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कितनी अपनी है जिंदगी --- डॉ o विजय शंकर

अपनी होते हुए भी कितनी अपनी है जिंदगी ,
हम नाचते हैं जिंदगी भर , नचाती है जिंदगी।

बस में बिलकुल नहीं है किसी के भी जिंदगी
खुद पर जिंदगी भर कितनी हावी है जिंदगी।

हसरत है तुझे जी लें एक बार अपने ही ढंग से
पर तू तो अपने ही ढंग से जिलाती है जिंदगी।

वो नाचने वाला है ,हुनर है , यही रोजी है उसकी ,
उसको भी अपने ही ढंग से नचाती है जिन्दंगी |

उसकी मर्जी ,करम कैसे - कैसे कराती है जिंदगी
निष्ठुर अपने ही ढंग से हँसाती-रुलाती है जिंदगी |

कितने हैं जो काँटों में भी सुकून से ज़िंदा रह लेते हैं
सेज-फूल पर भी कांटे कैसे कैसे चुभाती है जिंदगी |

ये खुशियाँ , ये गम , लगता है अपने ही किये का फल है ,
पर सजायें तो कुछ अपने ही ढंग से दिलाती है जिंदगी।



मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉo विजय शंकर

Views: 493

Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on January 23, 2015 at 8:42pm
प्रिय मिथिलेश वामनकर जी ,रचना को पसंद करने के लिए आभार,बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on January 23, 2015 at 8:39pm
आदरणीय गुमनाम पिथौरा गढ़ी जी ,रचना को पसंद करने एवं सद्भावनाओं के लिए आभार,धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on January 23, 2015 at 8:35pm
आदरणीय प्रतिभा त्रिपाठी जी , आपको पंक्तियाँ पसंद आईं , आभार, बधाई हेतु धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 23, 2015 at 8:09pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर  आपने ज़िंदगी को विभिन्न पहलुओं पर सुन्दर रचना प्रस्तुत की है हार्दिक  बधाई स्वीकार करें 

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 23, 2015 at 7:04pm


कितने हैं जो काँटों में भी सुकून से ज़िंदा रह लेते हैं
सेज-फूल पर भी कांटे कैसे कैसे चुभाती है जिंदगी |

वाह ज़िन्दगी के कई रंग वाह खूब ...............................

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