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जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा

प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा

 

सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ

एक लम्हा भी दहर हो जाएगा

 

माना ये छोटा है पर धीरज तो धर

बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा

 

भाग्य में जितना लिखा था मिल गया

अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा

 

जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर

मौत का उस पर असर हो जाएगा

 

तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला

आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा

 

सीख कुछ मेरे तजरबे से ‘प्रदीप’

वरना तू भी दर बदर हो जाएगा

 

                    मौलिक व अप्रकाशित                                                                                                                  

-प्रदीप देवीशरण भट्ट -16.01.2020

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Comment by Samar kabeer on January 28, 2020 at 2:36pm

जनाब प्रदीप देवीशरण भट्ट जी आदाब,अगर ये ग़ज़ल है तो इसके मतले में क़वाफ़ी नहीं हैं,दूसरी बात शीर्षक भी ग़लत है 'सहर हो जाएगा' 'सहर' शब्द स्त्रीलिंग है,देखियेगा ।

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