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                                                              आवाहन

                           झूमते पत्तों में से छन कर आई मेरे आँगन में

                     हँसती-हँसती उदभासित किरणों की छाप,

                     नभ-स्पर्शी हवाएँ तरंगित

                     सुगंधित पूर्वाभास से स्पन्दित

                     होले से पास पुकारती रहीं मुझको,

                     मैं नींदों में मुसकुराती रही सारी रात,

                     मुझे लगा, सात समुन्दर पार से आज

                     पास मेरे तुम चले आए।

                     एक-के-बाद-एक जाने कैसे सारे किवाड़ खुले

                     दीवारें अक्समात निढाल गिरीं,

                     मेरा यह कब से सुनसान उजाड़ आँगन,

                     नई उजली किरणों को आमंत्रित करता,

                     कि जैसे यह रात नहीं थी, सूर्योदय था हुआ,

                     मेरा मन पुष्पित बाग-सा खुला

                                                                निखर उठा,     

                     आज मुझको लगा

                     कई सदियों के बाद

                     इस घर में उजाला हुआ

                     आज ... मुझको लगा

                     दरियाई फ़ासलों को फांद

                                              पास मेरे तुम लौट आए।

                     तुम्हारा आवाहन करती

                     कलकंठ चिड़ियाँ चहक उठीं,

                     और मैं भागी आसक्त, चौके में दरी बिछाने,

                     पूजा की थाली लाने,

                     तुम्हारी सूर्योपासना करने,

                     पर यह क्या ...

                     पूजा की थाली तो तुम्हारे हाथ में थी!

                     ... अभी-अभी मेरा सपना टूटा

                     पर लगा कि तुम्हारे हाथ का लगाया

                     मेरे माथे पर वह दिव्य टीका

                                           और मेरी मांग में सिंदूर,

                     हमारा सदियों पुराना वह स्नेहमय  मेल,

                     अभी भी आविर्भूत हैं।

                    

                     ... चाहे सपने में ही सही,

                                                  तुम आए तो सही!

                                     -----------

                                                                        -- विजय निकोर

                                                                            vijay2@comcast.net

                 (मौलिक व अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:04pm

इस उत्कृष्ट भावाभिव्यक्ति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई !

Comment by vijay nikore on January 29, 2013 at 1:13pm

आदरणीया विनीता जी,

सराहना के लिए अतिशय धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by Vinita Shukla on January 29, 2013 at 12:52pm

बहुत सुन्दर भाव्यभिव्यक्ति आदरणीय. बधाई स्वीकारें.

Comment by vijay nikore on January 27, 2013 at 6:56pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:

आपने बिलकुल ठीक कहा ... कई सपने बहुत ही भले लगते हैं ... विशेषकर यदि

यह किसी प्रिय सुधीजन के हों या भगवान के हों। कविता की सराहना के लिए

मैं आपका आभारी हूँ।

जय श्री राधे।

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 27, 2013 at 6:13pm
बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई कई बार प्रातः सपना भले ही कैसा हो अच्छा लगता है 
आज प्रातः सपने में मै अपने स्व पिताजी से शिकायत कर रहा था कि आप छोटे भाई 
को बाज़ार के जाते है, मुझे यह समझ छोड जाते है की तेरे से सामान का बोझ नहीं उठेगा,
सपना कैसा भी था पर पिताजी ने दर्शन दिए तो सही । सुन्दर प्रस्तुति की लिए पुनः बधाई 
Comment by vijay nikore on January 27, 2013 at 5:48pm

आदरणीय सौरभ जी:

आप जिस प्रकार रचनाओं का विश्लेषण कर के उन पर प्रतिक्रिया लिखते हैं,

उससे मन प्रसन्न हो जाता है। "आवाहन" कविता की सराहना के लिए आपका

शत-शत आभार। आशा है ऐसे ही मनोबल बनाए रखेंगे।

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 27, 2013 at 5:39pm

आदरणीया उपासना जी:

सराहना के लिए आपका अभारी हूँ। धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 27, 2013 at 5:35pm

आदरणीय नादिर जी:

कविता की सराहना के लिए आपका अतिशय आभार।

विजय निकोर

Comment by upasna siag on January 24, 2013 at 4:06pm

चाहे सपने में ही सही,

                            तुम आए तो सही..........सुंदर अभिव्यक्ति


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 23, 2013 at 12:21pm

मानवीय उत्कटता को द्वैत में प्रस्तुत करने का एक सुन्दर प्रयास हुआ है, आदरणीय विजय निकोरजी.  इसी सोच और शैली का एक आयाम गंग-जमुनी ज़मीन पर विकसित सुफ़ीवाद है, जिसके लहजे में आपकी प्रस्तुत रचना गाती हुई बढ़ती जाती है. सूर्योपासना, पूजा-थाल और सिन्दूर जैसे बिम्बों से प्रस्तुति को आवश्यक ऊँचाई मिली है. और, आखिरी पंक्तियों में क्या ही खूबसूरती से यथार्थ का ’हठात’ पाठकों के प्रवाह को झकझोरता हुआ सामने आ खड़ा होता है -  ... चाहे सपने में ही सही, / तुम आए तो सही !

बधाई, इस प्रस्तुति पर आदरणीय.

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