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तनाव भरे कुछ घण्टे - आँखों देखी 2

तनाव से भरे कुछ घण्टे – “ आँखों देखी 2 “

भूमिका : मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ उसे समझने के लिये आवश्यक है कि घटना से सम्बंधित स्थान, काल, परिवेश का एक संक्षिप्त परिचय दे दूँ.
अंटार्कटिका हमारे ग्रह – पृथ्वी – का वह सुदूरतम महाद्वीप है जहाँ मानव की कोई स्थायी बस्ती नहीं है. हैं तो कुछ देशों के वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र जिनमें अस्थायी रूप से रहकर काम करने के लिये वैज्ञानिक तथा अन्य अभियात्रियों का हर वर्ष समागम होता है. लगभग 1.4 करोड़ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले इस महाद्वीप का 98% भाग बर्फ़ की चादर से ढका हुआ है, एक ऐसे बर्फ़ की चादर से जिसकी औसतन मोटाई दो किलोमीटर है. पृथ्वी का आज तक का न्यूनतम तापमान (माईनस 89.6 डिग्री सेल्सिअस) अंटार्कटिका में ही रेकॉर्ड किया गया है.
सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि 50 करोड़ वर्ष पहले ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और मदागास्कर ही नहीं, हमारा अपना भारतवर्ष भी अंटार्कटिका के साथ युक्त था. लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले उस विशाल भू-खण्ड “ गोंड्वानालैण्ड “ का टूटना शुरु हुआ और आज के ये भू-भाग अंटार्कटिका से दूर होते गये. फलस्वरूप इस बात की महती सम्भावना है कि अंटार्कटिका के मोटी बर्फ की चादर के नीचे प्राकृतिक खनिज संसाधनों का एक विशाल भण्डार है. आज हमारे परिचित विश्व में ‘ सभ्य ‘ और ‘ स्वार्थी ‘ समाज की कभी समाप्त न होने वाली आवश्यक्ताओं को पूरा करने के प्रयास में प्राकृतिक संसाधनों को ऐसा दुह लिया गया है कि आने वाले प्रजन्मों की सुख-शांति को लेकर एक बड़ा सा प्रश्नचिह्न लग चुका है. ऐसी दशा में स्वाभाविक रूप से पृथ्वी के उन अनछुए भण्डारों की ओर इंसान की दृष्टि गयी है जहाँ आवश्यक्ता पड़ने पर वह अपने हथियार और हथियारों के बल पर अपना अधिकार लेकर टूट पड़े. केवल प्राकृतिक संसाधन ही नहीं, अंटार्कटिका की संरचना, वहाँ की भौगोलिक स्थिति, वहाँ का वातावरण ऐसा है कि यह महाद्वीप अपने आप में एक अनोखा, खुला और स्वच्छ्तम प्रयोगशाला है. भूविज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीवविज्ञान, मौसमविज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्साशास्त्र आदि के क्षेत्र में बहुत से देश यहाँ काम कर रहे हैं. भारत का पहला वैज्ञानिक अभियान 1981-82 में वहाँ गया था और तब से निरंतर उन्नति करते हुए अंटार्कटिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों ने अति प्रशंसनीय कार्य किया है. यह मुक्त प्रयोगशाला NO MAN’S LAND होने के बावजूद भारत की उपस्थिति अंटार्कटिका में इतनी मजबूत है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे प्रशंसा, ईर्ष्या और बाधा अनवरत मिलती रही है.
अंटार्कटिका में भारत का पहला अनुसंधान केंद्र “ दक्षिण गंगोत्री ” तीसरे अभियान (1983-84) के दौरान बनाया गया था. पहला शीतकालीन दल मार्च 1984 में इस स्टेशन में प्रविष्ट हुआ और फरवरी 1985 तक वहाँ रहा. मुझे पाँचवें अभियान (1985-86) के समय तीसरे शीतकालीन दल में सदस्य होने का गौरव प्राप्त हुआ था. इसी मंच (ओ.बी.ओ.) में “ आँखों देखी “ शीर्षक से मैंने फरवरी 1986 में “ दक्षिण गंगोत्री “ के पहले अनोखे अनुभव का वर्णन किया था.
कथा : जहाज से अभियान दल के नेता व डॉक्टरों के आने के बाद घटनाक्रम तीव्र गति से चलने लगा. एक ओर डॉक्टरों ने बीमार सदस्य की चिकित्सा शुरु की. दूसरी ओर दल नेता ने सबसे पहले सबकी उपस्थिति दर्ज कराने का आदेश दिया जिसे अंग्रेज़ी में Head Count कहते हैं. ....तभी पता चला कि ग्रीष्मकालीन दल के दो वैज्ञानिक लापता हैं. तुरंत विशेष व्यवस्था कर (जिनका वर्णन इस छोटी सी प्रस्तुति में करना सम्भव नहीं) छोटी छोटी टुकड़ियों में सदस्यों को भेजा गया लापता वैज्ञानिकों को ढूँढ़ने. बर्फीले तूफान के कारण शून्य दृश्यत्व ( Zero visibility ) में यह काम करना अत्यधिक कठिन था.
दो घण्टे के प्रयास के बाद सौभाग्य से एक लापता वैज्ञानिक स्टेशन से लगभग 100 मीटर की दूरी पर मिल गये. वे किसी काम से उस समय वहाँ गए थे जब मौसम इतना खराब नहीं हुआ था. एक अस्थाई बंद कमरे के अंदर काम करते हुए उन्हें बिगड़ते मौसम का आभास तक नहीं हुआ. जब हुआ तो वे जल्दी जल्दी लौटने लगे लेकिन कुछ दिखाई न देने के कारण ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाये. कोई उपाय न देखकर वे एक बाँस की बल्ली को जिसे स्नो पोल की तरह लगाया था, पकड़कर निरंतर चक्कर लगाने लगे. अभियान के दौरान ट्रेनिंग के समय विशेषज्ञों ने ऐसी परिस्थिति में जीवन रक्षा के लिये सद्स्यों को यही हिदायत दी थी. इस प्रकार से व्यक्ति बर्फ में दबने से बचता है और तब तक शरीर को गर्म रख सकता है जब तक सहायता न आ पहुँचे.
जिस दल को यह सफलता मिली उसके वरिष्ठतम सदस्य ने दिशा ज्ञान को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़कर भयभीत सह-अभियात्री को इशारा कर आश्वस्त किया लेकिन सहायता आ पहुँचने की खुशी में उत्तेजनावश वैज्ञानिक उनसे लिपट गए और गोद में लेकर हवा में घूम गए. नतीजा यह हुआ कि अब दोनों का दिशा ज्ञान बिगड़ गया था फलत: उस गाड़ी तक उनका पहुँचना नामुमकिन लग रहा था जिसमें बचाव दल के अन्य सदस्य उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. ख़ैर कुछ समय बाद विशष प्रयास और कुछ अच्छी किस्मत के कारण वे सभी सुरक्षित स्टेशन वापस आए.
इधर छह घण्टे के अथक प्रयास के बाद भी दूसरे लापता वैज्ञानिक का कोई पता किसी भी बचाव दल को नहीं मिला. स्टेशन के बाहर दूर-दूर तक नर्म बर्फ़ का पहाड़ जमा हो रहा था और हर पल यह लग रहा था कि शायद अब हमलोग उन्हें कभी नहीं देख पायेंगे. ईश्वर की असीम कृपा – जब सब लोग दुखी, निराश उस मौसम को झेलते हुए स्तब्ध बैठे थे, लगभग 50 वर्षीय वह लापता वैज्ञानिक अचानक ही आ पहुँचे. आठ घण्टे से भी ज़्यादा समय तक बर्फीले तूफान में भटकने के बाद उनके चेहरे पर आँख की पलकों से लेकर दाढ़ी तक मोटी बर्फ़ जमी हुई थी. वे लड़खड़ा रहे थे लेकिन हमारी खुशी का ठिकाना न रहा जब हमने उन्हें अपने कदमों से चलकर अंदर आते हुए देखा.
स्टेशन में पहली ही रात के इस अनुभव ने हममें से कइयों को झकझोर दिया लेकिन घटनाप्रवाह ने बहुत सारी शिक्षा भी दी जिससे आने वाले समय में हमें बड़ी सहायता मिली.

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on May 1, 2013 at 6:18pm

आदरणीय श्री रक्ताले, आपकी सुंदर, प्रेरणादायी प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 1, 2013 at 8:53am

उफ़! बहुत ही रोंगटे खड़े कर देने वाली सत्य घटना से परिचित कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया. सच है ये सूना बस था की ऐसे स्थानों पर गोल घूम जाने से व्यक्ति दिशा भूल जाता है. आपने उदाहरण प्रस्तुत कर दिया. सचमुच बहुत ही जटिल कार्य है. सादर आभार.और ऐसे दल के आप सदस्य रहे इस पर हमें गर्व है. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 30, 2013 at 5:43pm

 

“ आँखों देखी 2 “ को पढ़ने के बाद सभी महानुभावों की प्रतिक्रिया से मैं अभिभूत हूँ. विश्वास मानिए आप सबकी टिप्पणी के आगे अंटार्कटिका के संदर्भ में मुझे मिले हुए सभी सरकारी सर्टिफिकेट, पुरस्कार आदि बौने हो गये हैं.
आदरणीय सौरभ जी, श्रद्धेय श्री विजय निकोर जी और आदरणीया डॉ प्राची जी ने मुझे विशेष रूप से उद्बुद्ध किया था कि मैं अपने ऐसे अनुभवों को बयाँ करूँ जो आमतौर पर सुनने में नहीं आते.

आ. सौरभ जी ने टेथिस (TETHYS) सागर के स्थान पर हिमालय के जन्म की बात कहकर भूविज्ञान के एक अहम विषय ‘प्लेट टेकटॉनिक‘ प्रक्रिया की बात छेड़ी है. भारत या ‘भारतीय प्लेट‘ आज भी उत्तर की ओर खिसक रहा है और ‘चीनी प्लेट‘ के नीचे धँसता जा रहा है. यही कारण है कि हिमालय की चोटियाँ और ऊँची होती जा रही हैं. समूचा हिमालय बहुत ही सक्रिय लेकिन भूवैज्ञानिक अर्थों में दुर्बल होने के कारण इस विशाल पर्वतमाला और इसके आस-पास के क्षेत्र में भूकम्प की महती सम्भावना बनी हुई है.


अंटर्कटिका के बारे में अभी बहुत कुछ कहना है. यहाँ केवल इतना ही स्पष्ट करना चाहूंगा कि भारत वहाँ बहुत देर से पहुँचा है. रूस, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, नॉरवे, जर्मनी, चीन, जापान और दक्षिण अफ्रीका हमसे बहुत पहले अंटर्कटिका पहुँचे थे. प्रशंसा करनी होगी भारत की कि थोड़े से समय में ही हमने उपरोक्त शीर्षस्थानीय देशों के बीच अपनी जगह बना ली है. कुछ विस्तार में सही समय पर अपने लेख में बातें करूंगा.


श्री केवल प्रसाद जी से सहमत हूँ – हम चाहे कुछ भी बन जाएँ, ईश्वर की महिमा, उसकी सत्यता और अनुकम्पा को नकार नहीं सकते. जो ऐसा करते है वे जो भी हों, सच्चे अर्थों में वैज्ञानिक नहीं हैं क्योंकि जिसके तह तक हम नहीं जा सकते उसकी सत्ता में अविश्वास करना विज्ञान की परिभाषा के विरुद्ध है.


यह सच है कि अंटार्कटिका में रहने के लिये केवल अच्छे स्वास्थ्य से काम नहीं चलता एक विशेष मानसिक दृढ़ता और परिपक्वता की आवश्यक्ता होती है. आने वाले लेखों में मैं इसके कई उदाहरण दूंगा.


मेरे सेवानिवृत्त जीवन में स्मृतियों को नयी रोशनी में देखने और उन्हें आपसे साझा करने के लिये जो प्रेरणामिली उसके लिये मैं सभी का तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ. ....सादर.

Comment by राजेश 'मृदु' on April 30, 2013 at 2:31pm

मुझे तो पढ़कर ही थरथरी आ रही है, पता नहीं आपलोग वहां काम कैसे कर पाते हैं । आपने जिस तरह वर्णन किया है वह जिज्ञासा बनाए रखता है, विज्ञान कथाएं, उपन्‍यास बहुत पढ़े, अबतक विज्ञान कविता नहीं पढ़ी, आप लिखें तो काफी सुरूचिपूर्ण होगी, सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 30, 2013 at 9:13am

इस लेख को लिखकर आपने महत्वपूर्ण जानकारी ही नहीं कराई बल्कि आपके दल के साहसिक कदम के बारे में

अति संक्षिप्त में असरदार तरीके से साझा किया है इससे आपके साहसी होने और अच्छा लेखक होने के गुणों 

से भी साक्षात्कार हुआ है | आपको ढेरो बधाइयां और धन्व्वाद आभार आदरणीय श्री शरदिंदु मुखर्जी | भोगोलिक 

जानकारी से अवगत कराने के लिए आपका आभार सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2013 at 8:18am

इस रोमांचक सत्य घटना को संक्षेपमें ही किन्तु जिस प्रवाह में आपने लिखा है वह आपकी सफल किस्सागोई की सुन्दर बानग़ी है, आदरणीय शरदिन्दु जी.  बहुत-बहुत बधाई.

मुझे सबसे रोचक लगा इस घटना को साझा करने के पूर्व आप द्वारा भूमिका में अंटार्कटिका और गोंड्वानालैण्ड के संबन्ध में कहा जाना. इससे उन पाठकों को निर्जनप्राय किन्तु अभिनव प्राणियों से समृद्ध उस विशाल भूभाग की महत्ता की जानकारी हो जाती है.

यह सही है कि मेडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया, अफ़्रीका, दक्षिण अमरीका (अर्जेण्टिना) के वृहद भाग उसी प्रदेश से छिटक कर उत्तर की ओर निकल चले.  लेकिन इन सबों में उत्तरोत्तर सरकने की सबसे तीव्र गति रही उस समय के भारतीय भूभाग की जो उत्तर-पूर्व दिशा में अत्यंत द्रुत गति से बढ़ता हुआ टाइथस समुद्र (!) को तिरोहित करता लौरेंशिया भूभाग से जा मिला. उसी सम्मिलन का परिणाम प्रत्येक तरह की वन्य-संरचना से अत्यंत समृद्ध हिमालय की पर्वतीय शृंखलाएँ हैं. हमारा अपना भूभाग है जिसे गंगा का मैदान कहते हैं, जहाँसे हम अपने ओबीओ समाज का हिस्सा बने हैं.

आपने जिस मनोहारी और रोमांचक ढंग से दक्षिण गंगोत्री की दशा का वर्णन किया है वह हमें वहीं होने की अनुभूति देता है. 

यह सही है कि भारत द्वारा निर्मित कैम्प के अलावे अन्य देशों के कैम्प बहुत बाद में बने जहाँ स्थायी निवास जैसी संकल्पना पर विचार हुआ. इसे आपने बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है कि हमें प्रशंसा, ईर्ष्या और बाधा अनवरत मिलती रही है.  किन्तु, यह हमारे लिए गर्व करने वाली बात ही है. 

स्नोपोल को पकड़ कर चक्कर लगाते हुए स्वयं को ऊर्जावान बनाये रखने की युक्ति तो ग़ज़ब की है. यह सब पढ़कर एक नई अनुभूति तो होती ही है, अपने वैज्ञानिकों और निष्ठावान सदस्यों पर गर्व भी होता है. ऐसे दुर्धष वातावरण में बने रहना किसी व्यक्ति से मात्र उत्तम स्वास्थ्य ही नहीं अत्यंत मानसिक दृढ़ता की मांग भी करता है.

दक्षिण गंगोत्री का चित्र बहुत सुन्दर आया है.

आपके इस पोस्ट के लिए हार्दिक धन्यवाद और पुनः बधाई. ..

सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 30, 2013 at 12:21am

आ0 शरदिन्दु मुखर्जी जी, रोमांच और अद्भुत करिश्मा पूर्ण सुन्दर प्रस्तुति। हां एक बात तो है कि हम चाहे जितने भी बड़े वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा सर्जन क्यों न बन जाये?  हमे सदैव ही ईश्वर की आवश्यकता होती है।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।   सादर,

Comment by vijay nikore on April 29, 2013 at 6:51pm

 

कितनी मेहनत और लगन से आपने हम सभी के लिए यह लेख लिखा है.. 

आपका धन्यवाद।

 

पहले तो कुछ रौंगटे खड़े हुए, और फिर  सब के मिल जाने का सुखद समाचार।

बहुत खूब, .....! आशा है, आप अंटार्कटिका का और ज्ञान भी देंगे ।

 

ढेर शुभकामनाओं और सराहना के साथ.. शरदिंदु जी।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 29, 2013 at 6:31pm

अंटार्कटिका के बारे में और जानने की मन में पनपीं जिज्ञासा को तृप्त करती आपकी यह अभिव्यक्ति आदरणीय शरदिन्दु जी.. इस हेतु बहुत बहुत आभारी हूँ.... लेकिन मन फिर भी तृप्त नहीं हुआ, जिज्ञासा और बढ़ती जा रही है.. आपके रोचक अनुभवों को जानने की इच्छा और बलवती होती जा रही है..

बर्फीले तूफ़ान में सह-वैज्ञानिकों का खो जाना और फिर मौसम की विषम चुनौतियों का सामना कर अपनों का सलामत मिल जाना... जिस खुशी की अभिव्यक्ति है...उसे शब्दों की सीमा में कहना नामुमकिन है..

दक्षिण गंगोत्री स्टेशन की फोटो के लिए आभार...

और  स्नोपोल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी के लिए भी 

सादर. 

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