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मेरी नज़रों में तो वो खरगोश ही था मोतवर

मेरी नज़रों में तो वो खरगोश ही था मोतवर
जिसने बाज़ी हारकर कछुए को कर डाला अमर

यूं हुई पलकों से रुखसत नींद कि लौटी नहीं
लाख ही उसको बुलाते रह गए हम रातभर

इश्क़ का जब-जब हुआ दिल हद से ज़्यादा बेक़रार
हुस्न ने तब- तब कहा कि और थोड़ा सब्र कर

ऐ क़लमकारो वो अह्सासे मुहब्बत भी लिखो
माँ की छाती मुंह में जब लेता है बच्चा दौड़कर

क़ायदे क़ानून के फंदे हैं बस मेरे लिए
उसने तो गठरी बनाकर रख दिया है ताक पर

बेतहाशा बढ़ रही है आज दौलत की हवस
आख़िर इन्सां क्या करेगा ले के इतना मालोज़र

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 11, 2013 at 2:59pm

बहुत खूबसूरत गज़ल 

हर शेर में सुन्दर शब्द चित्र निरूपित हुआ है 

हार्दिक बधाई स्वीकारें 

Comment by annapurna bajpai on September 10, 2013 at 1:10pm

आदरणीय सुशील भाई जी बहुत बधाई पको इस सुंदर गज़ल रचना के लिए । 

Comment by vijayashree on September 10, 2013 at 11:19am

ऐ क़लमकारो वो अह्सासे मुहब्बत भी लिखो 
माँ की छाती मुंह में जब लेता है बच्चा दौड़कर

क़ायदे क़ानून के फंदे हैं बस मेरे लिए 
उसने तो गठरी बनाकर रख दिया है ताक पर

बेहतरीन बधाई स्वीकारें  सुशील ठाकुर जी

Comment by Sushil Thakur on September 10, 2013 at 1:01am

Shukriya bahut bahut

Comment by विजय मिश्र on September 9, 2013 at 12:43pm
माफ करेंगे सुशीलजी , मेरा ये दाद आपको नजर हो और 'सिज्जू भाई 'को दिलसे 'सुशीलजी' पढ़िएगा ,मेहरबानी होगी .
Comment by विजय मिश्र on September 9, 2013 at 12:39pm
"ऐ क़लमकारो वो अह्सासे मुहब्बत भी लिखो
माँ की छाती मुंह में जब लेता है बच्चा दौड़कर

क़ायदे क़ानून के फंदे हैं बस मेरे लिए
उसने तो गठरी बनाकर रख दिया है ताक पर

बेतहाशा बढ़ रही है आज दौलत की हवस
आख़िर इन्सां क्या करेगा ले के इतना मालोज़र | - जिन्दा और दमदार ,इनपे जाँनिसार .सिज्जू भाई ,तहेदिल से शुक्रगुजार .
Comment by Sushil Thakur on September 8, 2013 at 11:53pm

आ. हौसला अफज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। मैं आप तमाम अदीबों का मम्नूनो मश्कूर हूँ ग़ज़ल की सराहना जिस अंदाज़ में आप सब ने की है, मेरे पास शुक्रिया के लब्ज़ नहीं।

Comment by बृजेश नीरज on September 8, 2013 at 10:15pm

बहुत अच्छा प्रयास हुआ है। आपको हार्दिक बधाई!

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on September 8, 2013 at 9:02pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है ठाकुर साहब !

खास ये शेर बहुत उम्दा!

यूं हुई पलकों से रुखसत नींद कि लौटी नहीं 
लाख ही उसको बुलाते रह गए हम रातभर॥

दाद कुबूल करें!

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 8, 2013 at 12:56pm

बेतहाशा बढ़ रही है आज दौलत की हवस
आख़िर इन्सां क्या करेगा ले के इतना मालोज़र

अच्छा संदेश  है भाईजान बधाई

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