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ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)

देखे जो एक दिन का भी जीना किसान का
समझे तू कितना सख़्त है सीना किसान का

मिट्टी नहीं अनाज उगलती है तब तलक
जब तक मिले न उस में पसीना किसान का

बारिश की आस और कभी है उसी का डर
यूँ बीतता हर एक महीना किसान का

कब से उगा रहा है कपास अपने खेत में
कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का

समतल ज़मीन पर ये लकीरें अजब-ग़ज़ब
देखे ही बन रहा है करीना किसान का

है हिम्मती है हिम्मती है हिम्मती है ये  
हिम्मत में और सानी कोई ना किसान का
 
तेरी चुनर में रंग, न गहनों में ताब वो
जैसी लिए है खेत, ओ हसीना, किसान का

#मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by अजय गुप्ता 'अजेय 4 hours ago

जी आभार।

निरंतर विमर्श गुणवत्ता वृद्धि करते हैं।

अपनी एक ग़ज़ल का मतला पेश करता हूँ। पूरी ग़ज़ल भी कभी आप सब के विचारार्थ रखूँगा।

निखर जाने का इक आलम बना लेती है, अच्छा है
ग़ज़ल तनक़ीद को हमदम बना लेती है, अच्छा है

तो हम तो आप सब से सीख रहें हैं। साथ बनाए रखिएगा।
सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar 4 hours ago

क़रीना पर आपके शेर से संतुष्ट हूँ. 
महीना वाला शेर अब बेहतर हुआ है .
बहुत बहुत बधाई 

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय 5 hours ago

मौसम का क्या मिज़ाज रहेगा पता नहीं 

इस डर में जाये साल-महीना किसान ka

अपनी राय दीजिएगा और सुझाव भी 

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय 5 hours ago

उपयोगी सलाह के लिए आभार आदरणीय नीलेश जी। महत्वपूर्ण बातें संज्ञान में लाने के लिए धन्यवाद।

एक शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

वो शोला नहीं जो बुझ जाए आँधी के एक ही झोंके से
बुझने का सलीक़ा आसाँ है जलने का क़रीना मुश्किल है — अर्श मलसियानी 

हर एक महीने का तात्पर्य लगातार रहने वाली अनिश्चितता से है। वो पूरे साल चलती है।कृषि को ज़रा सा भी समझने वाला व्यक्ति जानता है कि किस प्रकार गेहूँ के शुरू में एक बारिश का इंतज़ार रहता है। फिर पकी फ़सल पर बेमौसमी बरसात कहर ढा देती है। ये लगातार चलता रहता है।

फिर भी आपकी बात से प्रेरित हो बारिश की जगह मौसम करके परिवर्तित करने का प्रयास करूँगा।

Comment by Nilesh Shevgaonkar 6 hours ago

आ. अजय जी,
अच्छे भावों से सजी हुई ग़ज़ल हुई है लेकिन दो -तीन बातें संज्ञान में लाने का प्रयत्न कर रहा हूँ..
.
यूँ बीतता हर एक महीना किसान का 
यदि भारतीय परिपेक्ष्य में देखें तो ३-४ महीने ही बरसात होती है अत: हर एक महीना व्यवहारिक नहीं हैं.
.
देखे ही बन रहा है करीना किसान का.. क़रीने शब्द है, क़रीना अथवा करीना जैसा भ्रंश काफिया में लेना ठीक नहीं है. 

ना .. भाषा में इस ना को ना-अह्ल, ना-लायक, ना-जायज़ यानी मूल के विरुद्धार्थी के रूप में लिया जाता है. नकार भाव को से  लिखा जाता है.
ओ हसीना, यहाँ ओ संबोधन है अत: मात्रा पतन नहीं हो पाएगा जिसके चलते मिसरा बह्र चूक जाएगा.

ग़ज़ल के लिए पुन: बधाई 
सादर 


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