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प्रश्न मैं तुझ पर उठाऊँ, हूँ नहीं इतना पतित भी,
किन्तु जो प्रत्यक्ष है उस पर अचंभित हूँ, अकिंचन!
पूछ बैठा हूँ स्वयं के, बोध की अल्पज्ञता में,
बोल दे हे नाथ मेरे, क्या यही तेरा सृजन था?

जब दिखी मुस्कान तब-तब, आँसुओं का आचमन था।

आस के मोती हृदय की, सीप में किसने भरे थे?
कौन भावों की लहर में, घोल रंगों को गया था ?
धड़कनों की थाप पर, किसने किया मन एकतारा?
प्रीत की पहली छुअन को, पुण्य सम किसने किया था?

किन्तु क्षण के बाद ही, जब-तब समय का फेर देखा,
स्वप्न से रीते हृदय के, नाम विष का देख लेखा,
सोचता हूँ पूर्णता के हे शिखर! तूने रचा तो,
इस धरा पर क्यों निरंतर, बस अधूरा हर मिलन था?
बोल दे हे नाथ मेरे, क्या यही तेरा सृजन था?

 

चाहतों की सूचियाँ ले, थाल में दीपक सजाए,
कब झुकाए सर, हथेली खोल, कोई याचना की?
सृष्टि के हर एक कण में, देख कर प्रतिबिंब तेरा,
प्रेमवत अविराम तेरी, सिर्फ तेरी वंदना की।

जब कहीं ठहरा हृदय, तब रूप तेरा ही दिखा था,
पर सृजन के पृष्ठ पर, निकृष्टतम किसने लिखा था?
झूठ विजयी देख कर मैं, सर्वव्यापी बूझता हूँ,
तू अगर है सत्य तब फिर, सत्य का ही क्यों दमन था?
बोल दे हे नाथ मेरे, क्या यही तेरा सृजन था?

 

प्रेम निस्सृत अश्रुओं से, नाथ तेरे पग पखारूँ,
बूंद के सागर विलय की, राह लेकिन गुप्त क्यों है?
मोह के अनुबंध थामे, क्यों भ्रमित करते विषय हैं?
जो हृदय में प्रज्जवलित हो, रौशनी वो सुप्त क्यों है?

दो धुरों के बीच अनगिन, तंतु रच हर इक फलक पर,
खेलता क्यों भावनाओं के समुच्चय में पुलक कर,
हे परम आनंदमय! इतना बता क्यों अंश तेरा
दर्द के इन जंगलों में बस भटकता इक हिरन था?
बोल दे हे नाथ मेरे क्या यही तेरा सृजन था?

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 29, 2019 at 8:10pm

आ. प्राची बहन, सादर अभिवादन । उत्तम रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 29, 2019 at 6:36pm

बेहतरीन रचना हुई बधाई

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