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तरही गज़ल (रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया)

है काम बहुत कुछ करने को, यूँ हमने कब आराम किया

दिन न देखा रात न देखी बस जीवन भर काम किया

 

मज़दूर हूँ मै, मजबूर हूँ मै, हर हाल में मैंने काम किया 

फिर भी सबने मेरे आगे, दर्द का कड़वा जाम किया

रब से तुझको हरदम माँगा दिल भी तेरे नाम किया

फिर भी तूने मेरे हक में बस झूठा इल्ज़ाम किया 

 

साथ निभाना फ़ितरत मेरी, क्या ये मेरी गलती है

सबने मेरा हिस्सा लूटा और मुझे बदनाम किया

 

खूब निभायी रस्म वफ़ा की सबकी खातिर खूब लुटे

खामोश रहे, सौ ज़ुल्म सहे, खुद के सर इल्ज़ाम किया

बस मेरे हालत न बदले जाने कितने दिन गुज़रे

रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

      

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by rajesh kumari on July 27, 2015 at 9:22pm

आ० नादिर भाई जी ,बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखी है आपने दिल से बधाई लीजिये |


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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 9:03pm

जनाब नादिर भाई काफी दिनों बाद आपकी किसी रचना से गुज़र रहा हूँ बहुत अच्छा लगा बेहतरीन ग़ज़ल है दाद ओ मुबारक़बाद कुबूल फरमायें

Comment by नादिर ख़ान on July 27, 2015 at 6:04pm

आदरणीय मिथिलेश सर बहुत शुक्रिया आपका, सीखने की कवायद जारी है हमारी ...


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:34pm

चलिए आपकी तरही मुशायरे की ग़ज़ल आज पढने मिल गई.बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है.बहुत अच्छा मतला हुआ है. गिरह भी खूब लगाईं है. इस बेहतरीन ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाज़िर है...

Comment by नादिर ख़ान on July 27, 2015 at 3:40pm

आदरणीय समर साहब,गिरीराज जी इस्लाह और दाद के लिए शुक्रिया।

तरही मुशायरे में शामिल न हो सकने का अफ़सोस है| शनिचर को दिन भर नेट नहीं आया, रात १२ बजे तक कंप्यूटर ऑन रखे रहे कि शायद आ जाये मगर उसे न आना था सो न आया। बहुत हाथ पैर मारे, कम्प्लेन भी किये तब कहीं इतवार को ठीक हुआ । खैर इंसानी बनाई चीज़ है वक़्त - बेवक़्त धोका तो देगा ही।


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 1:01pm

आदरणीय नादि खान भाई , शायद आपने मुशाय्रे के बाद गज़ल कही है ?  बहुत खूबसूरत अशआर  हुये हैं , आपकोअ ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Samar kabeer on July 27, 2015 at 12:00am
जनाब नादिर ख़ान जी,आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,मुशायरे में क्यूँ पोस्ट नहीं की ?,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,एक मिसरे की तरफ़ तवज्जो दिलाना चाहूँगा :-

"ख़ामोश रहे, सौ ज़ुल्म सहे, खुद के सर इल्ज़ाम किया"

ये मिसरा बह्र से ख़ारिज हो रहा है,हो सकता है ये typing mistake हो ,देख लीजियेगा ।

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