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 आदरणीय मित्रों !

सर्वप्रथम "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक-४  के आयोजन में प्रतिभाग करने के लिए आप सभी मित्रों को हृदय से बधाई !

आप सभी का हार्दिक स्वागत है | अभी-अभी हमने रक्षा बंधन से सम्बंधित विषय पर आयोजित ओ बी ओ "छंद-महोत्सव" में छंदों पर जमकर आनंद लूटा है, चूंकि  यह आयोजन छंदों पर ही आधारित था इसलिए हमारे बहुत से मित्र उस आयोजन में भाग नहीं ले सके थे अतः इस बार हमने 'चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -५' हेतु  ऐसे चित्र का चयन किया है जिसमें राष्ट्रीय पर्व 'स्वतंत्रता दिवस' व रक्षा-बंधन' दोनों का ही समावेश है साथ-साथ यह चित्र हमें आपसी प्रेम व सौहार्द से भी जोड़ता है | आज के इस चित्र में भारतीय परंपरा के अनुसार भारत के सीमावर्ती गावों की महिलाएं, देश के वीर सपूतों को,सामूहिक रूप से राखी बाँधती हुई दिखाई दे रही हैं | आम तौर पर छुट्टियाँ ना मिल पाने के कारण, भारत की सीमा पर तैनात यह सभी जवान आमतौर पर अपने-अपने घर नहीं जा पाते हैं जहाँ पर इनकी सगी बहनें अपने-अपने भाई की प्रतीक्षा ही करती रह जाती हैं जैसा कि इस चित्र में इन सभी जवानों की झुकी हुई निगाहें इन बहनों के रूप में अपनी सगी बहनों का ही दर्शन कर रही हैं | अपने देश की इन बहिनों को हमारी ओर से कोटिशः प्रणाम.......  

आइये तो उठा लें आज अपनी-अपनी कलम, और कर डालें इस चित्र का काव्यात्मक चित्रण !  और हाँ आप किसी भी विधा में इस चित्र का चित्रण करने के लिए स्वतंत्र हैं ......

नोट :-

(1) १७ तारीख तक रिप्लाई बॉक्स बंद रहेगा, १८ से २० तारीख तक के लिए Reply Box रचना और टिप्पणी पोस्ट करने हेतु खुला रहेगा |

 

(2) जो साहित्यकार अपनी रचना को प्रतियोगिता से अलग  रहते हुए पोस्ट करना चाहे उनका भी स्वागत हैअपनी रचना को"प्रतियोगिता से अलग" टिप्पणी के साथ पोस्ट करने की कृपा करे 

 

(3) नियमानुसार "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक-  के प्रथम व द्वितीय स्थान के विजेता इस अंक के निर्णायक होंगे और उनकी रचनायें स्वतः प्रतियोगिता से बाहर रहेगी |  प्रथम, द्वितीय के साथ-साथ तृतीय विजेता का भी चयन किया जायेगा |  

 

 सभी प्रतिभागियों से निवेदन है कि रचना छोटी एवं सारगर्भित हो, यानी घाव करे गंभीर वाली बात हो, रचना पद्य की किसी विधा में प्रस्तुत की जा सकती है | हमेशा की तरह यहाँ भी ओ बी ओ  के आधार नियम लागू रहेंगे तथा केवल अप्रकाशित एवं मौलिक रचना ही स्वीकार की जायेगी  |

विशेष :-यदि आप अभी तक  www.openbooksonline.com परिवार से नहीं जुड़ सके है तो यहाँ क्लिक कर प्रथम बार sign up कर लें

अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन ने यह निर्णय लिया है कि "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक-०५ तीन दिनों तक चलेगा, जिसके अंतर्गत आयोजन की अवधि में  प्रति सदस्य अधिकतम तीन पोस्ट ही किया जा सकेगा, साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि  नियम विरुद्ध व निम्न स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए प्रबंधन सदस्यों द्वारा अविलम्ब हटा दिया जायेगा, जिसके सम्बन्ध में किसी भी किस्म की सुनवाई नहीं की जायेगी |

"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता के सम्बन्ध में किसी भी तरह की

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भाई धरमजी,  बड़े अजीब शख़्स के कायल हुये हैं आप. .. चलिये, मुझे सह सकनेवालों की फेहरिश्त में दीखता आज एक और.  .. :-)))) 

 

तीखी मिर्ची भी भली, यदि हो उम्दा भाव,

ना होने से कुछ भला,फिर भी मन में घाव,

फिर भी मन में घाव, बनी सरहद लाचारी,

भीगी अँखियाँ आज, भले सब कुछ सरकारी,

धर्म बहिन का नेह, भावना पावन देखी,

सच कहता कवि बात, भले हो मिर्ची तीखी..

ऐसी मिर्ची को सभी,  कहते आये व्यंग.

अगर नहीं यह व्यंग तो, एक तरह का ढंग.

एक तरह का ढंग, तभी तो कवि की महिमा

होता कवि-सम्मान, बढ़े समाज में गरिमा.

ऐसी कोशिश ग़ज़ब, न समझें अनगढ़ जैसी   

पाठक बनें समृद्ध,  यदि कवि-दृष्टि हो ऐसी..

 

वाह वाह! गुरुवर, ऐसे टिप्पणियों को पढ़ कर वाकई मन की इच्छा कुछ पढने की क्षुधा शांत होती रहती है ...आभार आपका

//ऐसी मिर्ची को सभी,  कहते आये व्यंग.

अगर नहीं यह व्यंग तो, एक तरह का ढंग.

एक तरह का ढंग, तभी तो कवि की महिमा

होता कवि-सम्मान, बढ़े सामाजिक गरिमा.

ऐसी कोशिश ग़ज़ब, न समझें अनगढ़ जैसी   

पाठक हों समृद्ध,  सोंच यदि कवि की ऐसी..//

 

महिमा कवि की है बड़ी, कवि से बड़ा न कोय,

जहाँ सूर्य ना सके, बीज अमन का बोय,

बीज अमन का बोय, वही कवि है कहलाता,

सबसे करता प्रेम, सभी से रखता नाता.

सृजन बने अनमोल, रहे कविता की गरिमा.

बाँधे बंधन स्नेह, यही है कवि की महिमा.. 

 

:-))

.

:-))

भाई अम्बरीश, हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया. दो पंक्तियाँ जो आपने मुद्दे की गरिमा को पुनर्स्थापित करने के लिए कहीं हैं वो बहुत सुन्दर हैं. यद्यपि गौर से तस्वीर को देखने पर किसी भी प्रकार का भाव जो एक भाई का बहन के प्रति और बहन का भाई के प्रति होता है पूर्णत: नदारद है. एक बड़ा ही मकेनिकल सा उत्सव नज़र आता है इस चित्र में....जो कि रक्षाबंधन की मूल गरिमा के ही विरुद्ध है. आशा है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे.

भाई धरम जी! सच कहा आपने ! मेरे भाई !  इस अवसर पर घर की याद आना तो स्वाभाविक ही है ऐसे में यदि ये सभी धर्म बहनें राखी लेकर आ उपस्थित हों तो इस पुनीत अवसर पर सगी बहन के साथ ना होने का दुःख एकदम से खुशी में परिवर्तित तो नहीं हो सकता ना ......अतः इन जवानों के चेहरों पर खुशी के भावों का अभाव भी स्वाभाविक ही तो है! यह आयोजन भले ही सरकारी हो पर कुछ भी ना होने से तो अच्छा ही है .............और यदि सामान्य रूप में देखा जाय तो इन जवानों के लिए ये सारी महिलाएं उनकी सगी बहनों का प्रतिरूप ही तो हैं...सगी बहनें तो नहीं ..अतः कुछ औपचारिकता भी स्वाभाविक ही है ............रहा शेष ........... मानो तो भगवान ना मानो तो पत्थर ...........:)

भाई धरम जी, आपने जिस दृष्टिकोण से चित्र को परिभाषित करने का प्रयास किया है वह काबिल-ए-दाद है ! मैं यह मानता हूँ कि आपने चित्र को अध्ययन अधिकाँश लोगों की तुलना में बड़ी बारीकी और गहराई से किया है ! मुझे भी इसमें औपचारिकता का पुट काफी  नुमाया लग रहा है, न राखी बाँधने वालों से चेहरों पर कोई ख़ुशी न राखी बंधवाने वालों के चेहरों पर ही कोई भाव है ! झुके, उदास और भावशून्य चेहरों से उत्पन्न इस नीरसता (बकौल आपके औपचारिकता) को बहुत कुशलता से शब्द दिए हैं आपने जिसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ ! दीगर बातों का खुलासा आदरणीय सौरभ जी अपनी टिप्पणी में पहले ही कर चुके हैं !  
    

आदरणीय योगराजभाईसाहब,

इतना तो अवश्य है कि विद्रुपता कहीं बाहर नहीं होती. बस देखनेवाले की कुव्वत होनी चाहिये कि कहीं किसी अटपटे को देख कर हम-आप को दिखा सके. और तब, उसकी कुव्वत को मान देना ही होता है.  

 

धरमभाईजी की इस निराली दृष्टि को इस लिये भी सादर साधुवाद, कि लकीरों पर होती शाब्दिक घुड़दौड़ से अलग चाल दिखाने की कोशिश की उन्होंने. भाईयोगराजजी, आपकी अनुमोदित करती विस्तृत टिप्पणी ने सारा कुछ स्पष्ट कर दिया है.


ऐसी दृष्टि नकारात्मक एकदम नहीं मानी जानी चाहिये.  नकारात्मक विचार रखने में और विद्रुपता को भाँप कर इंगित करने में महान अंतर हुआ करता है.  हाँ, मेरा स्पष्ट मानना है कि नव-हस्ताक्षरों को इस तरह् की किसी कोशिश के प्रति पूरी तरह से जागरुक और सावधान रहना चाहिये. अन्यथा सकारात्मक वैचारिकता गंदली तथा धुंधली हो सकती है.

सादर

 


नकारात्मक और सकारात्मक सोच के अंतर को बखूबी विश्लेषित किया है आपने आदरणीय सौरभ जी. साधुवाद स्वीकार कीजिये.

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