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वर्ना खुलता ही कहाँ ये मनस-पट------ग़ज़ल

2122 2122 122

दिल में नफ़रत होठों पे मुस्कुराहट

सबके वश में है क्या ऐसी बनावट?

कान मेरी ओर मत कीजिएगा

दिल जो टूटे तो नहीं होती आहट

आसमाँ में रंग बिखरेगा फिर से,

कह रहा था स्वप्न, मैंने कहा; हट

मान जा मन छोड़ उद्दंडता अब

दौड़ना अच्छा नहीं, ऐसे सरपट?

कोई जादू तेरी आँखों में तो है

वर्ना खुलता ही कहाँ ये मनस-पट

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2018 at 7:18pm

क्या कहने ...हार्दिक बधाई , आ. भाई पंकज जी ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 18, 2018 at 11:02pm

अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय पंकज जी...सादर

Comment by रक्षिता सिंह on February 18, 2018 at 12:47pm

आदरणीय पंकज जी,

सुन्दर रचना .... हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

कृपया ध्यान दे...

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