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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-४५

गाँव की ज़िंदगी में एक सुकून सा क्या है? खाली, काली, सरपट दौड़ती सडकों की तनहाई और दोनों बगल खड़े मुख्तलिफ (विभिन्न) दरख्तों की खामोशी भी क्यूँ अच्छी लगती है? दूर खेतों और ढलानों में चर रहीं बकरियों और गायों को देख के ऐसा क्यूँ लगता है कि ये दुनिया की सबसे बेहतरीन आर्ट गैलरी है?....जीती, जागती, पल पल नक्शोरंग बदलती.

 

मंडला मध्यप्रदेश सूबे का मानों दिल हो- हरियाली और ताज़गी से भरा, कहीं पहाड़ियों के आँचल से ढका तो कहीं जंगलों के बेल बूटों से सज़ा. गाँव गाँव आदिम प्रजाति के लोगों के आदिम घर, ...और उनकी मिट्टी की मोटी दीवारों पे रखी खपडों से सजी छतें ऐसी लगती हैं मानों अफ्रीकी स्त्रियों ने अपने महीन और घुंघराले बालों को कसी हुई चुन्नटों से सज़ा रखा हो.

 

दफ्तर के काम से गया था, मगर काम के साथ-साथ सफारी का सा मज़ा. शहरों में रहते रहते पैदा हो गई ऊब का एहसास तो तब होता है जब हम कुदरत के ऐसे ही किसी हल्क़े से गुज़रते हैं, किसी बेनाम से ढाबे पे रुकते हैं और किसी रामू-शामू-मोहन या महबूब के हाथों बनाई मिट्टी की खुशबू से सराबोर चाय पीते हैं, दिल खोल के हंसते बतियाते हैं, किरोसिन के स्टोव या लकड़ी के चूल्हे पे बने गरम-गरम देसी पकौड़े खाते हैं, सिक्कों में गिन के पैसे देते हैं, और फिर चल देते हैं अगले मुकाम पे.

 

© राज़ नवादवी, भोपाल

शनिवार १६/०२/२०१३ सायंकाल ०५.१० 

मौलिक एवं अप्रकाशित  

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Comment by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 11:46am

आदरणीय भाई लक्ष्मण सा, मुझे खुशी है कि मेरे लिखे ने आपके अतीत के कुछ यादगार पलों को फिर से कुरेद दिया! 

Comment by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 11:45am

आदरणीया राजेश जी, आपका बहुत बहुत शुक्रिया. सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 17, 2013 at 8:25pm

बहुत सुन्दर प्राकर्तिक वर्णन हमेशा की तरह लेखनी का जादू ,बधाई आपको 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 17, 2013 at 6:02pm

आपने मेरी एक याद ताजा करदी | सन 1980 में मै बसवा तहसील बांदीकुई के एक पटवार हलके का निरिक्षण कर रहा था तब 

सायंकाल घूमते घूमते गाँव में कुल्हड़ में चाय पी, उसमे जो माटी के सौंधी खुशबु का आनंद आया वह मुझे आज तक याद है |

पेड़ की छाँव में बैठकर माटी की सौंधी महक का तो कहना ही क्या | हार्दिक बधाई श्री राज़ नवादवी:जी | सादर 

Comment by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 7:49pm

भाई बागी जी, आपका हार्दिक धन्यवाद, आपको कृति अच्छी लगी. आपकी शिकायत दुरुस्त है और मैं क्षमाप्रार्थी. जीवन कभी कभी शाहराह को छोड़ वीथिकाओं की राह ले लेता है और हम बदले परिदृश्य की नवीनताओं एवं चुनौतियों में खो से जाते हैं. बस ऐसा ही कुछ हुआ! सादर! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 16, 2013 at 7:37pm

भाई राज नवादवी जी, ग्रामीण परिवेश की खूबसूरती कभी कभी राहे रोके खड़ी हो जाती हैं, प्राकृतिक सुन्दरता के मध्य भोले भाले ग्रामीण जो हर आगंतुक के लिए गुड़ पानी लिए खड़े रहते हैं, शहरों की मतलबी दुनिया में यह दृश्य मुश्किल है, बढ़िया लेखन बधाई स्वीकारें साथ में काफ़ी अंतराल पर आने हेतु शिकायत भी :-)

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