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गोईठा-लकड़ी के चूल्हा में
भाप उठत ऊ भात बोलावे,
संक्रांति के दही-चुड़ा-तिलवा 
कऊड़ा में के आग बोलावे,
बहुत हो गईल शहर में रहल
आवअ लवट चलीं गाँव के ओर..
 
रेंहट के ऊ चूं-चूं-चूं-चूं पुकारे 
गौशाला के गाये-बैल रम्भाये,
पम्पिंग सेट के फट-फट-फट
रही-रही के आपन बैन सुनावे,
चांपाकल से निकलल पानी के
शुद्धता आ मिठास बोलावे,
बहुत पी लिहनी मिनरल वाटर
आवअ लवट चलीं गाँव के ओर...
 
ड्योढ़ी दलान आ दुआर पुकारे
गोबर से लिपल अंगना पुकारे,
खेत-खरिहान आ डीह बोलावे
बगईचा में के पपीहा बोलावे,
ठकुरबाड़ी के घरी-घंट पुकारे
किल्ली, कुण्डी, पीढ़ा पुकारे,
बहुत घूम लिहनी अब मॉल में
आवअ लवट चलीं गाँव के ओर...
 
इयार-दोस्त सब राह निहारे
कब अईबअ ? रह-रह उचारे,
संकरांत के दही-चुड़ा बोलावे 
होली के पुआ आ बाड़ा बोलावे,
फुलहा कटोरा में के दूध पुकारे
पिट्ठा-छांछी-ढक्नेसर भी पुकारे,
बहुत खा लिहनी अब चाईनीज
आवअ लवट चलीं गाँव के ओर...
 
ऊ मदमस्त पुरवईया बयार पुकारे
नदी में के ऊ झक-झक धार पुकारे,
सोन्ह-सोन्ह माटी के महक बोलावे
लहलह करत खेत आ डीह बोलावे,
सुना पड़ल ऊ देवताघर बाट निहारे 
गाँव में बीतल बचपन रह निहारे,
बहुत घूम लिहनी हम देश-दुनिया
आवअ लवट चलीं गाँव के ओर... .
 
  • आर के पाण्डेय 'राज' , पटना/लखनऊ
 

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Replies to This Discussion


आदरणीय श्री पाण्डेय जी आपकी इस रचना ने गाँव की सचमुच याद दिला दी |  भाव - भाषा और शिल्प सभी में नयापन है बहुत खूब सशक्त रचना !! हार्दिक बधाई !!

राज भाई, राउर इ रचना गाँव के दृश्य आँख के सामने ला दिहलस, माटी के कराही में जमावल लाल साढ़ी के दही इ शहर में कहाँ भेटाई ? कुछ त बात जरुर बा जे गाँव चूमक लेखा खिचे ला, बहुत ही बेजोड़ रचना, बधाई स्वीकार करी |

’माटी के कड़ाही में जमावल दही के लाल साढ़ी’ !! .. ई मात ह मात.. !!!

का इयाद परा दिहलऽ, ए गणेश भाई .. !!!! ..  जिभिया लरातिया ..  :-))))

 

सांच कहत बानी रौआ, गोइठा पर के अउटल सोन्ह भईसी के दूध के दही आ ओकर साढ़ी आय हाय हाय ....भेटाइल इ शहर में मुश्किल बा भाई, मुंह भर गइल .......लार से अउर कईसे :-))))))))))

:-)))))))) 

भाई आरके पाण्डेय ’राज’ जी के एह गीते के ई असर ह, गणेशभाई जी.  :-)))))))))))

 

 बंसखट पर लेट के, डोलावल बेना के हवा जस राउर ई रचना आनन्द देता..... बहुत आनन्द आ गइल......

आहियाहि !! ... :-))))

 

गज़ब के... . बेजोड़ जोड़ लगवनी शुभ्रांशु भाई |

भाई आरके पाण्डेय ’राज’ जी, राउर एह गीत पर मन दुलकी मरले ओह बगइचा में चहुँप गइल जवना के एक किनारे इनार रहुए आ ओही से सटल एगो रहे शिवाला. जवना के चउतरा पर हमनी के लोटाइल फिरीं जा. 

आपन दुआर, आपन डीह, आपन माटी हाल्दे केहू ओरियावे ना, भलहीं दुर-परोजन कवनो होखो.  जीवन के सांझ होत ना होत पंछी घुरियाइल अपना डाढ़ि के ओही घोंसला में चलि आवेला.  जवन, अइसन ना भइल त जरूरे कवनो बड़हन फेरा होखी, ई बूझाला. ओइसना पंछियन के गोहिरावत राउर गीत (रचना) बोल-फुहार के टाँसी मारत मरुआइल हिरदा पर मरहम लगा रहल बा.  एह रेघार में बड़हन दर्द बा ए भाईजी.

बहुत-बहुत बधाई आ हमार हार्दिक शुभकामना स्वीकार करीं.

 

गणेश जी भाई, अरुण भाई, सौरभ भाई, शुभ्रांशु भाई.......अपने सभे के हमार प्रणाम आ हमार एह छोटहन रचना पर राउर सभे के प्रेरणात्मक आ उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया खातिर रउवा सभे के कोटिशः धन्यवाद आ आभार व्यक्त कर रहल बानी. 

गणेश जी भाई, अपने त हमार रचना के साथ में गाँव के चुल्हानी के फोटो लगा के हमार रचना के स्वर्ण आभूषण प्रदान कर देनी. हमार रचना में जीवन्तता आ गईल. 
कहल बा की जब दिल के दरद आवाज ना बन के शब्द बन जाला, तब कविता के शक्ल अख्तियार करके आपन हाल कुहुंक-कुहुंक के सुनावेला. काल्ह मकर संक्रांति ह आ एह अवसर पर गाँव में बीतल बचपन के दिन इयाद आ गईल. हमार ई रचना ऊहे कुहुंकत मन के अभिवक्ति ह.........अउर का कहीं ?
राउर भाई
आर के पाण्डेय 'राज'
पटना/लखनऊ

माटी के कड़ाही में जमावल दही के संगे अगर ओखर मे तुरंते के कुटाइल गरम गरम चिऊरा के बात ना होखे त  बुझाई  कुछऊ छूटल जाता .

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