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दीवार

 

मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.
उठो,
उस दीवार से ऊपर उठो
नहीं तो सुबह औ’ शाम
उसकी लम्बी होती छाया
तुम्हें लील लेगी.

 

उस पार देखने के लिये
ऊपर उठना पड़ेगा,
उस दीवार से बहुत ऊपर –
और,
दीवार को नीचा दिखाने के लिये
तुम्हें नीचे आना पड़ेगा,
उस ज़मीं पर
जहाँ तुम्हारे अपने
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं.

 

अगर सिर्फ़ सोचते रहोगे
दीवारें खड़ी होती जाएँगी
तुम्हारे चारों ओर
नज़दीक – और नज़दीक
चुन दिये जाओगे
तुम अपने ही सोच द्वारा
रंग, जाति, भाषा और धर्म के
भंगुर ईंटों के बीच,
हमेशा के लिये.
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 668

Comment

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Comment by बृजेश नीरज on November 14, 2013 at 5:54pm

वाह! अदभुत! सच ही, कितने टुकड़ों में बंटा है आज आदमी. ये विभाजन हमें अलग-थलग करता जा रहा है. इस स्थितियों को जो सुन्दर शब्द मिले हैं कि बस बारबार पढ़ते ही जानो का मन होता है! आपको हार्दिक बधाई!

सादर!

Comment by Sushil.Joshi on November 14, 2013 at 5:03am

बहुत ही खूबसूरत रचना है आ0 शर्दिन्दु जी..... हार्दिक बधाई...

Comment by बृजेश नीरज on November 13, 2013 at 11:40pm

वाह! तमाम विसंगतियों के बीच भी जो जिजीविषा आपकी रचनायें जीती हैं वह अतुलनीय है!

इस सुन्दर अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Amod Kumar Srivastava on November 13, 2013 at 10:08pm

वाह ... सुंदर... एक लाजवाब रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आ0 शरदिंदु जी ... एक ऐसी अभिव्यक्ति जो दिल को छु गई .... धन्यवाद आपका ..... 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 13, 2013 at 10:45am

मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.

सच! इन्सान लम्बे समय तक अपने स्वार्थ की ईंटों व्  असुरक्षित दूरियों  के गारे से, रिश्तों के मध्य एक अनचाही दीवार खड़ी कर लेता है, अगर सही समय पर निस्वार्थ भावनाओं से उस दीवार को गिराया न जाय तो सुबह से दोपहर तक, फिर दोपहर से शाम तक किसी न किसी को उसकी परछाई में रहना ही पड़ता है, शायद इसी तरह निर्मल हवाओं का झोका भी बट कर रह जाता है..

बहुत ही सुंदर भाव की सन्देशप्रद रचना पर हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय शरदिंदु जी

Comment by vijay nikore on November 13, 2013 at 4:59am

सुन्दर शब्दों  से जड़े भाव , कविता को अनुपम बनाते हुए पाठक के दिल में पसर जाते हैं !

इस संदेशपरक रचना के लिए ढेर सराहना स्वीकारें।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on November 13, 2013 at 3:00am

आदरणीया गीतिका जी, आप संवेदनशील रचनाकर्मी हैं इसीलिये मेरी इस रचना का तत्व आपसे छुपा नहीं रहा. विद्वत प्रतिक्रिया के लिये आभार. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on November 13, 2013 at 2:56am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, आपके सहज उच्छ्वास से स्पष्ट है कि मेरी रचना ने आपके अंतर्मन को स्पर्श किया है...मेरे लिये इससे बढ़कर और क्या हो सकता है! आप लखनऊ वासी हैं, मैं भी. निकट भविष्य में आपसे बहुत कुछ सीखने की इच्छा रखता हूँ. स्नेह बनाए रखें. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on November 13, 2013 at 2:49am

आदरणीया प्राची जी, आपने जिस तन्मयता से मेरी रचना पढ़ी है उसीसे मैं धन्य हो गया. आपने जो परिवर्तन/संशोधन किये हैं वे सर्वथा  उचित हैं. प्रोत्साहन और ज्ञानवर्धन के लिये सदा आभारी रहूंगा. सादर.

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on November 12, 2013 at 11:56pm

आदरणीय रचना बहुत सार्थक है, पर क्या ये दीवार सिर्फ और सिर्फ समय द्वारा खड़ी की गयी है। यह प्रश्न इस कविता को पढने के बाद मेरे अंतर्मन में गूंज रहा है। अगर समय मिले तो अवश्य मार्गदर्शन करें। हार्दिक बधाई।

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