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ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे

.
ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
दुश्मनी हम से हमारे यार भी करते रहे.
.
जादू टोना यूँ लब ओ रुख़्सार भी करते रहे
जो मुदावा थे वही बीमार भी करते रहे.
.
उस की सुहबत के असर में हो गए उस की तरह  
फिर उसी के लहजे में गुफ़्तार भी करते रहे.
.
जिस्म को जीते रहे हम एक क़िस्सा मान कर  
और अपनी रूह को तैय्यार भी करते रहे.
.
हर क़िले के द्वार अन्दर ही से खोले जाते हैं
दुश्मनों का काम चौकीदार भी करते रहे.
.
‘नूर’ ऐसा था कि चुँधियाने लगीं आँखें तो फिर  
बंद आँखों ही से हम दीदार भी करते रहे.
.
मौलिक अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar yesterday

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar yesterday

धन्यवाद आ. सौरभ सर,

यह ग़ज़ल तरही ग़ज़ल के साथ ही हो गयी थी लेकिन एक ही रचना भेजने के नियम के चलते यहाँ पोस्ट की.
चाहता तो मिक्स खिचडी कर के इसके पाँच शेर और उसके 6 शेर रख कर ११ शेर के तहत पोस्ट कर देता लेकिन उस ग़ज़ल को अधिकतर हिंदी शब्दों में बाँधा है और इसे अधिकांश उर्दू शब्दों में. 
आपको ग़ज़ल पसंद आई तो कहना सार्थक हुआ .
सादर  

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' yesterday

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। यह गजल भी बहुत सुंदर हुई है। हार्दिक बधाई।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Wednesday

आदरणीय नीलेश भाई, 

आपकी इस प्रस्तुति के भी शेर अत्यंत प्रभावी बन पड़े हैं. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें> 

मतला तो कमाल हुआ ही है. इसके बाद का शेर तो एकदम से मुग्ध कर देता है. 

जादू टोना यूँ लब ओ रुख़्सार भी करते रहे
जो मुदावा थे वही बीमार भी करते रहे. ...   ओह्होह ... वाह वाह..  बढिया बढिया .. 

ऐसा नहीं कि बाकी अश’आर पर ध्यान नहीं जाता. लेकिन निम्नलिखित शेरों ने अपनी खास जगह बनाई है. 

जिस्म को जीते रहे हम एक क़िस्सा मान कर  
और अपनी रूह को तैय्यार भी करते रहे.   ...      क्या बात है. बहुत सुंदर .. 

‘नूर’ ऐसा था कि चुँधियाने लगीं आँखें तो फिर  
बंद आँखों ही से हम दीदार भी करते रहे. ..........  वाह वाह .. तखल्लुस का मकते में वाकई बहुत ही सार्थक प्रयोग हुआ है.

आदरणीय, ढेर सारी बधाई बनती है. जय हो.. 

और, मिसरों का वजन भी लिख देना था. आगे कौन जानेगा कि यह मिसरा तरह के तौर पर लिया गया था ?

 शुभ-शुभ

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Wednesday

धन्यवाद आ. अजय जी ..
.
जिस्म और रूह के सम्बन्ध में रूह को किसलिए तैयार किया जाता है यह ज़रा सा फ़लसफ़ा और थोड़ी से शाइरी जानने वाला समझता है अत: इस पर बात करना बनता नहीं है.
मैं अगर एक ज़मीन पर दो ग़ज़लें कह रहा हूँ तो आपको आश्वस्त होना चाहिए कि मैंने सभी प्रकार के शब्द और हर एक भी  की संभावनाएं जांचने के बाद ही ऐसा कर रहा हूँ. 
मैं वैसे भी तुकबन्दी के लिए अथवा सिर्फ ग़ज़ल कहने भर के लिए ग़ज़ल कहना एक अरसा पहले बंद कर चुका हूँ. 
ग़ज़ल तक आने और पढ़ने हेतु आभार . 

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on Wednesday

मुशायरे की ही भाँति अच्छी ग़ज़ल हुई है भाई नीलेश जी। मतला बहुत अच्छा लगा। अन्य शेर भी शानदार हुए हैं।

जिस्म को जीते रहे हम एक क़िस्सा मान कर
और अपनी रूह को तैय्यार भी करते रहे.//  रूह को तैयार किस बात के लिए। ऐसा लगता है जैसे कुछ अधूरापन सा हो।

मक़ते में "भी" का निर्वाह पुनर्विचार चाह रहा है। "भी" के बिना भी बात स्पष्ट है। चुँधियाना भी पहली बार ही पढ़ रहा हूँ। चौंधियाना ही पढ़ने-सुनने भी आता है।

बाक़ी सब बहुत बढ़िया हुआ है हमेशा की तरह। अच्छी ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई।

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Tuesday

धन्यवाद आ. रवि जी 

Comment by Ravi Shukla on Tuesday

आदरीणीय नीलेश जी तरही मिसरे पर मुशाइरे के बाद एक और गजल क साथ उपस्थिति पर आपको बहुत बहुत मुबारक बाद अच्छे शेर कहे हैं आपने बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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