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वो मेरा अस्तित्व थे, मैं उनकी प्रतिछाप

खोए जब पदचिह्न तो, गूँज उठी यह थाप

गूँज उठी यह थाप, रहा संकल्प अधूरा

आखिर कैसे कौन करेगा उसको पूरा

इतना विस्तृत गहन रहा भावों का घेरा

जो उनका संकल्प, बना है अब वो मेरा

हाय! अबोला सब रहा, कह पाती सब काश

अब कह दूँ कैसे अकथ, तोड़ समय का पाश

तोड़ समय का पाश, धार को कैसे मोड़ूँ

बिखर गया हर बिम्ब, आईना कैसे जोड़ूँ

सबको मिलता वक़्त जहाँ में नापा-तोला

अंत समय तक रहे न कुछ भी हाय अबोला

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 8:56pm

भावपूर्ण रचना |

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 28, 2017 at 6:00pm
बहुत खूबसूरत भावनात्मक चित्रण..सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 28, 2017 at 5:27pm
दूसरी कुण्डलिया में पाँचवा नहींरोला का सातवां चरण
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 28, 2017 at 5:26pm
आदरणीया प्राची सिंह जी,आपकी हर रचना की तरह ये कुण्डलिया छ्न्द भी उत्तम भावों से युक्त हैं हारदिक बधाई स्वीकारें!कुण्डलिया छ्न्द विधान को जहाँ तक हमने समझा है पहली कुण्डलिया के रोला छ्न्द का तीसरा चरण और इसी प्रकार दूसरी कुण्डलिया के रोला छ्न्द का पाँचवा चरण,12 की बजाय 21 पर अंत होना चाहिए,आईना को आइना लिखने से इस चरण का मात्रा भार सही बन रहा है।सादर
Comment by Dr. Vijai Shanker on May 26, 2017 at 10:47am
Heard melodies are sweet , those unheard are ...... Sweeter .
Comment by narendrasinh chauhan on May 26, 2017 at 10:10am

खूब सुन्दर 

Comment by Mohammed Arif on May 26, 2017 at 8:48am
आदरणीया प्राची जी आदाब, कुंडलियों का बेहतरीन प्रयास है । कहीं-कहीं पर यति का प्रयोग छूट गया है । मात्रिक विधान की दृष्टि से ये कुंडलिया कहाँ तक सफल है इस बारे में गुणीजन अपना पक्ष रखेंगे,इंतज़ार करें ।

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