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कभी मुझे इस दुनिया में रहने का ढब न आएगा ...

कौन किसी के अश्रु पिएगा, कौन घाव सहलाएगा ...
पत्थर दिल वालों की नगरिया में तू धोखा खाएगा ...

माँगेगा दो बोल प्रेम के, तुझे भिखारी समझेंगे ...
जो कुछ तेरे पल्ले में है, वो भी आन गँवाएगा ...

किसके मन में कितना छल है, किसका मन कितना उज्जवल है ...
इसे समझना बड़ा सरल है, फिर भी समझ न पाएगा ...

कागज़ के ये फूल दूर से कितने अच्छे लगते हैं ...
रंग - रूप, अदभुत स्वरुप से मन को कितना ठगते हैं ...
फूलों की सुवास का कण भी, साँसों में न समाएगा ...

अपनेपन की चाह मुझे भी यहाँ - वहाँ भटकाती है ...
चोट कभी मेरे कोमल से मन को भी लग जाती है ...
कभी मुझे इस दुनिया में रहने का ढब न आएगा ...

 कौन किसी के अश्रु पिएगा, कौन घाव सहलाएगा ... Raavi (prabha)

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Comment by mohinichordia on September 6, 2011 at 12:15pm

मांगेगा दो बोल प्रेम के ........

अपनेपन की चाह ...बहुत मार्मिक पंक्तियाँ हैं .बहुत पसंद  आयीं


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 24, 2011 at 10:18am

किसके मन में कितना छल है, किसका मन कितना उज्जवल है ...
इसे समझना बड़ा सरल है, फिर भी समझ न पाएगा ...

 

बहुत कठिन है डगर पनघट की ...........छली को समझना बहुत कठिन है भाई , जब तक आप छला नहीं जाते तब तक आप समझ नहीं सकेंगे, यदि आप ने समझ ही लिया तो सामने वाले में छल  का गुण है ही नहीं |

 

बहरहाल बहुत ही खुबसूरत रचना , बढ़के स्वीकार करे प्रभा जी |

Comment by Prabha Khanna on June 23, 2011 at 10:11am
..Dhanyavaad Vivek sir...
Comment by विवेक मिश्र on June 22, 2011 at 10:45pm
/अपनेपन की चाह मुझे भी यहाँ - वहाँ भटकाती है ...
चोट कभी मेरे कोमल से मन को भी लग जाती है ...
कभी मुझे इस दुनिया में रहने का ढब न आएगा/- खुद के काफी करीब लगीं ये पंक्तियाँ. सुन्दर रचना.
Comment by Prabha Khanna on June 22, 2011 at 7:58pm
आदरणीय मित्रों, काव्य रचना को सराहने के लिए हार्दिक धन्यवाद ...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 21, 2011 at 9:46pm

कोमल किन्तु शाश्वत भावनाओं का सुन्दर प्रस्तुतिकरण.

Comment by jahir on June 21, 2011 at 7:40pm

nice,such hi kaha ha rehne ka dhag nahi aaya.

 

Comment by Shanno Aggarwal on June 21, 2011 at 5:13pm

प्रभा, अपनी रचना में बेहतरीन तरीके से दुनिया की सच्चाई को उतारा है तुमने.

''कागज़ के ये फूल दूर से कितने अच्छे लगते हैं ...
रंग - रूप, अदभुत स्वरुप से मन को कितना ठगते हैं ...''

Comment by प्रदीप सिंह चौहान on June 21, 2011 at 12:03pm
किसके मन में कितना छल है, किसका मन कितना उज्जवल है ...
इसे समझना बड़ा सरल है, फिर भी समझ न पाएगा .......... behad umda.

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