लेता है भुजपाश में, बढ़चढ़ ज्यू ही काम।
 एक हवेली प्यार  की, होती नित नीलाम।।१
 *
 कर लो ढब ऐश्वर्य  को, चाहे  इस के नाम।
 दुधली की दुधली रहे, हर जीवन की शाम।।२
 *
 सिलता रहा जुबान जो, बढ़चढ़ यहाँ निजाम।
 शब्दों ने झर आँख से, किया कहन का काम।।३
 *
 निर्धन को जिसने दिये, हरदम कम ही दाम।
 धनी उसे  ठग  ले  गया, पैसा  नित्य तमाम।।४
 *
 रमे  यहाँ  व्यापार में , सब  ले  उसका नाम।
 महज भक्ति के भाव से, किसको प्यारे राम।।५
 *
 कैसे कैसे दृश्य अब, हुए यहाँ पर आम।
 पर्दे में पूजा  दिखे, और  खुले  में काम।।६
 *
 बापू को  बेटा  नहीं, करता  जहाँ प्रणाम।
 उस घर कैसे वास हो, सच कहते हैं राम।।७
 *
 मौलिक/अप्रकाशित
 लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
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Comment
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
क्या ही सुन्दर दिहे सृजित हुए हैं आदरणीय धामी जी...
आ. भाई समर जी , सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
मात्रा गणना के हिसाब से महज को किसी भी रूप में लिखें दोहे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वर्तनी के हिसाब से आप सही हैं।
इसे अब इस प्रकार देखें -
सिर्फ भक्ति के भाव से,
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'महज भक्ति के भाव से, किसको प्यारे राम'
आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूँ कि इस पंक्ति में सहीह शब्द है "मह्ज़" और इसका वज़्न 21 होता है ।
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