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पहन रखा हैं 
मैने गले में, एक

गुलाबी चमक युक्त
बडा सा मोती
जिसकी आभा से दमकता हैं      
मेरा मुखमंडल 
मैं भी घूमती हूँ  इतराती हुई
उसके नभमंडल में
किंतु नहीं जानती थी
समय के साथ होगा
बदलाव उसमें भी
धूप, बादल, बारिश
आंधी के थपेड़ो को झेलते
बदलेगा उसका तेज
बुरी, काली,झपटने को आतुर 
लोंगो की नज़रों से
बदलेगा उसका वैभव
अब तक उसे हथेली की
अंजुरी में रख निहारने वाली मैं
निस्तब्ध हूँ
कोशिश में लगी हूँ कि
अब ढ लू उसे हथेलियों से कि
ना पड़े ऐसी कोई दृष्टि
जो खत्म कर दे 
उसकी भव्यता 
और तब गले में लटका वह मोती
पिरो लेती हूँ एक
लंबे से धागे में लटकाते हुए
जो अब रहेगा मेरे
सीने में बिल्कुल     
हृदय के निकट स्पर्श करता हुआ.

"मौलिक व अप्रकाशित" 
©नयना(आरती)कानिटकर
१९/०६/२०१९

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Comment

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Comment by नयना(आरती)कानिटकर on June 25, 2019 at 6:58am

आ. विजय जी, सुशिल जी, डा. छोटेलाल जी आप सभी का आभार.समर जी अवश्य सुधार करती हूँ.

Comment by vijay nikore on June 23, 2019 at 4:22pm

भाव अच्छे पिरोय हैं। रचना अच्छी लगी। बधाई आदरणीया नयना जी।

Comment by Samar kabeer on June 23, 2019 at 3:27pm

मुहतरमा नयना(आरती)कानिटकर जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'मैं भी घूमती हूँ  ईतराती हुई'

इस पंक्ति में 'ईतराती' को "इतराती" कर लें ।

Comment by Sushil Sarna on June 22, 2019 at 4:27pm

आदरणीया जी अंतर्मन के भावों को चित्रित करती इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on June 21, 2019 at 7:57am

आदरणीया नयना जी बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई

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