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न गुनगुनाना न बोल पड़ना,
अभी अधर पर सघन हैं पहरे।


अगर तिमिर को सुबह कहोगे
तभी सुरक्षित सदा रहोगे
अभी व्यथा को व्यथा न कहना
कथा कहो या कि मौन रहना
न बात कहना निशब्द रहना
सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।

न तार छेड़ो सितार के तुम
बनो न भागी विचार के तुम
हवा बहे जिस दिशा बहो तुम
स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।
यही समय की पुकार सुन लो
सवाल सारे दबा दो गहरे।

मशाल रखना गुनाह घोषित
वहाँ करें कौन दीप पोषित।
प्रकाश की हर सभा को घेरे,
बने सभापति गहन अँधेरे।
विराट संकट टला नहीं हैं
कहो किरण से यहाँ न ठहरे।

न वेदना का सचित्र लेखा
न मुस्कुराते किसी को देखा
विकास गाथा व्यथा छुपाकर
सुना रहे हैं बिगुल बजाकर
नई व्यवस्था में मिल रहे हैं
अमीर दर्पण गरीब चेहरे।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Hariom Shrivastava on March 4, 2019 at 10:54pm

वाह,वाहह,लाजवाब गीत सर

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 4, 2019 at 1:05pm

आदरणीय मिथिलेश जी, सादर नमन, सामयिक रचना सर्वकालिक प्रभाव! जय-जय!

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 4, 2019 at 12:27pm

गीत तो बहुत ही शानदार हुआ है आदरणीय मिथिलेश जी..शब्दों का चयन और भावो का सम्प्रेषण कमाल है...हालाँकि कथ्य से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है।यही लोकतंत्र की खूबसूरती है।

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