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मेरी कविते ! (रवि प्रकाश)

चाँद नगर को जाते-जाते,जिनका अश्व भटकता है;
उडुगण की उजली बस्ती में,चुँधियाया सा रुकता है।
स्वर्णकिरण की राहों पर जो,चलते हुए झिझकते हैं;
जिनके स्वप्न जहाँ विस्फारित,होते वहीं पिघलते हैं।
नीरदमाला बन कर उनके,निःश्वासों में गलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
जग में चौराहे कितने हैं,कितनी परम्पराएँ भी;
बनती-मिटती बस्ती भी है,अडिग अट्टालिकाएँ भी।
जीवन भर दोराहे पर जो,पथ-निर्धारण करते हैं;
आशा की कच्ची गागर में,सदा हताशा भरते हैं।
मैं उनको राह दिखाऊँगा,तुम्हें उजाला बनना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
आँखों में कितनी ललक भरी,प्याला लेकिन ख़ाली है;
जग की मधुशाला के भीतर,मधुबाला मतवाली है।
पहले से ही जो बेसुध हैं,उनकी प्यास बुझाती है;
पलक बिछाए आकुल हैं जो,उनसे आँख चुराती है।
ऐसों का चषक मुझे बनना,तुम्हें सुरा में ढलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
नहीं असम्भव चलते-चलते,ज़्यादा दूर निकल जाएँ;
खुली हवाएँ,भरी घटाएँ,परिचित बन कर सहलाएँ।
जिस चौखट की निर्जनता में,बस सूरज-चंदा आते;
उसी द्वार पे मुक्त कंठ से,हम दोनों सोहर गाते।
विक्षुब्ध कहीं मत हो जाना,तुमको यूँ ही पलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
वाणी की क्षमता चुक जाती,भाव निरन्तर भरते हैं;
नई बहारें नित खिलती हैं,पात पुराने झरते हैं।
नयनों की कोरों में आख़िर,बाक़ी रहती नमी कहीं;
गहरे,सच्चे उद्गारों में,साफ झलकती कमी कहीं।
सब मौनों की भाषा बन कर,स्वर में तुम्हें बदलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
सबको अपनी ही धुकधुक में,मीठी बोली पढ़नी है;
इन बेगाने बुतख़ानों में,ख़ुद की प्रतिमा गढ़नी है।
साधन संचित कर सकता है,जिसकी आदत ही छल है;
आँसू को मुस्कान बनाना,लेकिन अपना कौशल है।
निर्भीकों के अन्तरतम में,धूनी बन के जलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by Ravi Prakash on July 26, 2013 at 5:15pm
धन्यवाद।
Comment by वेदिका on July 19, 2013 at 4:03pm

सुंदर और प्रभाव शाली भावो की प्रस्तुति!! 

इस सुंदर प्रस्तुति पर ह्रदय से बधाई लीजिये आदरणीय रवि जी!! 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 6:29pm

"सुंदर रचना प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई..आदरणीय..रवि जी

Comment by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 5:21pm
धन्यवाद जी !!!
Comment by राजेश 'मृदु' on July 18, 2013 at 4:43pm

इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिए आपको ढेरों बधाई, सादर

Comment by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 1:46pm
सराहना के लिए कोटिशः धन्यवाद।
Comment by अरुन 'अनन्त' on July 18, 2013 at 11:07am

मित्रवर आपकी रचना के भाव इतने सुन्दर और गहरे होते हैं कि बस मन भर आता है पढ़ते पढ़ते, बेहतरीन पंक्तियाँ. सोहर शब्द सुने हुए जमाना हो गया है शायद भूल ही गया था पुनः विस्मरण कराने हेतु हार्दिक आभार इस रचना पर ढेरों बधाई स्वीकारें.

Comment by coontee mukerji on July 18, 2013 at 10:44am

वाणी की क्षमता चुक जाती,भाव निरन्तर भरते हैं;
नई बहारें नित खिलती हैं,पात पुराने झरते हैं।
नयनों की कोरों में आख़िर,बाक़ी रहती नमी कहीं;
गहरे,सच्चे उद्गारों में,साफ झलकती कमी कहीं।
सब मौनों की भाषा बन कर,स्वर में तुम्हें बदलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥...........बहुत सुंदर .

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