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माता मैं ना जाऊँगा

कितने कष्ट सहे हैं तूने , कैसे मुझे पढ़ाया है,

तुझे छोड़कर घर से बाहर, मैंने कदम बढाया है |

अनचाहे ही माता तुझको , मैंने आज रुलाया है

भाग्य विधाता ने भी देखो, कैसा खेल रचाया है ||

 

 

रुक जाता मैं माता क्षणमें, बस कहने की देरी थी,

जाऊँ मैं परदेस मगर माँ, ये जिद भी तो तेरी थी |

देवों को नित पूजा तूने , माला भी नित फेरी थी,

तुझको छोड़ कहीं जाऊँ मैं, ये ईच्छा कब मेरी थी ||

 

 

दमकुंगा बन कुंदन लेकिन, काम न तेरे आऊँगा,

अपने चरणों में रहने दे , तेरे ही गुण गाऊँगा |

भेज न मुझको दूर कहीं तू, माता मैं ना जाऊँगा,

दूर गया तो कैसे तुझ सी, माता फिर मैं पाऊँगा ||

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 10:03pm

माँ से बढ़कर कोई नहीं |  बेहद सुंदर रचना | हार्दिक बधाई सर |

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 22, 2016 at 9:57pm

आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी सादर, प्रस्तुत रचना के भाव आप तक पहुँचे रचना सफल हुई है. आपका कहना उचित है. 'ये ईच्छाएं' के साथ 'थीं ' लिखना पडेगा. असावधानीवश यह त्रुटि हुई है. मैं इसे संशोधित कर लेता हूँ. " तुझको छोड़ कहीं जाऊँ मैं, ये ईच्छा कब मेरी थी" सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 22, 2016 at 9:53pm

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर, रचना को सराहने के लिए आपका दिल से आभार. आपका सुझाव उत्तम है. मैंने वहां लिखा था 'ये ईच्छा भी मेरी थी' किन्तु चारों चरणों में आया 'भी' मुझे ठीक नहीं लग रहा था इसलिए बदलाव किया और वहीँ असावधानी हो गई. इस उत्तम सुझाव के लिए भी आपका हार्दिक आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 22, 2016 at 9:50pm

प्रस्तुत रचना पर उत्साहवर्धन करने के लिए आप सभी गुनीजनों का दिल से आभार आदरणीय भाई रवि शुक्ला जी, आदरणीय सुरेश कुमार जी, आदरणीय भाई शिज्जू 'शकूर' जी, आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब, आदरनीय रामबली गुप्ता जी. सादर.

Comment by रामबली गुप्ता on September 22, 2016 at 5:39am
वाह आद० अशोक भाई जी बहुत ही सुंदर ताटंक हुआ है। बल भर बधाई लीजिये।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2016 at 6:54pm

आदरनीय अशोक भाई , पुत्र की भावनायें माता के प्रति मुखर हुई , इस छंद रचना से । बहुत खूब बहुत बधाइयाँ आपको ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 21, 2016 at 4:52pm

बच्चे  माँ-पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए कितना कुछ ना चाहते हुए भी कर जाते है.... कैसी असमंजस की घड़ी को व्यक्त किया है आपने ताटंक छंद में आदरणीय अशोक रक्ताले जी ...कि वो न चाहते हुए भी जा रहा है, माँ न चाहते हुए भी भेजे ये उसकी चाह है...

बहुत सुन्दर भाव प्रवण प्रस्तुति 

बहुत बहुत बधाई 

//तुझको छोड़ कहीं जाऊँ कब , ये ईच्छाएं मेरी थी // ...इस चरण में तो थी थीं हो जाएगा न तब व्याकरणिक और तुकान्त दोनों में ही दोष होगा .....बस यहीं परिवर्तन अपेक्षित है..बकी बहुत खूबसूरत 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2016 at 2:49pm

आ. अशोक रक्ताले सर अच्छी भावपूर्ण रचना हुई है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 20, 2016 at 12:20pm
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताताले जी बहुत ही सुन्दर रचना है । बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 19, 2016 at 11:11pm

आदरणीय अशोक भाईजी

सुंदर शब्द सुंदर भाव से युक्त सुंदर ताटंक छंद , हार्दिक बधाई

//// रुक जाता मैं माता क्षणमें, बस कहने की देरी थी,

जाऊँ मैं परदेस मगर माँ, ये जिद भी तो तेरी थी |

देवों को नित पूजा तूने , माला भी नित फेरी थी,

तुझको छोड़ कहीं जाऊँ कब , ये ईच्छाएं मेरी थी ||///

आदरणीय कुछ बदलाव के साथ इसे इस क्रम में लिखें तो .........

देवों को नित पूजा तूने , माला भी नित फेरी थी,

जाऊँ मैं परदेस मगर माँ, ये जिद भी तो तेरी थी |

रुक जाता मैं माता क्षणमें, बस कहने की देरी थी,

तुझको छोड़ कहीं जाऊँ मैं , कब ये इच्छा मेरी थी || 

सादर

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