For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

आज गहरे अंतस में

न जाने कैसी 

अजीब सी 

छाया बन रही है 

लगातार जारी है 

समझने की नाकाम कोशिश .... 

मगर छाया नहीं सुलझती 

दौड़ रहा हूँ ... 

बीते हुये कल के 

हर एक के जानिब को 

शायद वो हो ... 

नहीं वो नहीं है ... 

अच्छा वो हो सकता है 

मगर कहाँ भागूँ 

कितना भागूँ ... 

बहुत दूर आ  चुका हूँ 

वापस जाना मुमकीन नहीं हैं 

अंतस में 

छाया और गहरी 

होती जा रही है 

अजीब सा लगता है 

जब कोई अपना हो 

और अपना न भी हो 

छाया तो छाया ही है 

मगर है तो किसी

अपने की 

है न .... 

लगाव सा हो गया है 

मगर पहचान नहीं पा रहा 

कोई - कोई उलझन अच्छी 

लगती है ... 

सुलझे बगैर ... 

उलझन ... उलझन ही है .... 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 518

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Amod Kumar Srivastava on January 10, 2014 at 8:28pm

आ0 वंदना जी, आ0 सौरभ पांडे जी, आ0 बृजेश नीरज जी, आ0 बैद्यनाथ सारथी जी, आ0 अरुण शर्मा जी, आ0 जितेंद्र गीत जी, आ0 अन्नपुरना जी, आ0 मुकर्जी जी, आ0 गिरिराज भण्डारी जी आप सभी का बहुत बहुत आभार ....

Comment by vandana on January 9, 2014 at 5:53am

बिलकुल ठीक कहा आपने -

कोई - कोई उलझन अच्छी 

लगती है ... 

कभी कभी उलझनें बहुत कुछ सिखा जाती हैं अत: देर तक साथ रहती हैं तो प्रिय भी हो जाती हैं 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 9, 2014 at 2:12am

बधाइयाँ.. बहुत खूब भाईजी..

Comment by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 1:11pm

अच्छी रचना है! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Saarthi Baidyanath on January 6, 2014 at 10:43pm

ज़िन्दगी की पहेलियों को सुलझाने में लगा मन !...अच्छी रचना ..पठनीय रचना ...सादर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 6, 2014 at 11:45am

आदरणीय आमोद भाई जी बेहद सुन्दर रचना बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 6, 2014 at 10:17am

छाया तो छाया ही है 

मगर है तो किसी

अपने की 

है न .... 

लगाव सा हो गया है 

मगर पहचान नहीं पा रहा 

कोई - कोई उलझन अच्छी 

लगती है ... 

सुलझे बगैर ... 

उलझन ... उलझन ही है ...........अपनों के बीच ,अंतर का विश्लेषण बहुत प्रभावी है, बधाई स्वीकारें आदरणीय आमोद जी

Comment by annapurna bajpai on January 5, 2014 at 4:38pm

अच्छी रचना , बधाई ।

Comment by coontee mukerji on January 5, 2014 at 3:55pm

मांसिक उधेड़बुन  की बहुत बहुत अभिव्यक्ति ........आपको बहुत बधाई.सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 5, 2014 at 9:59am

आदरणीय आमोद भाई , सुन्दर भाव अभिव्यक्ति के लिये बधाइयाँ ॥

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय मिथिलेश भाई, निवेदन का प्रस्तुत स्वर यथार्थ की चौखट पर नत है। परन्तु, अपनी अस्मिता को नकारता…"
yesterday
Sushil Sarna posted blog posts
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Monday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Monday
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service