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दोहा दशम -. . . . . शाश्वत सत्य

दोहा दशम -. . .  शाश्वत सत्य

बंजारे सी जिंदगी, ढूँढे अपना गाँव ।
मरघट में जाकर रुकें , उसके चलते पाँव ।।

किसने जाना आज तक, विधना रचित विधान ।
उसका जीवन पृष्ठ है  , आदि संग अवसान ।।

जाने कितने छोड़ कर, मोड़ मिला वो अंत ।
जहाँ मोक्ष के वास्ते, देह त्यागते संत ।।

मरघट का संसार में, कोई नहीं विकल्प ।
कितनी भी कोशिश करो, ,बढ़ें  न साँसें अल्प ।।

जीवन भर मिलता नहीं, साँसों को विश्राम ।
थम जाती है जिंदगी, जब हो अन्तिम शाम ।।

देख चिता शमशान में, कहने लगा मलंग ।
नश्वर इस संसार का, यही अमिट है रंग ।।

चिता जली जीवन हुआ, काल पृष्ठ का दास ।
जीने के सब अंततः , झूठे  हुए प्रयास ।।

धारण करती देह जब, अपना अंतिम रूप ।
पल भर में  इतिहास फिर, बनती जीवन धूप ।।

अंतिम घट तक जो चले, सब के सब गमगीन ।
देह तमाशा खत्म लो, बिखरी श्वांस महीन ।।

लड़ते - लड़ते देह से, साँस गई जब हार ।
आखिर अन्तिम सत्य फिर, हो जाता स्वीकार ।।

सुशील सरना / 4-5-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna 4 hours ago

आदरणीय बृजेश कुमार जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार आदरणीय 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' 7 hours ago

अतिउत्तम....अतिउत्तम....जीवन सत्य की महिमा बखान करते हुए सुन्दर सरस् दोहों के लिए बधाई आदरणीय....

Comment by Sushil Sarna yesterday

आदरणीय शिज्जू शकूर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । आपके द्वारा  इंगित त्रुटि संशोधन से रह गई थी। धारण का सुझाव अच्छा है । सहमत एवं संशोधित । हार्दिक आभार आदरणीय । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" yesterday

आदरणीय सुशील सरना सर, सर्वप्रथम दोहावली के लिए बधाई, जा वन पर केंद्रित अच्छे दोहे हुए हैं।
एक-दो जगह आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ-

//चिंता जली जीवन हुआ..// यहाँ कुछ गड़बड़ लग रही है, देख लीजिएगा।

//धारित करती देह जब..// धारित के साथ करती कुछ अजीब लग रहा है। यहाँ 'धारण करती' होना चाहिए। उसी तरह 'श्वांस' शब्द पर मुझको संशय है।

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