विजय शंकर जी , इस बेहतरीन और सारगर्भित रचना को साझा करने के लिए बहुत बहुत बधाई .
बहुत ही सुंदर रचना साझा की आपने, शायद आजकल इंसानों के वजूद बस पढने को ही मिलते हैं. बहुत-२ बधाई आदरणीय डा.विजय जी
इंसानों के होने के कारणों को साझा करती आपकी जीवन दर्शन शास्त्रीय रचना के लिए आपको बधाइयाँ , आदरणीय विजय भाई |
विजय जी
इंसानी वजूद की वजेहात का प्रश्न शाश्वत है i आपकी चिंता बिलकुल वाजिब है -
तेरी जो उम्मीदें रही होंगी हमसे
उनको तो हमने जाना नहीं
हर बात पे हम तेरी ही
उम्मीदों पे बैठे रह गए ||
लगा बनाने वाले ने हमें
कुछ काम दिए थे ,जिन्हें
छोड़ अपने सारे काम हम
उसी पे छोड़ बैठे रह गए ॥
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