For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कोई हो ही नहीं सकता (ग़ज़ल)

बह्र हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222

सियासत में शरीफ़ इन्साँ कोई हो ही नहीं सकता
सियासतदान सा शैताँ कोई हो ही नहीं सकता

जो नफ़रत की दुकानों में है शफ़क़त ढूँढता फिरता
उस इन्साँ से बड़ा नादाँ कोई हो ही नहीं सकता

निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का
तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता

बिरादर को बिरादर से रफ़ाक़त अब नहीं बाक़ी
ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता

जहाँ फ़िरक़ा-परस्ती और जहालत हो दिमाग़ों में
तरक़्क़ी का वहाँ इम्काँ कोई हो ही नहीं सकता

उसे हासिल है सब कुछ जिसको कुछ हाजत नहीं बाक़ी
गदागर से बड़ा सुल्ताँ कोई हो ही नहीं सकता

न आना है रज़ा से और न जाना अपने बस में है
हयात-ए-ख़्वार सा ज़िंदाँ कोई हो ही नहीं सकता

ब-ख़ूबी आश्ना है दिल तुम्हारे तीर-ए-मिज़्गाँ से
नुकीला उससे भी पैकाँ कोई हो ही नहीं सकता

न कर बर्बाद अपना वक़्त चारागर तू जाने दे
मरीज़-ए-इश्क़ का दरमाँ कोई हो ही नहीं सकता

न तुम जानो न हम जाने कि अगले पल में क्या होगा
तो फिर से मिलने का पैमाँ कोई हो ही नहीं सकता

कई हिस्सों में है तक़सीम मेरी ज़िन्दगी 'शाहिद'
मिरे अफ़साने का उनवाँ कोई हो ही नहीं सकता
(मौलिक व अप्रकाशित)
––––––––––––––––––––––––
मैंने हाल ही में उस्ताद-ए-मोहतरम समर कबीर साहब का एक शेर पढ़ा:
ये सियासत दाँ हैं जितने दोस्तो

मैंने ये ग़ज़ल उसी शेर से प्रेरणा ले कर कही है। उन्हीं से प्रेरित, और उन्हीं के चरणों में समर्पित...

Views: 631

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 6, 2020 at 10:31am

आदरणीय लक्ष्मण भाई, आदाब। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2020 at 7:15am

आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 3, 2020 at 3:30pm

आदरणीय समर कबीर साहब, सादर प्रणाम। नाचीज़ की ग़ज़ल को अपना आशीर्वाद देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। उस्ताद-ए-मोहतरम, आपने सभी शेरों में बेहद ख़ूबसूरत और ज़रूरी इस्लाह दी है। 'जानें' को 'जाने' लिखना मेरी लापरवाही और नालायक़ी है। हर बार ग़ज़ल कहता हूँ तो चुनौती होती है कि कोई ग़लती या कमज़ोरी ना हो। आपका आशीर्वाद रहा तो शायद किसी दिन मुझे भी शेर में शिल्प की ये कमज़ोरियाँ और ऐब देखने की तौफ़ीक़ मिल सके। आपका हार्दिक आभार, सर।

Comment by Samar kabeer on March 3, 2020 at 3:00pm

जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब,आपने मेरे एक शैर को अपनी ग़ज़ल का मर्कज़ी ख़याल बनाया इसके लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।

ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का
तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता'

इस शैर का शिल्प कमज़ोर है, तक़ाबुल-ए-रदीफ़ भी है, शैर को यूँ कह सकते हैं:-

'सदाक़त का जनाज़ा रोज़ निकले इससे बढ़ कर तो

तबाही का यहाँ सामाँ कोई हो ही नहीं सकता'

'ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता'

इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,इसे यूँ कर सकते हैं:-

'मियाँ इससे बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता'

'न तुम जानो न हम जाने कि अगले पल में क्या होगा'

इस मिसरे में 'जाने' को "जानें" कर लें ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 2, 2020 at 8:35pm

आदरणीय राम भाई, बहुत बहुत शुक्रिया आपकी हौसला-अफ़ज़ाई का।

Comment by Ram Ashery on March 2, 2020 at 4:09pm

आपको बहुत बहुत बधाई अपने बिलकुल सही लिखा आज  के इस सियासत के युग में यह अक्षर सह सही है 

 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Ashok Kumar Raktale's blog post मनहरण घनाक्षरी
"शिज्जू भाई, आप चित्र से काव्य तक छंदोत्सव के आयोजन में शिरकत कीजिए. इस माह का छंद दोहा ही होने वाला…"
25 minutes ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा
"धन्यवाद आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब "
29 minutes ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा
"धन्यवाद आ. सौरभ सर,आप हमेशा वहीँ ऊँगली रखते हैं जहाँ मैं आपसे अपेक्षा करता हूँ.ग़ज़ल तक आने, पढने और…"
29 minutes ago
Nilesh Shevgaonkar commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आ. लक्ष्मण धामी जी,अच्छी ग़ज़ल हुई है ..दो तीन सुझाव हैं,.वह सियासत भी कभी निश्छल रही है.लाख…"
30 minutes ago
Nilesh Shevgaonkar commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,अच्छी ग़ज़ल हुई है ..बधाई स्वीकार करें ..सही को मैं तो सही लेना और पढना…"
47 minutes ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर बागपतवी साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, सादर बधाई"
52 minutes ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" commented on Ashok Kumar Raktale's blog post मनहरण घनाक्षरी
"आदरणीय सौरभ सर, हार्दिक आभार, मेरा लहजा ग़जलों वाला है, इसके अतिरिक्त मैं दौहा ही ठीक-ठाक पढ़ लिख…"
1 hour ago
Sushil Sarna posted blog posts
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी posted a blog post

ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते…See More
2 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा षष्ठक. . . . आतंक
"ओह!  सहमत एवं संशोधित  सर हार्दिक आभार "
3 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-121
"जी, सहमत हूं रचना के संबंध में।"
4 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-121
"शुक्रिया। लेखनी जब चल जाती है तो 'भय' भूल जाती है, भावों को शाब्दिक करती जाती है‌।…"
4 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service