चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा 
 
 देख हताशा की मिट्टी मन में लिपटी है 
 स्वार्थ सिद्धि में लिप्त भावना भी सिमटी है
 ले आओ तूफान के मिट्टी ये उड़ जाए 
 मन का दिव्य प्रकाश देख तम भी घबराए 
 
 कब तक अनुमानों के दुनिया मे खोएगा 
 चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा 
 
 
 स्वाभिमान खो गया तुम्हारा क्यूँ ये बोलो 
 तनमन से नंगे होकर तुम जग भर डोलो  
 संस्कार मर्यादाओं का भान नहीं है 
 यकीं मुझे आया के तू इंसान नहीं है 
    
 जन्म से रोता आया क्या अब भी रोएगा ??
 चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
बहुत तरक्की कर ली प्यारी धरती भूले
क्या पतझर सावन हर ऋतू में झूले झूले
राजनीती कर रहा है या कुर्सी का दंगल
काट काट के जंगल तू करता है मंगल
गंगा मैली कर दी कैसे पाप धोएगा
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
इन्कलाब की जब तब दिल में बिजली कौंधे
पड़े सड़क पर देखा फिर मुँह बाए औंधे
सोचो किसने प्यारे सारे सपने रौंदे
उसको ये अधिकार भला फिर से तू क्यों दे
काटेगा तू वो ही प्यारे जो बोयेगा
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
संदीप पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
यह प्रस्तुति रुटीनी सी हो गयी है.
कि की जगह के का प्रयोग कितना व्यावहारिक और सैद्धांतिक है ? कुछ व्याकरणीय अशुद्धियाँ भी
दिख गयीं.. जैसे दुनिया पुल्लिंग नहीं स्त्रींलिंग है.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सन्दीप भाई , गफलत से जगाती बहुत सुन्दर गीत रचना के लिये आपको बधाई ॥
दो एक पंक्तियों मे गेयता अटक रही है , शायद मात्रा मे फर्क हो , देख लीजियेगा !
गंगा मैली कर दी कैसे पाप धोएगा ,
और
उसको ये अधिकार भला फिर से तू क्यों दे - ॥
ले आओ तूफान के मिट्टी ये उड़ जाए 
मन का दिव्य प्रकाश देख तम भी घबराए ....आदरणीय पटेल जी सचेत करती हुई , जागरूक करती हुई ..रचना ..एक सार्थक सन्देश अपने अंतस में समाहित किये हुए //इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई ..सादर 
पटेल जी
आपकी उद्बोधन कविता उत्साहवर्धक है i
बधाई हो i
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