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कोई बाबा निर्मल नहीं

सब मन के बड़े मैले हैं ,

दौलत के ढेर पर बैठे

ये ठग बड़े लुटेरे हैं ,

व्यापार इनका धर्म है

धर्म का करते कारोबार ,

कोई पाप इनसे छूटा नहीं

ह्त्या हो या यौनाचार ,

लिंग भेद ये मानते नहीं ,

बच्चा हो या नार ,

आश्रम में इनके मरते बच्चे ,

रास रंग के इनके किस्से

गली गली में फैले हैं ,

कोई बाबा निर्मल नहीं

सब मन के बड़े मैले हैं ||


नेता अफसर चरण छूते ,

शासन इनका दास है ,

चोर उचक्के इनके चाकर ,

डाकू हत्यारे खास हैं ,

सब ओर फ़ैली बदहाली , तंगी ,

इन चोरों की ही है गिरोहबंदी ,

फंस जाते इनकी साजिश में

मेरे देश के लोग कितने भोले हैं ,

कोई बाबा निर्मल नहीं

सब मन के बड़े मैले हैं ||


एक ने सिखा सिखा कर योगा

धन अथाह है जोड़ा ,

विदेशी स्त्रियों के साथ नाच नाच कर

दूसरा सिखाये , ऐसे प्रेम कर ,

एक सुलझाए झगड़े अम्बानी के

तो , दूसरे के देखो पाठ ,

भूखों के देश में सिखाता है

जीने का आर्ट ,

सूची इनकी लंबी है ,

जगह की थोड़ी तंगी है ,

हम नहीं दे रहे किसी को ज्ञान ,

खोलो आँखें , दो थोड़ा ध्यान ,

इन बाबाओं के कारनामे बड़े काले हैं ,

दौलत के ढेर पर बैठे ,

ये ठग बड़े लुटेरे हैं ,

कोई बाबा निर्मल नहीं ,

सब मन के बड़े मैले हैं ||

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 18, 2012 at 10:44pm

कोई बाबा निर्मल नहीं ,

सब मन के बड़े मैले हैं ||

satya bruyaati. badhai sach kahne hetu. adarniya shukla ji sadar abhivadan ke saath.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 15, 2012 at 7:30pm

आश्रम में इनके मरते बच्चे ,

रास रंग के इनके किस्से

गली गली में फैले हैं ,

कोई बाबा निर्मल नहीं

सब मन के बड़े मैले हैं ||

प्रिय शुक्ल जी 

बाबाओं के काले कारनामों की कलई खोलती रचना --सुन्दर --काश हमारे भोले भले प्यारे लोग  इन्हें भगवान् मान गाढ़ी कमाई न लुटाएं ..तो आनंद और आये 
बधाई 
भ्रमर ५ 


Comment by satish mapatpuri on April 15, 2012 at 12:18am

एक प्रभावी सशक्त सामयिक एवं प्रासंगिक रचना ..........; शुक्ला साहेब निःसंदेह आप बधाई के पात्र हैं


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2012 at 8:35pm

कोई बाबा निर्मल नहीं , नहीं नहीं ऐसा नहीं , वो तो निर्मल है, बिलकुल निरे मल ही है जो निरे माल के लिए बाबा , आभा और कृपा कृपा का खेल खेल रहा है, और हम अज्ञानी निरे मुर्ख की तरह रुपैया लुटा रहे है, हां यह अलग बात है कि जिसको वास्तव में रुपैया कि जरुरत है उसके लिए फूटी कौड़ी नहीं निकलती ( अपवाद हर जगह है , मैं अपवाद की बात नहीं कर रहा )

अरुण जी , आपने जिसको केन्द्रित करते हुए इस रचना को सृजित किये है उसमे आप सफल है , एक बार पुनः बधाई |

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 14, 2012 at 4:23pm
आभार गुरुदेव!
हम तो ऐसे न थे हमें ऐसा बनाया आपने।
Comment by Abhinav Arun on April 14, 2012 at 1:04pm

आज हर क्षेत्र में बाज़ार और विज्ञापन हावी है | प्रचार से क्षणिक प्रसिद्धि और अर्थ दोनों सध रहे हैं | सच झूठ का फैसला हम आपको ही करना है | यह भी सत्य है कि कोई सामान्य बयानबाजी भी हितकर नहीं | हर जगह काला सफ़ेद दोनों हैं | दृष्टि हमें अपनी खुली रखनी है ||


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 14, 2012 at 12:57pm

ओबीओ पर भेड़चाल को नहीं तथ्यों और सच्चाई को अनुमोदन मिलता है, विंध्येश्वरी जी.  आपकी बात सनातन सी है.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 14, 2012 at 12:45pm

गुरुदेव आपके समर्थन से अभीभूत हूं मैं सोच रहा था कहीं इसपर भी कोई नया बवाल न खड़ा हो।आपने सही कहा कि सभी बाबा एक जैसे नहीं होते।मेरा मानना है संसार अभी बहुत अधिक भ्रष्ट नहीं हुआ है।अभी मानवता बहुत अधिक नष्ट नहीं हुई है।हां यह अवश्य है कि सिंह की खाल में कुछ गधे/भेड़िये घूम रहे हैं।जैसे एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है ठीक वैसे ही ये भी कर रहें है।लेकिन सभी मछलियां अभी नहीं सड़ी हैं अन्यथा यहां रहना दूभर हो जाता।हम जी नहीं पाते।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 14, 2012 at 11:32am

अरुण कांत जी की रचना का कथ्यात्मक महत्त्व है, परन्तु, अनुज विंध्येश्वरी जी की बात से मैं पूरी तरह से इत्तफ़ाक रखता हूँ. अरुणकांत जी की रचना में इंगित सभी नामधारियों को मैं समझ पा रहा हूँ.   एक वाकया प्रस्तुत कर रहा हूँ -

गुजरात के कच्छ में भूकम्प के दौरान मैं सेवा-भाव से आदित्यपुर और अंजार में था. अंजार, जो कि सौ प्रतिशत तहस-नहस हो चुका था, में तीन हजार लोगों के लिये सुबह और शाम चल रहे दो माह के लंगर की कमान व्यक्तिगत रूप से इन्हीं में से एक बाबा के हाथों में थी, जो किसी तथाकथित टैंट्रम से परे हार्दिक भाव से संलग्न थे, "मेरा सारा अर्जन इन्हीं का, इन्हीं को समर्पित.. त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये..".  निहाल था कि मुझ सहित सभी प्रसादप्राप्तकर्ताओं से स्वयं पूछते रहने वाले सज्जन सुप्रसिद्ध कथावाचक हैं. इस यज्ञ में उनका साथ दे रहे थे, उसी अंजार के ठक्कर परिवार के सभी सदस्य. सभी यानि महिलाओं से लेकर बच्चे तक.

’सब धन बाइस पसेरी..’ का मुहावरा समाज के संस्कार के लिये खतरनाक हो सकता है. ढोंगियों और सज्जन में अंतर होता है, इसका विवेक बने इसकी आवश्यकता है.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 14, 2012 at 9:59am
गुस्ताखी माफ हो!छोटे मुंह बड़ी बात कर रहा हूं।साहित्यिक लिहाज से आपने सही कहा है लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा हूं।कारण समाज में अच्छा बुरा एक साथ ही होता है।जहां एक तरफ मीठा शहद है वहीं मधुमक्खी का डंक भी,जहां नदियां जीवन दायिनी जल देती वहीं विनाशकारी बाढ़ भी।यद्यपि मैं किसी भी बाबा का अंध भक्त नहीं हूं किन्तु इसे सही मानने का मानदण्ड क्या रखेंगे?क्या समाज में प्रचलित कोरी चर्चाओं को?और यदि यही सही मानेंगे तो गौतमबुद्ध, कबीरदास,तुलसीदास,मीराबाई,स्वामी विवेकानन्द पर भी कुछ चर्चायें प्रचलित थीं,क्या इससे इन बाबाओं को भी निर्मल नहीं मानेगे?
यह कहकर मेरा इरादा कोई बवाल खड़ा करना नहीं बस छोटे भाई की छोटी सी जिज्ञासा है।

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